तिरस्कार के लिए हर रोज नये प्रकरण निकालना ठीक नहीं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन जी भागवत ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही।
हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए।
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफन है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।
गर गलतियां बाबर की थीं,
जुम्मन का घर फिर क्यों जले?
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए।
हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां
मिट गए सब, कौम की औकात को मत छेड़िए।
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए।
अपने तीखे तेवर के लिए मशहूर जनकवि अदम गोंडवी की इस नज्म का उपयोग मैंने जून 2022 के पहले सप्ताह के इसी कॉलम में किया था क्योंकि उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन जी भागवत ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही थी कि ‘इतिहास वो है जिसे हम बदल नहीं सकते। इसे न आज के हिंदुओं ने बनाया है और न आज के मुसलमानों ने, अब हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?’ भागवत जी ने एक बार फिर ऐसी बात कही कि यह नज्म मेरे जेहन में उभर आई।
पुणे में भागवत जी ने कहा कि ‘राम मंदिर के साथ हिंदुओं की श्रद्धा है लेकिन राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वो नई जगहों पर इसी तरह के मुद्दों को उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं, ये स्वीकार्य नहीं है, तिरस्कार और शत्रुता के लिए हर रोज नये प्रकरण निकालना ठीक नहीं है और ऐसा नहीं चल सकता।’इस वक्त मैं विदेश प्रवास पर हूं और एक व्यक्ति ने सिंगापुर में मुझसे पूछ लिया कि भागवत जी के बयान पर आपकी क्या राय है? क्या उन्हें ऐसा बोलना चाहिए था? मैंने कहा कि कई सरसंघचालकों को करीब से जानने और बात करने का मुझे मौका मिला है। भागवत जी बिल्कुल अलग हैं, व्यापक व समावेशी विचारधारा के हैं, सरल और सहज हैं। इसीलिए इनकी सोच दूसरों की सोच से अलग है, ये विकास में विश्वास रखते हैं। सबका आदर करना जानते हैं, वे सभी धर्मगुरुओं से मिलते रहते हैं।
मैं संघ की मूल विचारधारा की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन वे इस बात को समझते हैं कि संघ की व्यावहारिक विचारधारा नहीं बदली तो हमारे विकास में रोड़ा बन सकती है। भारत को शिखर पर ले जाना है, उद्यमशील बनाना है, युवकों की आकांक्षाओं की पूर्ति करनी है। किसान, मजदूर की खुशहाली लानी है, इसलिए भागवत जी प्रैक्टिकल बातें कर रहे हैं। भागवत जी की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं। कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर इस तरह के विवादों को विराम देना ही होगा अन्यथा कलह बढ़ती जाएगी और यह किसी भी स्थिति में देशहित में नहीं होगा। जहां तक मैंने पढ़ा है, अभी देश में 10 धर्मस्थलों को लेकर 18 मुकदमे दायर हैं। इसी स्थिति से बचने के लिए देश ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 को स्वीकार किया था जिसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि 1947 में जिन धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी, उसे बनाए रखा जाना चाहिए।
अब हालत यह है कि इस अधिनियम को ही सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है और इस पर सुनवाई चल रही है, वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने देश भर के न्यायालयों को निर्देशित किया है कि जब तक इस अधिनियम पर सुनवाई पूरी नहीं हो जाती तब तक न्यायालय किसी भी मसले पर कोई आदेश और निर्देश जारी न करें। सच यही है कि हम समस्या खड़ी करना चाहेंगे तो सैकड़ों मसले निकल आएंगे, इतिहास की क्रूर घटनाएं यह अवसर भी उपलब्ध कराती हैं, न जाने कितने विदेशी आक्रांताओं ने भारत पर हमले किए और हमारे देश को लूटा-खसोटा। हमलावर हमेशा ही स्थानीय संस्कृति पर हमले करता है। संस्कृति के प्रतीकों को नष्ट करता है, भय का वातावरण पैदा करता है। भारत में भी यही हुआ लेकिन अब हम इतिहास में उलझे रहें या देश के विकास को लेकर नई इबारत लिखें? सुकून की बात यह है कि संघ प्रमुख के विचारों से विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने भी सहमति जताई है लेकिन चिंता यह है कि कई धर्माचार्य भागवत जी को ही सलाह देने लगे हैं कि उन्हें हिंदुओं के मामले में नहीं बोलना चाहिए। उम्मीद करें कि विरोध करने वाले धर्माचार्य भी वक्त की जरूरत को समझेंगे, मैं अभी इंडोनेशिया के बाली में था।
सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले इस देश में मुस्लिम और हिंदू बड़े प्रेम से रहते हैं और यहां के हिंदू गर्व से खुद को हिंदू कहते हैं, ऐसी सामाजिक समरसता ही किसी मुल्क को विकास के रास्ते पर ले जाती है। आप सभी पाठकों को नए साल की बधाई देते हुए मैं उम्मीद करता हूं कि इतिहास को खोदने के बजाय हम एक बेहतर कल की ओर बढ़ेंगे। इस समय हमारे सामने सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती संस्कार, संस्कृति और भाषा को लेकर है, सिंगापुर में उत्तर प्रदेश मूल के एक व्यक्ति से मैं मिला जो हिंदी नहीं जानता। गुजरात मूल के व्यक्ति से मिला जो गुजराती नहीं जानता, संस्कृति की तो बात छोड़ ही दीजिए। भारत में भी भाषा, संस्कार और संस्कृति पर गंभीर संकट है। भाषा में गिरावट मुझे व्यथित करती है, आधुनिक परिधान पहनने में हर्ज नहीं है लेकिन मन में भारतीयता होनी चाहिए। मैं अंग्रेजी की जीत से दुखी नहीं हूं मगर अपनी भाषा के सिकुड़ने का डर सता रहा है, मैं हाथ मिलाने का विरोधी नहीं हूं लेकिन मेरे नमस्ते और प्रणाम के गुम हो जाने का भय जरूर सता रहा है। मोहन जी भागवत के पास एक व्यापक संगठन है। उन्हें इस पर भी ध्यान देना चाहिए। उम्मीद करें, नया साल भाषा, संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का वर्ष हो, एक बार फिर से नये साल की आप सभी को बधाई, जय हिंद।