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It’s My Life (24)

13 अप्रैल, 1919 का दिन आ पहुंचा। अमृतसर में जलियांवाला कांड हो गया। सारा पंजाब प्रतिशोध की आग में जल उठा। जो जुल्म अंग्रेजों ने किया था, वह वर्णन से बाहर था।

04:39 AM Aug 07, 2019 IST | Ashwini Chopra

13 अप्रैल, 1919 का दिन आ पहुंचा। अमृतसर में जलियांवाला कांड हो गया। सारा पंजाब प्रतिशोध की आग में जल उठा। जो जुल्म अंग्रेजों ने किया था, वह वर्णन से बाहर था।

13 अप्रैल, 1919 का दिन आ पहुंचा। अमृतसर में जलियांवाला कांड हो गया। सारा पंजाब प्रतिशोध की आग में जल उठा। जो जुल्म अंग्रेजों ने किया था, वह वर्णन से बाहर था। लालाजी इस प्रकार अपना संस्मरण सुनाते थे- ‘‘मैं उस वक्त 21 वर्ष का छात्र था। उस घटना के बाद सारे पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। अंग्रेजों की भृकुटियां तनी हुई थीं। विद्यार्थियों पर भी उनकी पूरी नजर थी। मैं लाहौर में अपने कालेज के होस्टल से 5 मील की दूरी पर स्थित शाहदरा नामक स्थान पर एकांत अध्ययन करता था। एक दिन मैंने लाहौर किले के पास गोरों द्वारा एक छोटी सी आज्ञा न मानने के जुर्म में 14-15 वर्ष के लड़के को राइफल के कुंदों से पीटते हुए देखा। उसकी मृत्यु हो गई। मैं कई दिनों तक इस घटना से उबर न सका।’’
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लालाजी ने 1919 में डी.ए.वी. कालेज से बी.ए. की परीक्षा अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण की और 1920 में लॉ कालेज में दाखिला ले लिया। एक तरफ उनकी पढ़ाई थी, दूसरी तरफ भारत का स्वाधीनता संग्राम उन्हें अपनी ओर बुला रहा था। लाॅ कालेज में पढ़ाई के दौरान अक्सर उनके मस्तिष्क में कुछ चेहरे कौंधते रहते। एक चेहरा उन बोधराज वोहरा महाशय का था, जिन्हें कोर्ट में प्रैक्टिस करते देख उनके दिल में ये उमंग उठती थी, काश! मैं भी वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रैक्टिस में आ पाता। दूसरे चेहरे थे लाला लाजपत राय के, गांधी जी के, स्वतंत्रता सेनानियों के, जिनसेमिलने का मौका उन्हें लाहौर में मिला था। लालाजी ने वकालत ठुकरा दी। 
गांधीजी के बुलावे पर स्वाधीनता समर में कूद पड़े। सबब इस प्रकार बना। यह 1921 का वर्ष था। लॉ कालेज में कांग्रेसी नेता श्री मौली चन्द्र वर्मा आए थे। उन्होंने विद्यार्थियों को ललकार कर कहा कि शांतिपूर्ण ढंग से अंग्रेजों का प्रतिकार करना है, इसमें विद्यार्थियों ने सहयोग न किया तो हमारा और गांधीजी का उद्देश्य पूरा न होगा। गांधीजी के आह्वान पर जहां सारे भारत में स्वाधीनता के आंदोलन ने प्रखर रूप धारण किया, वहीं लालाजी भी इस आंदोेलन में कूद पड़े। उन्हें ढाई वर्षों की सजा हो गई। वकालत हार गई, राष्ट्रभक्ति जीत गई। जेल में प्रण लिया, ‘‘तन, मन और धन सब कुछ राष्ट्र को समर्पित करता हूं। 
जब तक भारत मां गुलामी की बेड़ियों से मुक्त न हो जाए, आत्मा की आवाज को मानते हुए हर प्रकार की कुर्बानी के लिए तैयार हूं।’’ 22 वर्ष की आयु के नौजवान लालाजी संकल्प के बड़े धनी निकले। जेल में उनकी मुलाकात लाला लाजपत राय, डा. सत्यपाल, बाबा खड़क सिंह, डा. गोपीचंद, डा. किचलू, मो. जफर अली खान, मौलवी सईद हबीब आदि से हुई। उनके सम्पर्क में सोना कुन्दन बनने की तैयारी में लग गया। उपरोक्त नेताओं से रोजा लालाजी का वार्तालाप होता। लालाजी इस काल की बहुत-सी घटनाओं को सुनाते थे और बहुत हंसते थे। कुछ घटनाएं आज भी याद हैं। 
उन्हीं के शब्दों में- ‘‘मेरे एक मामा जी थे। बड़े भले व्यक्ति थे। उनकी लाला लाजपत राय से बड़ी मित्रता थी। मेरी सजा के बारे में सुनकर बहुत विचलित हुए। वह लाहौर आ पहुंचे और लाला लाजपत राय से मिले। उन्होंने बार-बार उनसे एक ही बात कही, जगत नारायण मेरी बहन का अकेला लड़का है, इसे यह पहली सजा मिली है, इसका ध्यान रखना।’’ उन्होंने इस तरह ध्यान रखने की बात कही कि लाला लाजपत राय ने विनोदपूर्ण लहजे में कहा-‘‘आप एक काम करें, जाकर जेल के बाहर इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाएं, अंग्रेजो भारत हमें दो का नारा लगाएं, अंग्रेज तुम्हें पकड़ कर यहीं ले आएंगे, तुम अपने भांजे का ख्याल खुद रख लेना।’’
लालाजी ने यहां पर जो अनुभव प्राप्त किए उनमें से एक अनुभव यह भी था कि उन्हें वहां बहुत से सम्पादकों और पत्रकारों से भी ​मिलने का मौका मिला। उन्होंने उनसे यह जानने की चेष्टा की कि किस-किस जुर्म में वहां लाया गया है। वह यह जानकर हैरान हो गए कि सभी कोई न कोई सम्पादकीय लिखने के कारण आए थे। जिस सम्पादकीय से भी ऐसा प्रतीत होता था कि उसमें देशप्रेम की खुशबू है, उसके लेखक को अन्दर कर दिया गया। लालाजी ने उन्हें गुरुतुल्य मान उनसे प्रेरणा ली। लालाजी अपनी जेल यात्रा को बड़ी शिक्षाप्रद बताते थे। लालाजी 1924 में जेल से वापस आए। लोगों ने उन पर बहुत दबाव डाला कि वह फिर से कानून की पढ़ाई पूरी कर लें परन्तु लालाजी ने इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि मैंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया है और  अब कोई मुझे उससे विचलित नहीं कर सकता।
लालाजी की उम्र 25 वर्ष पूरी हो चुकी थी। पुराने समय में शादियां तो और कम उम्र में हो जाती थीं, अतः लालाजी पर भी दबाव पड़ा कि अगर उन्होंने आगे की पढ़ाई नहीं पूरी करनी है तो वह विवाह के बंधन में बंध जाएं। यह वह जमाना था, जब लोग स्वतंत्रता सेनानियों से भी घबराते थे। जो एक बार जेल हो आता, उससे लोग फासला बनाकर ही रखना चाहते थे। एक जज साहब ने अपनी माडर्न सुपुत्री की मंगनी लालाजी से कर ही दी थी परन्तु जब उन्होंने अपने होने वाले दामाद के अंग्रेजों के बारे में विचार सुने तो घबरा गए। उन्होंने अपनी लड़की का लालाजी से रिश्ता ही तोड़ दिया।
पति और पत्नी का चुनाव तो पूर्व निर्धारित है, इसे नियति ने निर्धारित कर रखा है, हम तो महज मांगलिक कार्यों द्वारा रस्म अदायगी ही करते हैं। लालाजी के लिए वधू के रूप में पूर्व ​निर्धारित थीं शांति देवी। वह होिशयारपुर के एक प्रतिष्ठित एडवोकेट की बेटी थीं, जिनका नाम था-लाला मुंशी राम। कुछ समय तक तो मुंशी राम जी दसूहा और मुकेरियां में ‘प्रैक्टिस’ करने के उपरांत लाहौर आकर रहने लगे थे।
यह बड़ा अनोखा मेल था। अनोखा इसलिए कि एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व के ​लिए जितने ऊंचे संस्कार और सुसंस्कृत महिला चाहिए थी, मेरी दादी में वह सारे गुण थे। पृष्ठभूमि आर्य समाज की थी। मेरे पितामह उस विवाह से बेहद संतुष्ट थे। मेरी दादी शादी के पूर्व से ही मेरे पितामह के विचारों की प्रशंसिका थीं। वह लालाजी की बड़ी कद्र करती थीं। लालाजी के व्यक्तित्व में तब तक आमूलचूल परिवर्तन हो चुका था। एक तरफ महात्मा गांधी के व्यक्तित्व का उन पर प्रभाव था  तो दूसरी ओर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव से वह लाहौर में मिले थे और उन सबके लिए लालाजी के हृदय में बड़ा उच्च स्थान था। लालाजी कुछ मामलों में बड़े हठी ही कहे जाएंगे। वह रस्मो-रिवाजों से ऊपर उठे व्यक्ति थे।
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