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गरीबी हो आरक्षण का आधार?

आरक्षण को लेकर भारत में यह बहस बहुत पुरानी है कि इसका आधार जातिगत हो या गरीबी।

01:07 AM Sep 23, 2022 IST | Aditya Chopra

आरक्षण को लेकर भारत में यह बहस बहुत पुरानी है कि इसका आधार जातिगत हो या गरीबी।

गरीबी हो आरक्षण का आधार
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आरक्षण को लेकर भारत में यह बहस बहुत पुरानी है कि इसका आधार जातिगत हो या गरीबी। परन्तु 1950 में संवैधानिक व्यवस्था करके जातिगत आधार पर ही अनुसूचित जातियों व जनजातियों को 22.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इसके बाद 1990 में पिछड़े वर्गों को भी 27 प्रतिशत आरक्षण जातिगत आधार पर ही दिया गया। 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमन्त्री केवल 11 महीनों के लिए रहते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए जिस प्रकार पिछड़ी जातियों के लोगों को आरक्षण देने के लिए शैक्षणिक पिछड़ेपन को आधार बनाया क्या वह आर्थिक पक्ष से निरपेक्ष था? इसी प्रकार अनुसूचित जातियों व जनजातियों को दिये गये आरक्षण का आयाम भी आर्थिक था, परन्तु यह आरक्षण सामाजिक व सांस्कृतिक भेदभाव को बना कर दिया गया था जो पूरी तरह तर्कसंगत व जायज था क्योंकि हिन्दू समाज में हजारों साल से हरिजनों या दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार जाति के आधार पर ही इस प्रकार किया जाता था कि इन वर्गों के लोगों के परछावे तक को अशुभ माना जाता था और इन्हें ऐसे कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता था कि पशु भी स्वयं को इनसे ऊपर महसूस करने लगें। इन्हें अस्पृश्य या अछूत कहा जाता था। हिन्दू समाज की इस कुरीति को दूर करने का भरपूर प्रयास महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही किया और दलितों को समाज में बराबरी का स्थान दिलाने के लिए इन्हें ‘हरिजन’ कहा।
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स्वतन्त्रता के बाद ऐसी जातियों को चिन्हित किया गया और अनुसूचित जातियां कहा गया जबकि जनजातियों या आदिवासियों के लिए छोटा नागपुर (अब झारखंड) के महान विचारक स्व. कैप्टन जयपाल सिंह ने अकाट्य तर्क रख कर उनके लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कराई। इसका आधार बेशक जातिगत ही था परन्तु ये सभी लोग गरीब भी थे। आजादी के 75वें साल में हमें यह सोचने की जरूरत है कि क्या आज के दौर में भी वे ही परिस्थितियां हैं जो 1947 के समय थीं? जहां तक अनुसूचित जातियों व जनजातियों का सवाल है तो 75 साल का समय सदियों तक किये गये अन्याय का मुआवजा कभी नहीं भर सकते। अतः इस व्यवस्था से छेड़छाड़ करने की कोई तुक नहीं बनता है। इन जातियों के लिए मूलतः राजनैतिक आरक्षण किया जाना संविधान निर्माताओं की अवधारणा थी जिससे सीधे सत्ता के केन्द्रों में इन जातियों की भागीदारी हो सके और इनका सामाजिक स्तर लगातार ऊपर उठता जाये। साथ ही सरकारी नौकरियों में भी इन्हें आरक्षण दिया गया। इसका मूल लक्ष्य भी हरिजनों की सामाजिक स्थिति को हिन्दू समाज के कथित सवर्ण वर्गों के बराबर लाने का था, क्योंकि जब किसी दलित का बेटा या बेटी आईएएस अफसर बनता है तो खुद-ब-खुद समाज में उसकी प्रतिष्ठा पाने लगती है जिससे जातिविहीन समाज की संरचना को बल मिलता है, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति में भी स्वतः परिवर्तन आता है। परन्तु भारत का संविधान जाति​विहीन व वर्ग विहीन समाज की वकालत भी करता है, अतः पिछड़ों के शिक्षा को आधार बना कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जो 27 प्रतिशत आरक्षण किया उसमें से सम्प्रदाय की सीमा समाप्त कर दी और समाज के सभी धर्मों के लोगों को इसकी पात्रता के पैमाने के घेरे में ला दिया जिससे भारत में जाति प्रथा अपनी जड़ें और गहरी करने लगी बल्कि इसका विस्तार इस्लाम व ईसाई धर्म तक में हो गया जिन्हें जातिविहीन सम्प्रदाय कहा जाता है। अतः जातिविहीन समाज बनाने के लक्ष्य को यहीं तिलांजली दे दी गई और जातियों को विशुद्ध राजनीतिक वोट बैंक में तब्दील कर दिया गया।
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यह स्थिति आजादी के 75 साल बाद जब बनी है तब देश की अर्थव्यवस्था बाजार मूलक हो चुकी है और हर क्षेत्र में निजी निवेश की प्रचुरता हो रही है । ऐसे में पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में किया गया 27 प्रतिशत आरक्षण निजी क्षेत्र के लिए एकमात्र मापदंड योग्यता की पात्रता को चुनौती देता लग रहा है, तो दूसरी तरफ जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है जिससे जातिविहीन समाज के लक्ष्य की ओर बढ़ने के रास्ते में एक और कील ठोकी जा सके। आखिरकार इसका सर्वमान्य हल क्या हो सकता है जो संविधान की कसौटी पर भी खरा उतर सके और जाति व वर्ग विहीन समाज की संरचना में एक कदम और आगे चल सके। यह आधार केवल गरीबी ही हो सकता है। केन्द्र की मोदी सरकार ने संविधान में 103वां संशोधन करके आरक्षित वर्ग से इतर समाज के गरीब तबकों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था दी जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई है और इसी मुद्दे पर न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ आजकल सुनवाई कर रही है। इस मामले पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने कुछ तर्क खड़े किये हैं। उनमें सबसे अधिक यह विचारणीय है कि गरीबी का मानक तय करने में क्या अनुसूचित जातियों व जनजातियों और पिछड़े वर्गों के गरीबों को जाति के आधार पर ही बाहर नहीं कर दिया गया है? परन्तु पिछड़ों के आरक्षण कोटे में ही ‘क्रीमी लेयर’ की व्यवस्था है जिसका आधार आर्थिक है। ‘क्रीमी लेयर’ में आ जाने के बाद उस परिवार के सदस्यों को आगे आरक्षण नहीं मिलेगा जिससे जो 10 प्रतिशत आरक्षण गरीब लोगों के लिए किया गया है, वह कुल आरक्षित कोटे 49.5 प्रतिशत में ही समाहित हो जायेगा। अनारक्षित समाज के गरीबों को यदि 10 प्रतिशत आरक्षण इसी 49.5 प्रतिशत आरक्षित कोटे के भीतर दिया जाता है, तो इससे सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश की अवहेलना भी होगी जो उसने अपने पूर्व के फैसले में दिया था कि अधिकतम आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता।
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मगर सर्वोच्च न्यायालय स्वयं ही पहले यह भी कह चुका है कि आरक्षण का आधार सिर्फ गरीबी ही होना चाहिए। बेशक भारत में गरीबी की पहचान जातियों से भी जुड़ी हुई है। दलित वर्ग तथा आदिवासी समाज की जातियां गरीब ही हैं, मगर पिछड़े समाज की जातियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। इस वर्ग में बहुत सी जातियां ऐसी हैं जो भूमिपति व धनपति हैं। अतः पूरे मामले की समीक्षा किये जाने की दरकार करती हैं। अतः यह तर्क गैर वाजिब नहीं कहा जा सकता कि अनुसूचित जातियों व जनजातियों को छोड़ कर शेष आरक्षण का एकमात्र आधार गरीबी ही हो।
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