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कर्नाटक और संवैधानिक नैतिकता

कर्नाटक के 17 ‘अयोग्य’ विधायकों को पुनः चुनाव लड़ने के ‘योग्य’ ठहरा कर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि विधानसभा के भीतर इसके अध्यक्ष के अधिकार ‘न्याय’ की तार्किक परि​िध से बाहर नहीं हैं।

05:52 AM Nov 14, 2019 IST | Ashwini Chopra

कर्नाटक के 17 ‘अयोग्य’ विधायकों को पुनः चुनाव लड़ने के ‘योग्य’ ठहरा कर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि विधानसभा के भीतर इसके अध्यक्ष के अधिकार ‘न्याय’ की तार्किक परि​िध से बाहर नहीं हैं।

कर्नाटक और संवैधानिक नैतिकता
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कर्नाटक के 17 ‘अयोग्य’ विधायकों को पुनः चुनाव लड़ने के ‘योग्य’ ठहरा कर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि विधानसभा के भीतर इसके अध्यक्ष के अधिकार ‘न्याय’ की तार्किक परिधि  से बाहर नहीं हैं। संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली के भीतर इसके चुने हुए अध्यक्ष के अधिकार इस व्यवस्था की संवैधानिक ‘नैतिकता’ के दायरे में इस प्रकार तय किये गये हैं जिससे सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच चलने वाली ‘लाग-डांट’ का निपटारा पूरी तरह न्यायपूर्ण ढंग से हो सके। बेशक अध्यक्ष सदन में बहुमत में चुने हुए पक्ष का ही चुना जाता है परन्तु इस पद पर विराजमान होते ही उसकी भूमिका ‘निष्पक्ष’ हो जाती है।
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सदन की नियमावली का पालन और संवैधानिक दायित्व का अनुपालन उसका दायित्व और धर्म दोनों ही हो जाते हैं। इस अधिकार क्षेत्र में उसकी राजनैतिक निष्ठा का वाष्पीकरण (भाप बनकर उड़ जाना) निहित रहता है। सर्वोच्च न्यायालय ने आज अपने फैसले में  इस पक्ष पर भी बराबर का जोर देते हुए कहा है कि अध्यक्ष अपने संवैधानिक नैतिकता के दायित्व को निभाने के फर्ज से बन्धा होता है। इसे पूरा करने में कोताहियां बढ़ रही हैं। अतः इसमें सख्ती बरतने के लिए आवश्यक संशोधन किये जाने की जरूरत है परन्तु लोकतन्त्र में किसी लालच या अन्य लाभ की गरज से विधायकों का पाला बदलना राजनैतिक अस्थिरता को जन्म देता है और विधायकों का इस्तीफा देना भी ऐसा  एक जरिया बनता नजर आ रहा है।
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इस्तीफा देने वाले विधायकों को हालांकि सदन की बैठक में आने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है मगर इससे उनकी अयोग्यता बहाल नहीं हो जाती है। इसके साथ ही अध्यक्ष द्वारा उन्हें विधानसभा की शेष अवधि तक के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा देना उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर आता है।  विगत वर्ष जुलाई महीने में  जब राज्य की कांग्रेस-जनता दल (सैकुलर) की सांझा कुमारस्वामी सरकार अल्पमत में आने से गिरी थी तो उसकी असली वजह 14 कांग्रेस के व तीन जनता दल (सै.) के विधायकों द्वारा सदन की सदस्यता से इस्तीफा देना था। उस समय सदन के अध्यक्ष के.आर. रमेश कुमार ने इन विधायकों के इस्तीफे को निजी स्वार्थ अथवा अन्य किसी दबाव के तहत लेते हुए उन्हें स्वीकार करने में लम्बा समय लिया था और तत्कालीन मुख्यमन्त्री कुमारस्वामी द्वारा अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए बुलाये गये सदन के सत्र में भाग लेने के लिए उल्टे परोक्ष रूप से दबाव बना दिया था। के.आर. रमेश कुमार ने इन इस्तीफा देने वाले विधायकों को अपने कार्यालय तलब कर उनकी मंशा की पुष्टि तक की थी।
इन विधायकों के  सदन में उपस्थित होने को लेकर सत्तापक्ष और तत्कालीन विपक्षी पार्टी भाजपा के बीच भारी तकरार छिड़ गई थी और ये विधायक तब मुम्बई के होटल में शरण लेकर अपने इस्तीफों पर डट गये थे। परिणाम स्वरूप तब कुमारस्वामी सरकार के दिन पूरे हो गये थे। इस पृष्ठभूमि में अध्यक्ष के.आर. रमेश कुमार ने अपना फैसला दिया था और इन विधायकों को अयोग्य करार देते हुए सदन की शेष अवधि के समय तक इनके पुनः चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी। अध्यक्ष के इसी फैसले के खिलाफ इन विधायकों ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी जिस पर उसका फैसला आया है। जाहिर है कि अध्यक्ष विधायकों को अयोग्य ठहरा सकते थे परन्तु उनके पुनः चुनाव लड़ने की अवधि तब तक तय नहीं कर सकते थे जब तक कि उनका मामला ‘दल-बदल’ कानून के तहत तय न होता।
इस कानून के तहत ये विधायक तभी आते जब वे सदन के भीतर हुए कुमारस्वामी सरकार के शक्ति परीक्षण के दौरान अपनी-अपनी पार्टी के निर्देशों के खिलाफ वोट डालते मगर विधायक सदन की कार्यवाही में भाग लेने आये ही नहीं और इसी तथ्य पर डटे रहे कि उन्होंने सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। इससे वे दलबदल कानून के दायरे में नहीं आ पाये जिसमें पाला बदलने वाले विधायक को अयोग्य करार दे दिया जाता है और वह छह साल आगे तक पुनः चुनाव नहीं लड़ सकता। अध्यक्ष के.आर. रमेश कुमार ने यहीं ‘संवैधानिक नैतिकता’ का उल्लंघन करते हुए अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा को लांघते हुए इन विधायकों के पुनः चुनाव लड़ने की अवधि का निर्धारण तक कर डाला जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने आज निरस्त कर दिया।
अध्यक्ष के फैसले की निरर्थकता का हमें तब भी पता चला था जब विगत माह हुए दो राज्यों महाराष्ट्र व हरियाणा का चुनाव कार्यक्रम घोषित करते हुए चुनाव आयोग ने कर्नाटक में भी इन विधायकों द्वारा खाली किये गये स्थानों पर उप-चुनाव कराने का ऐलान किया था परन्तु बाद में कानूनी पेंचों के चलते इन्हें रद्द कर दिया गया। अब खाली पड़े स्थानों पर आगामी 5 दिसम्बर को मतदान होगा और इनके जो भी​  परिणाम आयेंगे उनका सीधा असर वर्तमान की भाजपा की येदियुरप्पा सरकार पर पड़े बिना नहीं रहेगा। विगत वर्ष जुलाई में कुमारस्वामी के सत्ता से उतर जाने के बाद येदियुरप्पा इस वजह से मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठने में सफल रहे थे क्योंकि 224 सदस्यीय सदन की शक्ति घटने से भाजपा अपने 105 विधायकों व एक निर्दलीय सदस्य के समर्थन से बहुमत में  आ गई थी।
अब 5 दिसम्बर को कुल 15 स्थानों पर मतदान होगा। (दो स्थान नियमित हैं)।  224 में एक स्थान नामांकित सदस्य का खाली पड़ा हुआ है। अतः येदियुरप्पा सरकार को पूर्ण बहुमत के लिए कुल 112 सदस्यों का समर्थन चाहिए। चूंकि सभी 15 स्थान वे हैं जो पहले कांग्रेस व जनता दल (सै.) के कब्जे में थे अतः इस्तीफा देने वाले विधायकों को यदि भाजपा अपने टिकट पर खड़ा करती है तो उनका जीतना बहुत कठिन होगा। अतः उपचुनावों के लिए नामांकन दाखिल करने की निर्धारित तिथि 18 नवम्बर तक यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि भाजपा  किन  प्रत्याशियों का चयन करती है और कांग्रेस व जनता दल (सै.) के बीच के चुनावी समीकरण कैसे रहते हैं। अतः 5 दिसम्बर के बाद कर्नाटक में पुनः राजनीतिक ‘नाटक’ की नई ‘झांकी’ के खुलने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है।
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Ashwini Chopra

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