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इंसाफ अगर समय पर मिले तो ठीक है...

06:18 AM Sep 03, 2025 IST | Editorial

हरियाणा के भिवानी की शिक्षिका मनीषा की हत्या ने न केवल एक परिवार को तोड़ दिया है, बल्कि समाज को भी झकझोर कर रख दिया है। यह घटना फिर से उस गहरे सवाल को सामने लाती है जो वर्षों से हमारे न्याय तंत्र पर मंडराता आ रहा है, क्या हमारे देश में समय पर न्याय मिल पाना संभव है? मनीषा का मामला अब सीबीआई के पास भेजने की प्रक्रिया में है। पुलिस ने मुख्यालय को पत्र लिख दिया है और उम्मीद जगाई जा रही है कि सीबीआई जांच से सच्चाई सामने आएगी। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होगा? क्या यह मान लेना चाहिए कि सीबीआई जांच ही न्याय की गारंटी है? अतीत के कई मामलों को देखें तो जवाब निराशाजनक मिलता है।

हरियाणा और आसपास के जिलों के कई ऐसे बड़े केस हैं जिन्हें सालों पहले सीबीआई को सौंपा गया लेकिन आज भी वे न्याय की मंज़िल तक नहीं पहुंचे। 1995 में 11वीं कक्षा की छात्रा की हत्या हुई थी, आरोपी 30 साल से फरार है। यह केवल पीड़िता के परिवार की पीड़ा नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक व्यवस्था पर सवाल है। 2013 में पूर्व जज द्वारा पत्नी की हत्या का मामला पिछले 12 साल से कोर्ट में लंबित है। आरोपी को 2016 में गिरफ्तार किया गया लेकिन ट्रायल आज भी अधूरा है। 2017 में छात्र की हत्या के मामले में सीबीआई ने स्कूल के ही छात्र को आरोपी बनाया था। पर केस का कोई अंतिम नतीजा सामने नहीं आया। 2022 का सोनाली हत्याकांड भी तीन साल बाद अब तक स्पष्ट नहीं हो पाया कि हत्या क्यों हुई। इसी तरह प्रेम विवाह पर युवक की हत्या का केस 2015 से कोर्ट में चल रहा है और आठ साल बाद भी फैसला नहीं आया।

इन उदाहरणों से साफ है कि सीबीआई को केस सौंप देना न्याय का पर्याय नहीं है। कई बार तो यह केसों को और ज्यादा लंबा कर देता है। न्याय में देरी केवल कानूनी औपचारिकता नहीं है, यह सीधे-सीधे पीड़ित परिवार पर मानसिक, सामाजिक और आर्थिक बोझ डालती है। हर सुनवाई पर परिवार के सदस्य उम्मीद लेकर कोर्ट जाते हैं। उन्हें लगता है कि आज कोई ठोस कदम उठेगा। लेकिन बार-बार अगली तारीख़ मिलती है। यह सिलसिला महीनों नहीं, बल्कि वर्षों तक चलता रहता है। ऐसे में पीड़ित परिवार की हिम्मत टूट जाती है। कई बार गवाह समय के साथ कमजोर हो जाते हैं या डर के कारण पलट जाते हैं। सबूत समय बीतने के साथ कमजोर पड़ जाते हैं। आरोपी खुलेआम समाज में घूमते रहते हैं और पीड़ित परिवार यह सोचता रह जाता है कि कानून आखिर किसके लिए बना है।

देरी की जिम्मेदारी किसकी है? पुलिस की जिम्मेदारी है कि फरार आरोपियों को पकड़कर कोर्ट के सामने पेश करे लेकिन कई मामलों में आरोपी वर्षों तक फरार रहते हैं और पुलिस केवल बयान देती रह जाती है। सीबीआई और अन्य जांच एजेंसियां अक्सर केस की जांच लंबी खींच देती हैं। रिपोर्ट्स तैयार करने में वर्षों लग जाते हैं और कभी-कभी राजनीतिक दबाव भी जांच की दिशा बदल देता है। न्यायपालिका में केसों की संख्या इतनी अधिक है कि हर सुनवाई महीनों बाद मिलती है। ट्रायल की प्रक्रिया धीमी है और फैसला आने में दशकों लग जाते हैं। सरकार की भी जिम्मेदारी है। क्योंकि अगर न्यायिक ढांचे को पर्याप्त संसाधन और आधुनिक तकनीक नहीं दी जाएगी तो देरी होना तय है।
जब अपराधी खुले घूमते हैं और पीड़ित परिवार अदालतों के चक्कर लगाता रहता है, तो समाज का भरोसा कानून से उठने लगता है। लोग धीरे-धीरे यह सोचने लगते हैं कि न्याय मिल ही नहीं सकता।

अगर हम वास्तव में यह चाहते हैं कि मनीषा और उसके जैसी बेटियों को न्याय मिले, तो इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे। जघन्य अपराधों के लिए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं ताकि सुनवाई समयबद्ध हो। सीबीआई जांच के लिए समय सीमा तय की जाए। फरार आरोपियों को पकड़ने के लिए विशेष टास्क फोर्स बनाई जाए। हर छह महीने में पीड़ित परिवार को केस की स्थिति बताई जाए। अदालतों और जांच एजेंसियों में डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम हो ताकि देरी का कारण साफ़ दिखाई दे। गवाह संरक्षण योजना को सख्ती से लागू किया जाए ताकि गवाह डर के कारण पलट न सकें।

मनीषा की हत्या कोई साधारण अपराध नहीं है। यह हमारे समाज की उस विफलता की कहानी है जहां बेटियां सुरक्षित नहीं हैं और अगर उनके साथ कुछ हो भी जाए तो न्याय पाने में वर्षों लग जाते हैं। मनीषा का परिवार आज भी उम्मीद लगाए बैठा है। अगर यह भी अन्य मामलों की तरह वर्षों तक खिंच गया तो समाज का भरोसा और कमजोर होगा। न्याय में देरी का मतलब है न्याय से इनकार। जब आरोपी सालों तक सज़ा से बच जाते हैं, तो यह संदेश जाता है कि कानून शक्तिशाली के लिए ढीला और कमजोर के लिए सख्त है। मनीषा और उससे पहले की कई बेटियां आज भी इंसाफ़ की आस लगाए बैठी हैं। उनकी आंखों से टपकता दर्द हम सबकी सामूहिक नाकामी है। अब समय आ गया है कि सरकार, न्यायपालिका सुनिश्चित करें कि न्याय समय पर मिलेगा।

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