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संस्थानों की प्रतिष्ठा से न्याय

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08:14 AM Nov 21, 2018 IST | Desk Team

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क्या समां बन्ध रहा है पूरे मुल्क में कि हर शख्स एक-दूसरे से पूछ रहा है कि मियां मुर्गी सही-सलामत है? आज सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ हुआ वह इस बात का सबूत है कि आजाद हिन्दोस्तान में बड़ी मेहनत और मशक्कत से खड़े किये गये वे सभी संस्थान अपनी हिफाजत की फरियाद कर रहे हैं जिनकी बदौलत यह मुल्क सैकड़ों दुश्वारियों को पार करते हुए इस मुकाम तक पहुंचा है कि दुनिया के दूसरे मुल्क इसकी बुनावट की पढ़ाई पढ़ने अपने तेजदिमाग लोगों को यहां भेजने में फख्र महसूस करते हैं। सीबीआई के घर के झगड़े का जिस तरह बीच चौराहे पर फजीता किया जा रहा है उसने हिन्दोस्तान के पूरे निजाम की बुनियाद को ही अपने आगोश में इस तरह भरना शुरू कर दिया है जैसे ‘बरसों के बिछड़े मुश्किल से मिले हों।’

देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई जब यह कहते हैं कि सीबीआई मुकदमें में उस गोपनीयता का उल्लंघन हुआ है जिसकी हिदायत इस अदालत ने दी थी तो इसका मतलब यही निकलता है कि हमारी पूरी व्यवस्था में एेसे तत्व घुसपैठ कर चुके हैं जिनके लिए संस्थानों की पवित्रता और प्रतिष्ठा कोई मायने नहीं रखती। भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका एेसा संस्थान है जो किसी भी अन्य संवैधानिक व स्वतन्त्र संस्थान की पवित्रता और प्रतिष्ठा की गारंटी इस प्रकार देता है कि वह अपना कार्य बिना किसी राजनैतिक दल की सरकार के प्रभाव मंे आये केवल संविधान में दिये गये अधिकारों से लेकर बेखौफ होकर कर सके। इस कार्य मंे स्वतन्त्र प्रेस या मीडिया की भूमिका केवल इतनी है कि वह संस्थान की पवित्रता से समझौता किये बगैर सत्य को उजागर करे न कि किसी भी संस्थान के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करे।

किन्तु तब क्या किया जा सकता है जब स्वयं संस्थान ही इस मर्यादा को तोड़कर अपनी इकतरफा प्रशंसा का प्रबन्ध करने लगे। यह प्रश्न काफी दुरुह है और इसकी समीक्षा पूरी गंभीरता के साथ करने की आवश्यकता है। पिछली मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान जिस प्रकार लेखा महानियन्त्रक (सी एंड एजी) विनोद राय ने 2-जी स्पैक्ट्रम आवंटन से लेकर कोयला आवंटन मामले में अपनी अन्तिम रिपोर्ट के संसद में रखे जाने से पहले ही उसका खुलासा मीडिया में हो जाने दिया, उसने भारत की संसदीय प्रणाली को जो समेकित नुकसान पहुंचाया उसका लेखा-जोखा आसानी से नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसने संसद की सर्वोच्चता को ही चुनौती नहीं दी बल्कि लेखा महानियन्त्रक की किसी भी रिपोर्ट की समीक्षा के लिए गठित होने वाली लोक लेखा समिति को भी कई मायनों में असंगत बना दिया।

पाठकों को याद होगा कि लोक लेखा समिति एेसा मंच होता है जिसके पास किसी भी मन्त्री तक को जवाब तलब करने का अधिकार रहता है बल्कि 2-जी मामले में तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने 2010 में कांग्रेस अधिवेशन के मंच से ही यह घोषणा कर डाली थी कि वह इस समिति के सामने जाने तक के लिए तैयार हैं परन्तु स्वयं तत्कालीन लेखा महानियन्त्रक ने ही इस संस्थान को कोयला घोटाला मामले में भी असंगत बना डाला था। यह एक एेसा उदाहरण है जो हमें बताता है कि ‘पारदर्शिता’ और ‘पवित्रता’ के बीच कितनी महीन रेखा होती है परन्तु सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा की सरकार के विरुद्ध उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका के सम्बन्ध में जिस प्रकार केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त कार्यालय की भूमिका बीच में आयी है उससे कुछ महत्वपूर्ण कानूनी सवाल सामने आये हैं जिनका समाधान केवल भारत का सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है क्योंकि कोई भी कानून उन्हें उनका कार्यकाल पूरा हुए बिना ही पद मुक्त करने या निष्क्रिय करने का रास्ता नहीं बताता हालांकि सतर्कता आयुक्त कार्यालय को भ्रष्टाचार से सम्बन्धित मामलों में निगरानी करने का सीमित अधिकार है। अतः सतर्कता आयुक्त द्वारा श्री आलोक वर्मा के बारे में सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी गई रिपोर्ट की पवित्रता का ध्यान न्यायमूर्तियों ने इस प्रकार रखा कि श्री वर्मा को इसका जवाब देने के लिए यह रिपोर्ट एक सील बन्द लिफाफे में दी गई जिससे उसकी गोपनीयता बनी रहे और सीबीआई संस्थान की प्रतिष्ठा भी बची रहे।

बेशक न्यायालय पिछली सुनवाई के दौरान यह कह चुका था कि इस रिपोर्ट मंे कही गई कुछ बातें आगे जांच की दरकार करती हैं मगर इसके बावजूद न्यायमूर्तियों ने श्री वर्मा को अपना पक्ष रखने का अवसर इसीलिए दिया था जिससे वे किसी पक्के निष्कर्ष पर पहुंच सकें। एेसा उन्होंने न्याय की पुकार पर ही किया होगा, लेकिन इस बीच यदि किसी पत्र-पत्रिका या टीवी चैनल पर श्री वर्मा का जवाब कथित रूप से कहीं प्रकाशित हो जाता है तो निश्चित रूप से वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का उल्लंघन कहा जायेगा, हालांकि आज ही अदालत में बाद में श्री वर्मा के वकील न्यायविद् पाली एस. नारीमन ने स्पष्ट करने की कोशिश की कि श्री वर्मा के जवाब का जो अंश मीडिया के एक अंग में प्रकाशित हुआ है वह सतर्कता आयुक्त कार्यालय को दिया गया श्री वर्मा का जवाब है परन्तु यह उलझन भरा विषय है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने सतर्कता आयुक्त की रिपोर्ट ही सील बन्द लिफाफे मंे श्री वर्मा को सौंपी थी लेकिन न्यायमूर्ति श्री गोगोई ने सीबीआई के डीआईजी मनीष कुमार सिन्हा की उस याचिका के बारे में अखबारों में प्रकाशित खबरों पर भी नाराजगी प्रकट की जिसे उन्होंने कल ही दर्ज न करने का आदेश दिया था।

इसमें भारत के पूरे सत्ता संस्थान पर ही भ्रष्टाचार व भेदभाव करने के आरोप लगे हैं, यह अत्यन्त गंभीर मामला है। अतः न्यायमूर्ति गोगोई की नाराजगी संस्थानों की पवित्रता को बरकरार रखने को लेकर इसलिए है क्योंकि अन्ततः एेसे सभी मामलों का अन्तिम निपटारा सर्वोच्च न्यायालय को ही करना पड़ सकता है जिसमें केवल तथ्यों और सबूतों के आधार पर फैसला होगा। इसी वजह से उन्होंने कहा कि यह संवैधानिक अधिकारों का निपटारा करने वाला स्थान है। जाहिर है कि इंसाफ का तराजू किसी का पक्ष नहीं लेता और वही करता है जो संविधान कहता है अतः हम सभी को सब्र से काम लेना चाहिए और मुल्क के हर संस्थान की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए काम करना चाहिए।

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