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35 वर्ष बाद मिला इंसाफ

राजस्थान में भरतपुर के राजा मान​ सिंह की हत्या के मामले में मथुरा की अदालत ने अंततः 35 वर्ष बाद फैसला सुना ही दिया। इतने वर्ष बाद यही साबित हुआ कि राजा मान सिंह की हत्या प्रायोजित घटना थी

12:07 AM Jul 24, 2020 IST | Aditya Chopra

राजस्थान में भरतपुर के राजा मान​ सिंह की हत्या के मामले में मथुरा की अदालत ने अंततः 35 वर्ष बाद फैसला सुना ही दिया। इतने वर्ष बाद यही साबित हुआ कि राजा मान सिंह की हत्या प्रायोजित घटना थी

35 वर्ष बाद मिला इंसाफ
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राजस्थान में भरतपुर के राजा मान​ सिंह की हत्या के मामले में मथुरा की अदालत ने अंततः 35 वर्ष बाद फैसला सुना ही दिया। इतने वर्ष बाद यही साबित हुआ कि राजा मान सिंह की हत्या प्रायोजित घटना थी, जिसे पुलिस ने मुठभेड़ का नाम दिया था। इस मामले में 18 पुलिसकर्मी आरोपी बनाए गए थे और इनमें से कुछ की मौत हो चुकी है। अब 11 पुलिसकर्मियों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई है। इतने विलम्ब से मिला न्याय भी अन्याय के समान है। जटिल कानूनी प्रक्रिया, अदालतों में जजों की कमी और लम्बी गवाहियों के चलते कई बार न्याय अन्याय में बदल जाता है। इस लम्बी अवधि में 1700 से अधिक सुनवाई की तारीखें पड़ीं और कोई एक हजार दस्तावेज भी अदालत की नजरों में आए। इस दौरान 26 जज बदल गए जबकि 27वें जज ने फैसला सुनाया। दोषी करार दिए गए सभी अभियुक्त 60 वर्ष से ऊपर के हैं और तत्कालीन डीएसपी कान सिंह भाटी की उम्र 80 वर्ष से ऊपर है। जिन्हें चलने के लिए सहारा लेना पड़ता है। यह फैसला ऐसे समय में आया जब उत्तर प्रदेश के विकास दुबे एन्काउंटर पर सुप्रीम काेर्ट कई तीखे सवाल दाग चुका है। देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी सिटिंग एमएलए का दिनदहाड़े एन्काउंटर किया गया था। राजा मान सिंह की मौत के बाद भरतपुर जल उठा था, इसकी तपिश मथुरा, आगरा और पूरे राजस्थान में महसूस की गई थी। राजा मान सिंह को खुद्दारी पसंद थी। आजादी से पहले ब्रिटेन से इंजीनियरिंग की डिग्री  लेकर वह सेना में सैकिंड लेफ्टिनेंट हो गए थे लेकिन अंग्रेजों से जम नहीं पाई और सेना की नौकरी छोड़ दी। 1952 से लेकर 1984 तक वह सात बार निर्दलीय विधायक चुने गए। उन दिनों जमाना कांग्रेस का था लेकिन राजा मान सिंह को किसी भी दल में शामिल होना मंजूर नहीं था। 1977 की जनता लहर और 1980 की इंदिरा गांधी लहर में भी वह अपनी डीग सीट बचाने में कामयाब रहे। कुछ लोगों को यह बात खटकती रही। भरतपुर रियासत के लोग गाड़ियों और महल में दो झंडे लगाते थे, एक देश का आैर दूसरा रियासत का। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सहानुभूति की लहर चल रही थी।
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बताया जाता है कि तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर ने डीग सीट को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था। कांग्रेस ने डीग सीट से रिटायर्ड आईएएस बिजेन्द्र सिंह को कांग्रेस प्रत्याशी बनाया था। तब कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने डीग पहुंच कर राजा मान सिंह के पोस्टर, बैनर और रियासत के झंडे फाड़ दिए थे। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने डीग में लक्खा तोप के पास रियासत का झंडा उखाड़ अपना झंडा लगा दिया था। राजा मान सिंह और उनके समर्थकों को यह गवारा नहीं लगा। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा। उन्होंने  इसे अपने झंडे की तौहीन माना। आक्रोश में उन्होंने तय ​किया कि वह शिवचरण माथुर की सभा नहीं होने देंगे। उन्होंने 20 फरवरी, 1985 को जीप पर सवार होकर माथुर की जनसभा का मंच तोड़ दिया। फिर उनके हैलीकाप्टर को भी जीप मार कर तोड़ डाला। इससे अगले ही दिन 21 फरवरी, 1985 को डीग की अनाज मंडी में जीप पर सवार होकर जाते समय मान सिंह पर पुलिस ने फायरिंग की और उन्हें तथा उनके दो साथियों को मार डाला। मान सिंह के पास कोई हथियार नहीं था लेकिन पुलिस ने इसे मुठभेड़ का नाम दे डाला। इसके बाद भरतपुर में तनाव फैल गया था, लोग सड़कों पर उतर कर ​हिंसा करने लगे। भरतपुर में 7 दिन कर्फ्यू लगा रहा। मान सिंह की शव यात्रा के दौरान हुजूम उमड़ पड़ा और फिर पुलिस से भीड़ की भिड़ंत हो गई जिसमें तीन लोग मारे गए। हालात ऐसे हो गए कि काबू में नहीं आ रहे थे।
हालात बिगड़ते देख तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ​मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर को त्यागपत्र देने को कहा। यह केस  सीबीआई के हवाले कर दिया गया। राजनीति में घात और प्रतिघात के अवसरों का फायदा उठाने के लिए जो चालें चली जाती हैं, मान सिंह की मौत उन्हीं चालों का परिणाम रही। सत्ता और ​सियासत के चक्रव्यूह में वर्चस्व और हैसियत की लड़ाई थी, जिसमें पुलिस को औजार बनाया गया। पुलिसकर्मियों को भी उस समय कुछ याद नहीं रहा कि वह सत्ता के हथियार बन गए हैं। जब मुकदमा कानून के कठघरे में चला तो उन्होंने बहुत हाथ-पांव मारे। सच सबके सामने आया तो फिर न्याय तो होना ही था। अब सवाल यह है कि एक प्रतिष्ठित परिवार को न्याय मिलने में तीन दशक से ज्यादा का समय लग गया तो फिर आम आदमी या आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है। अब समय आ गया है कि न्याय को गति दी जाए और मुकदमों की सुनवाई के ​लिए समय सीमा तय की जाए। प्रभावशाली लोग तो वकीलों के माध्यम से मुकदमों को कानूनी जटिलताओं में फंसाने में सफल हो जाते हैं लेकिन एक आम इंसान पर क्या गुजरती होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सबको सस्ता और त्वरित न्याय मिले इसलिए न्यायिक सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। यह मुकदमा इसी जरूरत की ओर रेखांकित करता है।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
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Adityachopra@punjabkesari.com
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