क्या मुसलमानों का भविष्य भारत में सुरक्षित है?
बड़े मज़े की बात है कि चुनाव के निकट सभी पार्टियों को मुसलमान याद आने…
बड़े मज़े की बात है कि चुनाव के निकट सभी पार्टियों को मुसलमान याद आने लगते हैं। इन तेरे, मेरे मुसलमानों की याद इन सभी नेताओं को अपनी वोट बैंक की सियासत चमकाने और कुर्सियां जमाने के लिए ही आती है, मगर मुस्लिम तबका भी वोट देते-देते परिपक्व हो चुका है और इन पार्टियों की सौदेबाजी और जालसाज़ी को समझने लगा है। पार्टी चाहे जो भी हो, अब मुसलमान जान गया है कि उसकी ज़रूरत क्या है। कुछ इन्हीं मुद्दों को लेकर दिल्ली में एक महत्वपूर्ण संगोष्ठी हुई, जिसका विषय था, ‘भारत में मुसलमानों का भविष्य’ यह ठीक है मुस्लिम संप्रदाय का अस्तित्व भारत के भूत, वर्तमान और भविष्य से अवश्य जुड़ा है और जिसका बखान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अध्यक्ष, डा. मोहन भागवत कई बार कर चुके हैं, क्या बार-बार इसका ज़िक्र करना और मुसलमान-मुसलमान करना ज़रूरी है?
अब इससे हुआ क्या है कि सदा से दूध और शक्कर जैसे जुड़ाव से रहने वाले हिंदू अब खीझ कर मुस्लिमों की तरह हिंदू-हिंदू करने लगे हैं। अभी तो हिंदू-हिंदू करने वाले हिंदुओं की संख्या कम है, मगर यह संख्या यदि बढ़ गई तो देश का वातावरण कैसा होगा। मुस्लिम संप्रदाय को समझना चाहिए कि 90 प्रतिशत से अधिक हिंदू गर्म मिज़ाज का न हो कर नरम मिज़ाज है। यहां मुसलमान को यह भी मानना चाहिए, और जैसा कि भारत रत्न और भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री, मौलाना आज़ाद ने भी कहा था कि मुसलमान का सबसे अच्छा दोस्त हिंदू है और यह कि भारत से अच्छा देश उनके लिए कोई दूसरा नहीं है, एक मार्ग दर्शक की दी हुई सलाह की भांति इस वक्त अपना लेना चाहिए जैसा कि उन्होंने 1947 में किया आज़ाद ने जामा मस्जिद की सीढ़ियों से अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था।
संगोष्ठी में मुजफ्फरनगर की सांसद इकरा हसन ने बावजूद एक विपक्षी दल से होने के नाते कहा-मैं केवल मुस्लिमों की बात नहीं करती बल्कि सभी की बात करती हूं क्योंकि मेरे क्षेत्र में मुझे जिताने वालों में अधिकतर वोट हिंदू समाज के हैं, जो वहां 80 प्रतिशत हैं। मैंने सदा से ही अपने पिता की भांति साझा विरासत को अव्वल समझा है। फिर खुद हमारे अंदर भी तो कमियां हैं।’ सच्चाई तो यह है कि हिंदू और मुस्लिम सदा से भारत देश में भाइयों की भांति रहते चले आए हैं और उनको ठगने वाले, उनका सुकून समाप्त करने वाले व उसको नर्क में धकेलने वाले वही हिंदू-मुस्लिम नेता हैं, जो स्वयंभू सेक्युलर लीडर बने हुए हैं।
यही उन खान मार्केट गैंग, अवॉर्ड वापसी गैंग, मोमबत्ती गैंग आदि के लोग हैं, जिन्होंने मुसलमानों को गलत और निराधार पट्टी पढ़ाई है कि जनसंघ, आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद आदि उनके खून के प्यासे हैं। कितने खून के प्यासे हैं, यह तो ख़ुद मुस्लिमों और दुनिया ने बीते दिनों, मोदी-1 और मोदी-2 में देख लिया है कि नरेंद्र मोदी यह कहते नहीं थकते कि मुस्लिम उनकी संतान की भांति हैं और वे उनके साथ बराबरी का सुलूक करना चाहते हैं। यही नहीं, मोदी यह कहते भी नहीं थकते कि वे हर मुस्लिम के एक हाथ में कुरान और एक हाथ में कंप्यूटर देखना चाहते हैं, मगर विपक्षी और वामपंथी सदा से ही अपनी राजनीति चमकाने के उद्देश्य से मुसलमानों को बहलाते- फुसलाते, डराते, भटकाते और भड़काते चले आए हैं। अंतर्धर्म सद्भावना केंद्र के अध्यक्ष ख्वाजा इफ्तिखार अहमद का मानना है कि वास्तविकता तो यह है कि भारत में मुस्लिमों का भविष्य बड़ा उज्ज्वल है, क्योंकि भारत सीरिया, अफगानिस्तान, ईरान या पाकिस्तान नहीं है।
वैसे सच्चाई यह भी है कि मुसलमानों की अपनी भी जायज़ शिकायतें हैं, जिनमें उनकी मस्जिदों व अन्य स्मारकों जैसे अजमेर दरगाह, ताज महल, कुतुब मीनार, लाल किला आदि के नीचे मंदिरों की मौजूदगी के लिए न्यायालयों में जांच और खुदाई की याचिकाएं, बुलडोजर एक्शन, लिंचिंग आदि। मुसलमानों का सोचना सही है कि जो गलतियां उनके पूर्वज कर गए हैं, मौजूदा दौर के मुस्लिमों से उसका बदला क्यों लिया जा रहा है। यदि यह सरकार मंदिरों की पुनः प्राण प्रतिष्ठा पर आ गई तो बकौल मुस्लिम समाज को कम से कम 40,000 मस्जिदों से हाथ धोना पड़ेगा! यदि बीते वर्षों में मुस्लिम बादशाहों से ऐसा हुआ है तो मुसलमानों को इस बात पर खेद प्रकट करना चाहिए और अड़ियल रवैया न अपना कर सौहार्द और सद्भावनाओं के पुल बनाना चाहिए। यदि ऐसा हो गया तो वास्तव में समभाव और सदाचार की ऐसी मिसाल बन जाएगा भारत कि जिसका गुणगान दुनिया में किया जाएगा। जय हिंद।