राजनीतिक कटाक्ष की लक्ष्मण रेखा
क्या भारत में हंसी-ठिठोली के ठिकाने खत्म हो रहे हैं। क्या राजनीतिक दल, नेता और समाज
क्या भारत में हंसी-ठिठोली के ठिकाने खत्म हो रहे हैं। क्या राजनीतिक दल, नेता और समाज असहिष्णु होता जा रहा है। क्या राजनीतिक व्यंग कसना आज के दौर में अपराध है। कभी किसी कार्टुनिस्ट की गिरफ्तारी हो जाती है, कभी किसी कवि की कविता को लेकर उस पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जाता है। अब स्टेंडप कामेडियन कुणाल कामरा की महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर की गई टिप्पणी को लेकर बवाल मचाया जा रहा है। इसको प्रतिशोध कहें या कुछ और, बंबई नगर नगम ने उसके स्टूडियो को यह कहकर ध्वस्त कर दिया कि यह अवैध निर्माण है। हैबिटैट सेंटर का स्टूडियो केवल कुणाल कामरा का एक मंच था। स्टूडियो में तोड़फोड़ करने की टाइमिंग को लेकर सवाल उठ खड़े हुए। बात यहां तक पहुंच गई है कि कुणाल कामरा के बैंक खाते भी खंगाले जाएंगे। आरोप है कि कामेडियन दूसरे राजनीतिक दलों से धन लेकर एकनाथ शिंदे को निशाना बना रहे हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब कुछ भी बोलने की आजादी नहीं होता, अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है ऐसी कोई बात, ऐसा कोई भाव-विचार जो सही है उसे व्यक्त करने से सिर्फ इसलिए किसी को नहीं रोका जा सकता कि वो किसी के खिलाफ है। कोई भी बात भाव या विचार किसी न किसी के खिलाफ तो होगा ही। अच्छा है तो बुरे को बुरा लगेगा और बुरा है तो अच्छे लोग बुरा मानेंगे। इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी का पैमाना है सही एवं सत्य भाव-विचारों की अभिव्यक्ति है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार बनाया गया किन्तु 19(2) में इसे सीमित करने के आधार भी बताए गए। यानी यह बताया गया कि किन आधारों पर इस अधिकार में कटौती की जा सकती है। ये आधार थे झूठी निन्दा, मानहानि, अदालत की अवमानना या वैसी कोई बात जिससे शालीनता या नैतिकता को ठेस लगती है या जिससे राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ती है या जो देश को तोड़ती है। संविधान लागू होने के तुरंत बाद 1951 में ही प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा इसमें नए आधार जोड़े गए और फिर 1963 में 16वें संशोधन के जरिए उसे विस्तारित किया गया। इस तरह भारत की संप्रभुता एवं एकता, दूसरे देशों से दोस्ताना सम्बंध तथा हिंसा भड़काने के आधार पर भी अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित किया जा सकता है। यह थोड़ा हैरतअंगेज है कि जिस संविधान सभा ने यह अधिकार दिया उसी ने उसमें कटौती करने के आधार को बढ़ाया। अभी कुल आठ आधारों पर इस स्वतंत्रता में कटौती की जा सकती है।
सोशल मीडिया में कोई गेटकीपर नहीं होता है। इसलिए कोई जो चाहे वह अपलोड कर देता है। इसीलिए सन् 2000 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम बनाया गया, जिसमें 2008 में संशोधन किया गया और संशोधित कानून 2009 में लागू हुआ। गत 25 फरवरी को केन्द्र सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी (अंतरिम दिशा-निर्देश एवं डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 जारी किया। इसमें ऑनलाइन न्यूज मीडिया सहित सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए सरकार के पास कई शक्तियां हैं। हाल की कुछ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया के दुरुपयोग से उभरी चुनौतियों पर विचार करना प्रासंगिक होगा। हाल में कुछ घटनाओं पर फैलाए गए झूठ पर काफी विवाद हुआ है और कई महत्वपूर्ण हस्तियों एवं खबरनवीसों पर भारतीय दंडविधान एवं भारतीय प्रौद्योगिकी अधिनियम के प्रावधानों के तहत मुकदमे भी चलाए गए हैं, जिनमें देशद्रोह भी शामिल है।
अब तो जब डिजिटल युग का आरंभ हो चुका है, पॉलिटिकल सटायर ही दर्शकों को भी कोई मुद्दा समझने का नया नजरिया देता है। कहां तो यह भी जा सकता है कि इस तरह की कॉमेडी ने भी लोगों की समझ और सोच को निर्धारित किया है। शायद इसी ताकत को नेताओं ने भी समझा है और जब कोई विवाद होता है तो तुरंत कॉमेडियन्स को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। कुणाल कामरा पर भी इस समय केस दर्ज हो रहे हैं, शिवसेना के तमाम नेता उनके पीछे पड़ चुके हैं लेकिन इस विवाद से इतर एक सवाल उठता है- क्या भारत अभी पॉलिटिकल सटायर के लिए तैयार नहीं है? क्या नेताओं पर किए गए मजाक बर्दाश्त नहीं किए जा सकते? अब इन सवालों के जवाब जानेंगे लेकिन पहले पॉलिटिकल सटायर का इतिहास समझना जरूरी है। इसी तरह अखबारों में दिखने वाले सियासी कार्टून्स भी पॉलिटिकल सटायर का ही एक तरीका है, उसका भी एक लंबा इतिहास है। जब शब्द समझ नहीं आते थे, जब बोलना ठीक नहीं लगता था, तब चित्रों के जरिए ही समाज को भी आईना दिखाया गया और सियासी गलियारों में भी हलचल पैदा की गई।
कभी दौर था कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, ताऊ देवी लाल आैर अन्य अनेक नेता अपने कार्टून देखकर खुद बहुत हंसते थे। अनेक नेता अपने ऊपर व्यंग कविताओं को सुनकर कवियों की तारीफ करते थे। कार्टूनिस्टों, कवियों और आलोचकों को राजनीतिक स्वयं फोन करके उनको धन्यवाद देते थे। आज के दौर में सियासत में हास्य रस खत्म होता दिखाई दे रहा है। सियासत नीरस होती जा रही है। दूसरा पहलू यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। राजनीतिक व्यंग के शब्दों की लक्ष्मण रेखा क्या हो यह तय करना होगा लेकिन अगर शब्दों को सीमाओं में बांधा तो वह व्यंग रह ही नहीं जाएगा। फैसला आप लोगों को करना है।