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आपातकाल से सबक सीखना जरूरी

आपातकाल के दौर में लोकतंत्र की चुनौतियाँ…

05:15 AM Jun 24, 2025 IST | Editorial

आपातकाल के दौर में लोकतंत्र की चुनौतियाँ…

श्रीमती गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा किसी बाह्य या आंतरिक उथल-पुथल के कारण नहीं थी। 1971 बांग्ला युद्ध के दौरान ही बाह्य इमरजेंसी लगी हुई थी। गुजरात, बिहार के युवाओं के बढ़ते असंतोष से पनपा आंदोलन का राष्ट्रव्यापी स्वरूप में आना, जेपी जैसे महानायक द्वारा इसे अपना नेतृत्व प्रदान करना, 12 जून 1975 को गुजरात प्रांत से प्राप्त हुए नतीजों में कांग्रेस पार्टी की पराजय आदि कई प्रमुख कारण रहे। जेपी स्वाधीनता संग्राम में गांधी-नेहरू के विश्वासपात्र साथियों में थे, लिहाजा उनकी पीड़ा आपातकाल को लेकर अन्य नेताओं से भिन्न और मार्मिक थी। पंडित नेहरू न सिर्फ भारत के स्वाधीनता संग्राम के योद्धा थे बल्कि विश्व भर में लोकतंत्र और स्वाधीनता संग्रामों को भी उनका समर्थन रहता था इसीलिए इंदिरा गांधी को जेल से लिखा पत्र उनकी आत्मा की आवाज है। “कृपया उन बुनियादों को तबाह न करें जिन्हें राष्ट्र के पिताओं ने, जिसमें आपके पिता भी शामिल हैं अपने खून-पसीने से सीचने का काम किया है।

आप जिस रास्ते पर चल पड़ी हैं उस पर संघर्ष और पीड़ा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। आपको एक महान परंपरा, महान मूल्य और कार्यरत लोकतंत्र विरासत में मिला है। जाते-जाते दुखी कर देने वाला मलबा छोड़कर मत जाइए, फिर से जोड़ने में काफी समय लग जाएगा। जिन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया और उसे परास्त किया, वे अनिश्चितकाल तक अधिनायकवाद के अपमान और शर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकते। 25 जून 1975 को दिल्ली रामलीला मैदान समूचे विपक्ष द्वारा आयोजित रैली संख्या में विशाल थी। इससे पूर्व इसका आयोजन 20 जून को तय किया गया था। जेपी उस दिन कलकत्ता प्रवास में थे। जेपी की उपस्थिति को रोकने के लिए कलकत्ता से दिल्ली की सभी उड़ानें रद्द कर दी गई।

लिहाजा 25 जून की तिथि तय की गई। जनसंघ नेता मदनलाल खुराना मंच का संचालन कर रहे थे। लोकदल में प्रतिनिधि के रूप में सत्यपाल मलिक और मैं भी उपस्थित था। इलाहाबाद कोर्ट द्वारा 12 जून को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसले से समूचे देश में भूचाल-सा आ गया था समाजवादी नेता राजनारायण ने 1971 में श्रीमती गांधी के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ा था, वे चुनाव में पराजित हो गए लेकिन उन्होंने श्रीमती गांधी के चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में श्रीमती गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने, भ्रष्ट हथकंडे अपनाने, डीएम, एसपी के पदों का दुरुपयोग करने, शराब एवं कम्बल आदि बांटने का दोषी पाया और उनके चुनाव को रद्द कर उन्हें 6 वर्ष के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया, यद्यपि बाद में उनके वकील डी.पी. खरे द्वारा एक याचिका दायर की गई जिसमें 20 दिन की छूट की मांग इस आधार पर की गई कि नए नेता का चुनाव करना होगा और इसी बीच में कोई उथल-पुथल राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध हो सकती है।

यद्यपि नेता के चुनाव की बात तो दूर समूची पार्टी ने एक बड़ी रैली 23 जून को कर उनके प्रति न सिर्फ आस्था का परिचय दिया, बल्कि उस समय के पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने सभ्यता की सभी सीमाएं लांघकर उन्हें राष्ट्र का पर्याय घोषित कर दिया कि इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है। आपातकाल के तमाम प्रसंगों व घटनाक्रम से एक बड़ी सीख मिलती है जब कोई व्यक्ति या नेता अपने को पार्टी या फिर राष्ट्र का पर्याय मान लेता है, लोकतांत्रिक मूल्यों का पतन और तानाशाही की बुनियाद वहीं से शुरू हो जाती है। औपचारिक रूप से आपातकाल थोपना अब असंभव है, पर ऐसी आशंकाएं बनी रहती हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को संस्थागत तंत्रों व सिद्धांतों से ऊपर उठा देता है। अक्षरश: यही सब इंदिरा गांधी के साथ घटित हो रहा था।

सभी प्रमुख दलों के नेताओं के बाद जेपी अपना भाषण प्रारंभ करने को उठते हैं, विशाल जनसमुदाय देर तक तालियां बजाकर उनका अभिवादन करने लगता है। वातावरण सारगर्मित भी है और उत्तेजित भी है। राष्ट्रीय कवि दिनकर की इस कविता का भी कई बार उल्लेख होता है कि:

“सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”

जे.पी. न्यायालय इलाहाबाद के घटनाक्रम का जिक्र करते हुए श्रीमती गांधी के इस्तीफे की पुन: मांग करते हैं कि यह जन समर्थन के अभाव वाली सरकार है और वे इसे अस्वीकार करते हैं और वे सेना और पुलिस से भी अपील करते हैं कि किसी भी अवैध आदेश का पालन न करें, जैसा कि उनका मैन्युअल भी कहता है। इसी प्रकार का प्रस्ताव 1930 के दशक में उनके दादा मोती लाल नेहरू भी पारित करते हैं कि पुलिस को चाहिए कि वह अवैध आदेशों का पालन न करें। उस समय के अंग्रेजी जजों ने भी स्वीकार किया था कि अवैध आदेशों का पालन न करने की अपील करने में कुछ गलत नहीं है।

श्रीमती गांधी असुरक्षा के दौर से गुजर रही थी। एक तबके द्वारा अदालत का फैसला आने तक किसी वरिष्ठ मंत्री को कार्यभार सौंपने की मांग भी उठने लगी। सरदार स्वर्ण सिंह एवं बाबू जगजीवन के नाम प्रमुखता से चर्चा में रहे लेकिन इस दौर में श्रीमती गांधी को अब किसी नेता पर ऐतबार नहीं बचा था। उनकी मुसीबत को निरंतर बढ़ाने का काम युवा तुर्क नेता चंद्रशेखर एवं कम्पनी भी कर रहे थे। मोहन धारिया, कृष्णकांत, लक्ष्मीकान्तमा इस कोर ग्रुप के सदस्य थे जो निरंतर टकराव टालने एवं जेपी से संवाद करने के पैरोकार थे। इन्हीं नेताओं के प्रयास से दो दौर की वार्ता श्रीमती गांधी और जेपी के बीच हो चुकी थी जो बेनतीजा रही।

इसी असुरक्षा के दौर में आर.के. धवन, संजय गांधी एवं चौधरी बंसीलाल का त्रिगुटा सक्रिय हो चला। संजय गांधी को मारुति उद्योग के लिए 290 एकड़ जमीन आवंटित किए जाने पर संसद कई बार ठप्प हो चुकी थी। तीनों ने मिलकर सख्त कार्रवाई करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इंदिरा आवास पर 12 जून से निरंतर जनसमर्थन के नाम पर रैली आयोजित होने लगी। लम्पट किस्म के तत्वों की यूथ कांग्रेस में भरमार हो चली। तिगड़ी ने श्रीमती गांधी को अपना नरम रुख त्यागकर कड़ा रवैया अख्तियार करने का दबाव बनाना शुरू किया। चंद्रशेखर के नॉर्थ एवेन्यू स्थित आवास पर 24 जून को जेपी के सम्मान में आयोजित डिनर में दो दर्जन से अधिक कांग्रेसी सांसदों की उपस्थिति सबको आश्चर्यचकित करने वाली थी।

सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कानूनविद आपातकाल का मसविदा तैयार करने लगे और संजय ब्रिगेड ने जेपी की पुलिस और सेना से की गई अपील को मुख्य मुद्दा बनाकर आपातकाल का प्लान तैयार कर लिया। रात्रि 11:45 को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से हस्ताक्षर करा कर इसकी घोषणा कर दी गई। प्रातः 6 बजे कैबिनेट की बैठक में सभी महत्वपूर्ण जानकारियां आदान-प्रदान होती रही। उस समय तक देश के लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा नेता और कार्यकर्ता जेल जा चुके थे। परिजनों को यातनाएं दी जा रही थी। जमानत के लिए अदालतों पर दबाव बनाया गया और स्वतंत्र प्रेस से ख़फ़ा श्रीमती गांधी ने सेंसरशिप लगाकर इसकी आजादी का भी गला घोंट दिया, हालांकि प्रेस क्लब दिल्ली से कुलदीप नैयर की अगुवाई में 100 से ज्यादा पत्रकारों ने इसका विरोध भी किया लेकिन श्रीमती गांधी के सत्ता के जुनून के सामने सब फीका पड़ गया।

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