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मसला ग्रेस माक्र्स का !

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07:37 PM Jun 26, 2017 IST | Desk Team

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केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की परीक्षाओं में ग्रेस माक्र्स को लेकर इस वर्ष काफी गड़बड़झाला रहा। परिणामों में भी विलम्ब हुआ और विसंगतियां भी सामने आईं। सीबीएसई ने ग्रेस माक्र्स नीति को खत्म करने का फैसला किया था लेकिन मामला हाईकोर्ट जा पहुंचा तो हाईकोर्ट के आदेश के बाद नतीजे मॉडरेशन के मुताबिक जारी करने की कवायद शुरू की गई। सीबीएसई अब अपनी नई नीति के तहत ग्रेस माक्र्स देने की पद्धति बन्द करने पर विचार कर रहा है। अन्तिम फैसला 29 जून की बैठक में गहन विचार-विमर्श के बाद ही लिया जाएगा। देश के कुछ शिक्षा बोर्डों के छात्रों को उन विषयों में बढ़ाकर माक्र्स दिए जाते हैं जिसके बारे में समझा जाता है कि उसमें पूछे गए कुछ सवाल कठिन हैं, इसे ही ग्रेस माक्र्स कहते हैं, इसे बोर्ड की मॉडरेशन पॉलिसी के नाम से जाना जाता है। मॉडरेशन माक्र्स या ग्रेस माक्र्स विभिन्न शिक्षा बोर्ड छात्रों को 10 से 15 अंक तक देते हैं। यह अंक पाकर छात्र विश्वविद्यालयों में दाखिले की रेस में आगे बढ़ जाते हैं।

ग्रेस माक्र्स से मिली राहत के चलते ही दिल्ली विश्वविद्यालय समेत अन्य विश्वविद्यालयों की कट ऑफ हाई हो जाती है। यदि दाखिलों के लिए कट ऑफ लिस्ट 100 या 99 फीसदी अंकों से शुरू होती है तो समझ लीजिये कम अंक पाने वालों के लिए दाखिले की कोई सम्भावना ही नहीं बचती। मॉडरेशन कमेटी ऐसे पैरामीटर तैयार करती है जो यह फैसला करते हैं कि ग्रेस माक्र्स किस तरीके से दिए जाएंगे। ग्रेस माक्र्स आमतौर पर कम्प्यूटराइज्ड स्टैटिकल पैरामीटर पर आधारित होते हैं। अगर किसी स्टूडेंट के ज्यादातर विषयों में 40 से ऊपर माक्र्स हैं लेकिन किसी एक विषय में पास होने के लिए 2 अंक कम पड़ रहे हैं तो कम्प्यूटर ऑटोमैटिकली छात्र को कम पड़ रहे 2 अंक दे देगा। अगर स्टूडेंट के सभी सब्जैक्ट के माक्र्स 89 प्रतिशत हों तो कम्प्यूटर उसे 90 फीसदी कर देता है ताकि वह ए-1 ग्रेड के साथ पास हो। बोर्ड की मॉडरेशन नीति को खत्म करने के फैसले का विरोध करते हुए कुछ अभिभावकों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। मॉडरेशन नीति का विरोध करते हुए कहा गया था कि ये छात्रों के लिए विनाशकारी होगा। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भारत की स्कूली शिक्षा का एक प्रमुख बोर्ड है।

भारत के बहुत से निजी विद्यालय इससे जुड़े हुए हैं। हर साल लाखों स्टूडेंट्स परीक्षा देते हैं। पिछले वर्ष दिसम्बर में भी सेंट्रल बोर्ड ऑफ सैकेंड्री एजुकेशन ने मानव संसाधन मंत्रालय से मॉडरेशन पॉलिसी को खत्म किए जाने की अपील की थी। पिछले कई वर्षों से छात्रों को मॉडरेशन पॉलिसी की वजह से लगभग 8 से 10 अंक तक अधिक मिले। इस कारण 95 फीसदी और इससे अधिक अंक प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या बहुत बढ़ गई है। सीबीएसई में वर्ष 2006 में 384 छात्रों को 95 फीसदी या उससे अधिक अंक मिले जबकि यह संख्या वर्ष 2014 में बढ़कर 8971 तक पहुंच गई। पिछले 2 वर्षों में यह आंकड़ा और भी बढ़ गया। ऐसे में कम्पीटीशन लेवल बढ़ गया। अंकों की प्रतिस्पर्धा में कुछ छात्रों ने आत्महत्या भी की। जिनके अंक भी अच्छे थे उन्हें मनपसन्द विषयों में दाखिला नहीं मिला। वे एक कालेज से दूसरे कालेज भटकते रहे। छात्र अवसाद का शिकार हो रहे हैं। अब सवाल यह है कि क्या ग्रेस माक्र्स देने की पद्धति जारी रखी जाए या नहीं। अनेक शिक्षाविद् मानते हैं कि ग्रेस माक्र्स की नीति उन छात्रों के साथ अन्याय के समान है जो कड़ी मेहनत करके 95 या इससे अधिक फीसदी अंक प्राप्त करते हैं।

छात्र कड़ी मेहनत करके अंक हासिल करते हैं लेकिन यह भी सम्भव नहीं कि हर कोई सभी विषयों में 100 में से 100 अंक हासिल करे। अंक देते समय कुछ न कुछ तो अवरोधक होने चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में कामर्स और साइंस के अलावा गणित और हिस्ट्री जैसे विषयों में भी कट ऑफ 100 फीसदी को स्पर्श कर जाती है। राज्यों के शिक्षा बोर्ड तो पास प्रतिशत बढ़ाने के लिए उदारता से छात्रों को अंक देते हैं। हिमाचल, हरियाणा, महाराष्ट्र और बिहार में कोई मॉडरेशन नीति नहीं लेकिन तमिलनाडु, गोवा, उत्तराखंड में उदारता से अंक दिए जाते हैं ताकि रिजल्ट अच्छा दिखाया जा सके। ग्रेस माक्र्स की नीति तभी सफल हो सकती है जब राज्य शिक्षा बोर्डों के लिए एक समान नीति हो। सीबीएसई को सभी राज्यों से विचार-विमर्श के बाद एक समग्र नीति बनानी चाहिए ताकि किसी भी छात्र से अन्याय न हो। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच भारत में युवा पीढ़ी को सम्भालने के लिए न्यायपूर्ण और तार्किक नीतियों की जरूरत है। इसलिए नीतियां बनाते समय युवाओं के भविष्य का ध्यान रखना ही होगा।

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