अलीगढ़ के कश्मीरी छात्र
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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कश्मीर के छात्रों को लेकर जो विवाद पैदा किया जा रहा है वह इसलिए अनुचित और निर्रथक कहा जाएगा कि इससे कश्मीरी लोगों की भारतीयता से कोई लेना-देना नहीं है और कुछ गिनती के छात्रों की उत्तेजक कार्यवाही के लिए समूचे कश्मीरी छात्र समुदाय को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता है। विश्वविद्यालय परिसरों में वातावरण को नियंत्रित वैचारिक सीमाओं को सीमित करके नहीं रखा जा सकता है। कश्मीर घाटी में हिज्बुल मुजािहद्दीन के आतंकवादी मन्नान वानी को सुरक्षा बलों द्वारा मुठभेड़ में मार गिराए जाने के बाद यदि उसकी मैय्यत में हजारों कश्मीरी नागरिक भाग लेते हैं तो हमें इसकी असली वजह ढूंढनी होगी मगर इस हकीकत को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत की सरकार और सेना जिस व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करती हैं उसके लिए विश्वविद्यालय परिसर के भीतर ही कुछ छात्र नमाजे जनाजा पेश करके अपनी हमदर्दी पेश करने की हिमाकत करें। मजहबी रवायतें देश की प्रतिष्ठा और सम्मान से ऊपर किसी भी तौर पर नहीं हो सकतीं।
बेशक मन्नानी अलीगढ़ विश्वविद्यालय का ही छात्र रह चुका था परन्तु उसने आतंकवादी संगठन का सदस्य बनकर अपनी हैसियत को मुल्क के दुश्मनों में तब्दील कर दिया था। जाहिर है इसकी सजा उन छात्रों को किसी भी तौर पर नहीं दी जा सकती जो कश्मीर से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में तालीम हासिल करने आए हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन ने जिन दो छात्रों को निलम्बित किया है और जिन सात के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करने के आदेश दिए हैं उनकी भी पुनरीक्षा किए जाने की जरूरत है क्योंिक भावुकता में भटकने की सजा किसी भी तौर पर पूरा विद्यार्थी जीवन बर्बाद करना नहीं हो सकती। इसके साथ ही यह भी देखने की जरूरत है कि कश्मीरी छात्र या नागरिक स्वयं को भारत के किसी भी प्रदेश में पूरी तरह स्वतन्त्र भारतीय नागरिक की तरह समझें और उनके साथ इस राज्य की समस्या को लेकर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। यह समस्या इस राज्य की युवा पीढ़ी को विरासत में मिली है। इसमें उसका कोई योगदान नहीं है। अपनी राजनीतिक असफलताओं को हम नई पीढ़ी के सिर पर इस प्रकार नहीं लाद सकते हैं कि उनका भविष्य भी इसकी गर्त में समाता चला जाए बल्कि प्रयास यह होना चाहिए कि नई पीढ़ी को हालात बदलने के लिए तैयार किया जाए और इसके लिए उसके मन में बन्धी गांठों को खोला जाए।
निश्चित रूप से यह कार्य ‘गोली’ से नहीं किया जा सकता बल्कि ‘बोली’ अर्थात बातचीत से ही संभव बनाया जा सकता है। अतः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कश्मीरी छात्रों के साथ बातचीत का वह दरवाजा विश्वविद्यालय प्रशासन खोले जिससे वे अपने मन की बात खुलकर कह सकें और विश्वविद्यालय भी उन्हें वे सलीके सिखा सके जो किसी भी देश के राष्ट्रभक्त नागरिक के लिए वैचारिक भिन्नता के बावजूद जरूरी होते हैं लेकिन इस विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लगभग 1200 छात्रों ने जिस प्रकार सर सैयद अहमद खां के जन्म दिवस 17 अक्तूबर को अपनी डिग्रियां वापस करके घाटी लौटने की घोषणा की है उससे यही सन्देश जा रहा है कि कश्मीरी छात्रों को अपने साथ न्याय होने की उम्मीद नहीं है। यह फैसला अन्ततः विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को ही नुकसान पहुंचाने वाला होगा क्योंिक यह शिक्षा संस्थान भारत की आजादी के दीवानों से लेकर नागरिक अधिकारों के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वालों का गढ़ रहा है और एक से बढ़कर एक महाविद्वानों और समाज सुधारकों के नाम इससे जुड़े रहे हैं। इनमें राजा महेन्द्र प्रताप का नाम भी शामिल है जिन्होंने 1915 के आसपास काबुल में भारत की पहली आरजी (निर्वासित) सरकार गठित की थी। राजा साहेब ने विश्वविद्यालय को जमीन भेंट में दी थी।
इसके साथ इस विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खां ने इसकी स्थापना ही मुसलमानों में शिक्षा की रोशनी फैलाने की गरज से की थी जिससे विज्ञान व आधुनिक विषयों की जानकारी अंग्रेजी भाषा में लेकर बदलते समय के अनुरूप वे स्वयं को मजहबी शिकंजों से बाहर निकाल सकें। इसलिए बहुत जरूरी है कि जिन गिनती भर छात्रों ने आतंकी मन्नान वानी को नमाजे जनाजा पेश करने की गलती मजहबी भावुकता में आकर कर डाली थी उन्हें अपनी गलती का अहसास होने का अवसर प्रदान किया जाए और शेष छात्रों को सामान्य छात्रों की तरह से देखा जाए। क्योंकि अतिवादी विचारों के लोग कहीं भी और किसी भी शिक्षा संस्थान में हो सकते हैं। इसके साथ ही धार्मिक कट्टरता हम किसी भी समुदाय में देख सकते हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण होता है कि किसी भी धर्म की कट्टरता भारत की एकता व अखंडता को छिन्न-भिन्न करने का जरिया न बने। जरूरी है कि हम इतिहास से कुछ सीखें और उसमें दबी कब्रों को उखाड़ कर राजनीति करने से बचें। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि पाकिस्तान निर्माण का विरोध इसी विश्वविद्यालय के ‘तालिबे इल्म’ कहे जाने वाले लोगों ने पुरजोर तरीके से किया था।