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लाहौर : बुलाकी शाह की हवेली, अमृता का घर

लाहौर के गुमटी बाजार की हवेली-बुलाकी शाह एक बार फिर चर्चा में है। इसके मुख्य द्वार के ऊपरी भाग में दर्ज इबारत के अनुसार इसका निर्माण 17 अप्रैल, 1929 को हुआ था।

10:30 AM Nov 24, 2024 IST | Dr. Chander Trikha

लाहौर के गुमटी बाजार की हवेली-बुलाकी शाह एक बार फिर चर्चा में है। इसके मुख्य द्वार के ऊपरी भाग में दर्ज इबारत के अनुसार इसका निर्माण 17 अप्रैल, 1929 को हुआ था।

लाहौर के गुमटी बाजार की हवेली-बुलाकी शाह एक बार फिर चर्चा में है। इसके मुख्य द्वार के ऊपरी भाग में दर्ज इबारत के अनुसार इसका निर्माण 17 अप्रैल, 1929 को हुआ था। इस तीन मंजि़ला हवेली के भीतरी भाग में कश्मीरी लकड़ी के नक्काशद्वार दरवाजे इसकी कलात्मकता की गवाही देते हैं। विभाजन से पूर्व यही कहा जाता था कि लाहौर के दो संपन्न मुस्लिमों मियां इिफ्तखारद्दीन और मियां मीरुद्दीन और अमृता प्रीतम, फैज के अलावा लाहौर का हर बाशिंदा लाला बुलाकी शाह का कर्जदार था। यह वह समय था जब लाहौर में एक कहावत आम आदमी की ज़ुबान पर बनी रहती थी- ‘तू बड़ा बुलाकी शाह बना िफरता है’। यह भी कहा जाता था कि आधा अविभाजित भी पंजाब बुलाकी शाह का कर्जदार था।

मगर भारत-पाक विभाजन के साथ सर्वाधिक खून-खराबा व दंगों का गवाह सेठ बुलाकी शाह ही रहा। दंगाइयों ने उस क्षेत्र के मंदिरों व हिन्दू परिवारों पर हल्ला बोलने के साथ ही बुलाकी शाह की हवेली पर धावा बोला था। चलिए उसकी चर्चित हवेली चलें और उसकी बहुचर्चित एवं लापता बहियों के रक्त सने पृष्ठों की बात करें। लाहौर के गुमटी बाज़ार में अक्सर शादी-ब्याह के अवसर पर की जाने वाली खरीदारी की रौनक रहती है, हालांकि इस बाजार में प्राय: ट्रैफिक-जाम की समस्या भी रहती है, मगर महिलाओं के लिए यह अब भी सबसे ज्यादा पसंदीदा बाजार है। इसी में एक बार चक्कर काटने से उन्हें सुकून व खुलेपन का अहसास मिल जाता है।

इस बाजार में पहुंचने के लिए एक रास्ता दिल्ली गेट से रंगमहल की ओर खुलता है और दूसरा रास्ता लहंगा मंडी से टक्साली-गेट वाला है। हर शाम यह बाजार तरह-तरह की रंग-बिरंगी रोशनियों से नहाता है और लजीज खाने-पीने की दुकानें भी दोपहर के बाद सजने लगती हैं।

बीच-बाजार में एक विशाल हवेली है जो हवेली-बुलाकी शाह के नाम से प्रसिद्ध है। इसका एक नाम कैमला-बिल्डिंग भी था। प्राप्त साक्ष्यों व दीवारों पर दर्ज तारीखों के अनुसार यह हवेली 17 अप्रैल, 1929 में बनी थी। इसके सामने ही लाहौर का प्रसिद्ध ‘पानी वाला तालाब’ था जो वर्ष 1883 में बना था।

मैं जब वर्ष 1988 में एक बार इसी हवेली की तरफ गया तो वहां पर एक डॉक्टर अपना क्लीनिक चलाता था और वहीं उसका आवास भी था। डॉक्टर ने बताया था कि इस गुमटी-बाजार की पुराने वक्तों में ‘गली काली माता’ भी कहा जाता था।

उसी हवेली में एक समय हिन्दी व्यापारी बुलाकी शाह रहता था और उसी ने अपनी अकूत दौलत से एक हवेली को सजाया-संवारा था। इसी के साथ सटा क्षेत्र कूचा-हनुमान भी कहलाता था। यहीं पर स्थित था काली माता का प्रसिद्ध मंदिर और ‘शिवाला पंडित राधा कृष्ण’। मूल रूप में यह सारा क्षेत्र हिन्दू-बहुल था और छोटे-छोटे मंदिरों की इस क्षेत्र में भरमार थी। हर दुकानदार सुबह कारोबार आरंभ करने से पहले यहीं पंडित जी से तिलक कराने व मूर्तियों के समक्ष शीश नवाने आता था।

इसी क्षेत्र में बुलाकी शाह का आर्थिक-साम्राज्य फैला हुआ था। उसकी हवेली में अक्सर पाक-पंजाब व सिंध क्षेत्र से आए किसानों व मध्यम दर्जे के जमीदारों की भीड़ लगी रही थी।

कहा जाता था कि आधे से ज्यादा पंजाब बुलाकी शाह का कर्जदार था। उसकी बहियों में कुछ बड़े-बड़े ज़मीदारों के भी ‘राज’ दर्ज थे। अक्सर बड़े-बड़े जमीदार, चांदी की काठी सजे घोड़ों पर सवार होकर आते। वहां उतरते और उनके कारिंदे वहां से घोड़ों को तालाब की ओर ले जाते। बाद में वे सेठ बुलाकी शाह के कक्ष की ओर बढ़ जाते। बुलाकी सेठ मौसम के अनुसार उन्हें पहले ठंडा-गर्म पिलाता और फिर उनसे लेन-देन की बात शुरू करता और उसके बाद कुछ स्टाम्प-पेपरों पर उन बड़े लोगों के दस्तखत दर्ज होते या कुछ मामलों में अंगूठे भी लगते। कुछ पुराने लोगों ने बताया था कि सेठ बुलाकी शाह की ब्याज-दर 1.8 प्रतिशत होती थी। उसकी एक विशेषता यह भी थी कि बड़े घरों की भीतरी आर्थिकता का जि़क्र तक किसी से नहीं करता था। एक दिलचस्प बात यह भी थी कि कर्ज के लिए आने वालों में कुछ बुर्कापोश सम्भ्रांत औरतें भी होती थीं। लाला के कमरे में प्रवेश से पहले ही वे बुर्का उतारतीं और फिर लेन-देन की बात चलती।

कहा यही जाता है कि उस क्षेत्र में सर्वाधिक रक्तपात का एक उद्देश्य उन बहियों को नष्ट करना भी था, जिनमें बड़े-बड़े लोगों के लेन-देन के राज दफन थे। उन दिनों सर्वाधिक रक्तपात इसी क्षेत्र में हुआ था। एक कारण था हिन्दू-बहुल क्षेत्र होना तो दूसरा यह भी था कि बुलाकी शाह की बहियों को नष्ट किया जाए। कर्जदारों में यही चर्चा थी कि अगर बहियां बच गई तो बुलाकी शाह की औलादें उन्हीं बहियों के आधार पर अपने दबंगों के माध्यम से वसूलियां शुरू कर देंगी। दूसरा कारण यह भी था कि बहियों में बड़े-बड़े ऐसे राजनीतिज्ञों के भी अंगूठों के निशान या हस्ताक्षर मौजूद थे जो मुस्लिम लीग के बड़े पदाधिकारी बन गए थे या मुहम्मद अली जिन्नाह के करीबी थे।

एक दिलचस्प व दु:खद पहलू अदब के क्षेत्र से भी जुड़ गया था। इसी गुमटी बाज़ार में अमृता प्रीतम का आवास भी था। अमृता किसी भी सूरत में लाहौर नहीं छोड़ना चाहती थी। मगर उसने एक बार अपने आवास की पहली मं​िजल से एक दहशतजदा औरत पर वहशियाना हमले का एक भयावह मंजर देख लिया था। उसने उसी पल फैसला ले लिया था कि वह ऐसे हैवानी माहौल में किसी भी सूरत में रह नहीं पाएगी। उसने अपने एक संबंधी की मदद से दिल्ली जाने वाली भीड़भरी रेल पकड़ ली थी और उसी रेल में उसने एक फटे-पुराने कागज पर अपनी सर्वाधिक चर्चित नज्म लिखी थी, ‘अज आखां वारिस शाह नूं/कितों कब्रां विचो बोल…’।

बुलाकी शाह व उसकी संतानों का सही-सही पता ठिकाना मालूम नहीं हो पाया। चर्चा यह भी थी कि वह पागल सा हो गया था। उसके एक बेटे की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी। बहियों के अनेक रक्त सने पृष्ठ इसी गुमटी बाज़ार की नालियोंं में बहते देखे गए थे।

इस हवेली के बारे में एक नया तथ्य अब उछाला जा रहा है। इसके अनुसार वहां के एक चर्चित कलाकार खलीफा इमामुद्दीन का भी इस हवेली से संबंध रहा था। एक वक्त ऐसा भी आया जब खलीफा व उसके संरक्षकों के दखल से यह हवेली बुलाकी शाह को बेच दी गई थी। तब पूरी हवेली 150 रुपए में ही बिकी थी। मगर यह तथ्य भी नकारा नहीं जा सकता कि हवेली के भीतरी व बाहरी दीवारों पर सेठ बुलाकी शाह का नाम ही दर्ज था।

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