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‘चुनाव आयोग’ का ‘इकबाल’

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10:45 AM Apr 25, 2019 IST | Desk Team

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राष्ट्रीय चुनावों के समय चुनाव आयोग की भूमिका सर्वाधिक कठिन और महत्वपूर्ण इसलिए होती है क्योंकि इसकी निगाह में चुनाव लड़ रहे प्रधानमन्त्री पद पर आसीन व्यक्ति और उसके विरुद्ध खड़े हुए प्रत्याशी के बीच कोई अन्तर नहीं होता है। चुनाव आयोग सत्ता के किसी भी राजनैतिक प्रतिष्ठान को उदासीन बनाते हुए प्रशासनिक कार्यकारी अधिकार अपने हाथ में इस प्रकार लेता है जिससे सभी राजनैतिक दलों को एक समान बराबर के स्तर पर रखते हुए चुनाव में अपनी विजय के लिए प्रयास करने में किसी प्रकार का भेदभाव महसूस न हो। चुनाव आयोग केवल संविधान से ही शक्ति लेकर यह कार्य सुचारू रूप से करता है।

न्यायिक रूप से भी चुनावी दौर में इसका निर्णय सर्वोच्च रहे, इसीलिए राजनैतिक दलों के मामले में इसका दर्जा ‘अर्ध न्यायपालिका’ का रखा गया है। अतः चुनावी प्रचार से लेकर चुनावों के आयोजन व इनके नतीजे निकलने तक चुनाव आयोग की भूमिका ऐसे ‘विक्रमादित्य’ हो जाती है जिसके सामने सत्ता पर बैठे हुए किसी भी बड़े से बड़े राजनैतिक व्यक्ति के खिलाफ खुलकर शिकायत की जा सकती है और उसे न्याय की कसौटी पर कसते हुए निपटाना चुनाव आयोग का धर्म व कर्त्तव्य दोनों होते हैं। हमने देखा है कि किस प्रकार आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री से लेकर विभिन्न दलों के नेताओं के अमर्यादित बयानों का संज्ञान लेकर उन्हें अस्थायी तौर पर प्रचार करने से रोका। इसके अलावा किस प्रकार चुनाव आयोग ने आन्ध्र प्रदेश से लकर प. बंगाल में बड़े-बड़े अफसरों का तबादला किया। किन्तु चुनाव आयोग इस कसम से भी बन्धा होता है कि वह किसी भी मामले में दर्ज शिकायत के निपटारे को आम जनता को बतायेगा और अपने निष्पक्ष होने का पक्का सबूत मतदाताओं को देगा।

बदजुबानी व अमर्यादित भाषणबाजी के कई मामले उसके पास पिछले कई हफ्तों से पड़े हुए हैं जिन पर उसने अभी तक कोई निर्णय नहीं किया है जबकि आधे चुनाव क्षेत्रों में मतदान पूरा होने को आ गया है। मतदाता को अभी तक यह नहीं पता है कि राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह के खिलाफ चुनाव आयोग की सिफारिश का क्या हुआ ? लोकतन्त्र का सामान्य सा सिद्धान्त है कि ऊंचे पद पर बैठे व्यक्ति की गलती का भुगतान जल्द से जल्द किया जाना चाहिए जिससे नीचे के लोगों को स्वतः ही सबक मिल जाये और वे गलती करने से डरें। इसके साथ चुनाव आयोग को यह भी देखना होता है कि उसकी सत्ता का सम्मान सबसे पहले सत्ता में बैठे हुए राजनैतिक दल के लोग ही करें क्योंकि उनके द्वारा अवमानना करने से उसकी सत्ता स्वयं ही शून्य हो जायेगी और फिर राजनैतिक माहौल में अराजकता का वातावरण पैदा होने से रोकना उसके बस से बाहर हो सकता है क्योंकि विरोधी दलों को उस पर पक्षपात का आरोप लगाना आसान हो जायेगा। यह स्थिति लोकतन्त्र में कभी नहीं आनी चाहिए क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग को पहले दिन से ही वे अधिकार दे दिये थे कि वह किसी मन्त्री से लेकर मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री तक को चुनावी नियमों का पालन करने के लिए मजबूर कर सके।

चुनावी सिलसिले ‘मतदान केन्द्र’ ऐसा गैर व अराजनैतिक स्थल होता है जिसमें केवल मतदाता को ही अपनी राजनैतिक वरीयता वोट डालते समय चिन्हित करने की छूट है। इसके आसपास के कई मीटर क्षेत्र में मतदान के समय राजनैतिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा रहता है। इस मामले में चुनावी नियम किसी प्रकार की भी छूट किसी भी पार्टी के नेता को नहीं देते हैं। इसी प्रकार चुनाव के समय धार्मिक स्थलों का प्रयोग करने की सख्त मनाही है। ऐसा भारत में ही होता था कि चुनावी समय शुरू हो जाने पर राजनैतिक दलों के नेता मन्दिर या मस्जिद में जाने से परहेज किया करते थे परन्तु इन लोगों ने नया रास्ता धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करने का निकाल लिया है। इसी प्रकार जातियों की बात चुनावी मंचों से बेधड़क तरीके से होने लगी है। इस मामले में चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह असफल रहा है इसके साथ ही मजहब का खुला प्रयोग करने के सन्दर्भ में भी इसने अपने अधिकारों का प्रभावी प्रयोग नहीं किया है। हमने देखा है कि किस प्रकार फौज के कारनामों पर जमकर राजनीति करने का जुनून सवार हुआ था इसके खिलाफ चुनाव आयोग को अन्ततः फैसला करना पड़ा और आदेश जारी करना पड़ा कि शहीदों की तस्वीरों का इश्तेमाल राजनैतिक मंचों पर नहीं किया जा सकता क्योंकि वे किसी पार्टी के नहीं बल्कि देश के शहीद हैं।

मगर हम यह भी देख रहे हैं कि किस प्रकार मुम्बई के पाकिस्तानी हमले में देश के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले शहीद हेमन्त करकरे को खुद को साध्वी बताने वाली एक राजनैतिक कार्यकर्ता गालियां दे रही है और उन्हें देशद्रोही तक बताने से वह नहीं चूकी। भारत माता का इससे बड़ा अपमान और कोई नहीं हो सकता कि ऐसी महिला मतदाताओं का समर्थन मांगने की जुर्रत कर रही है। सवाल हिन्दू या मुसलमान आतंकवाद का बिल्कुल नहीं है बल्कि विशुद्ध रूप से आतंकवाद का है और हकीकत यह है कि स्वतन्त्र भारत में सबसे पहली आतंकवादी घटना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की ही थी जिसे एक हिन्दू नाथूराम गोडसे ने ही हिन्दुओं के नाम पर अंजाम दिया था।

मगर यह भी अजीब बात है कि कुछ लोग 2019 में अलीगढ़ में ही गांधी हत्या का रंगमंचीय प्रदर्शन करके सीना तानते हैं और सितम यह है कि अलीगढ़ में इस शर्मनाक नाटक को अंजाम देने वाली भी एक महिला ही थी। अतः सवाल साध्वी या महिला नेत्री का नहीं बल्कि भारत माता का है और भारत माता के हैं चार सिपाही, हिन्दू , मुस्लिम, सिख, ईसाई। अतः जो भी राष्ट्र का माथा ऊंचा रखने के लिए इस मुल्क में लोकतन्त्र को मजबूत बनाने में अपनी भूमिका निभाता है वही सबसे बड़ा राष्ट्रवादी है और देशभक्त है। अंग्रेजी राज के दौरान जो लोग अपने हकों के लिए लड़ रहे थे वे ही राष्ट्रवादी कहलाते थे। इसी वजह से सरदार भगत सिंह ने कहा था कि युवा पीढ़ी का राष्ट्रवाद अन्याय के विरुद्ध संघर्ष ही होता है।

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