महाकुंभ में लारेन जॉब्स व 12 हजार नए नागा
इस बार का महाकुम्भ-2025 अपने साथ आस्था एवं अध्यात्म की असंख्य दास्तानें पिरो…
इस बार का महाकुम्भ-2025 अपने साथ आस्था एवं अध्यात्म की असंख्य दास्तानें पिरो रहा है। लगभग 40 करोड़ श्रद्धालु अमरत्व, मोक्ष व पुण्य की तलाश में प्रयागराज की संगम तीर्थ स्थली की ओर उन्मुख है। आज पहला पवित्र स्थान है और इसके बाद यह सिलसिला लगभग डेढ़ माह तक चलेगा। इस बार आकर्षण का केन्द्र संतों-महामंडलेश्वरों की शाही सवारियों के अतिरिक्त विदेशी धनाढ्य अतिथि भी हैं। सर्वाधिक चर्चा ‘एप्पल’ के स्वामी स्टीव जॉब्स की पत्नी लारेन जॉब्स को लेकर है। लारेन जॉब्स निजी रूप में भी लगभग 1200 करोड़ डाॅलर सम्पत्ति की मालिक हैं और वे अपनी 60 सदस्यीय टीम के साथ महाकुंभ में कल्पवास कर रही हैं। लारेन जॉब्स ने अपने गुरु निरंजनी पीठाधीश्वर स्वामी कैलाशनंद गिरि से दीक्षा ली है और गुरु का गौत्र भी अपने परिचय में शामिल कर लिया है। दूसरा आकर्षण का केन्द्र हैं वे 12 हजार नए नागा संन्यासी जो 3 दिन का कठिन तप करने के बाद जूना अखाड़े (5 हजार नागा), निरंजनी अखाड़े (4500) और आह्वान अखाड़े में (400) में दीक्षित हो रहे हैं।
महाकुंभ की परम्परा कब चली थी, कोई प्रामाणिक इतिहास स्पष्ट नहीं, जो भी है पौराणिक आरफानों पर आधारित है। मगर करोड़ों देशवासियों ने इसे मान्यता प्रदान की है। इस धार्मिक-पर्यटन व आस्था की यात्रा पर हर 12 वर्ष बाद करोड़ों श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस बार प्रदेश की सरकार ने 40 करोड़ यात्रियों के लिए अधिकृत रूप से व्यवस्था की है। सुरक्षा-कवच बना रहे इसके लिए भी हजारों की संख्या में अर्द्ध सैनिक बल, लाखों की संख्या में सशस्त्र पुलिस बल, एआई की टीमें, हजारों की संख्या में ड्रोन तैनात, ये समूचा हाईटैक तंत्र किसी भी अप्रिय हादसे से बचाव के लिए मुस्तैदी के साथ तैनात है।
सर्वाधिक कड़े प्रबंध ‘वी.आई. पी.’ श्रद्धालुओं के लिए हैं। इनमें प्रधानमंत्री, अनेक केन्द्रीय मंत्री, लगभग डेढ़ दर्जन मुख्यमंत्री, उच्चधिकारीगण,लगभग सभी शंकराचार्य, असंख्य महामंडलेश्वर, 14 अखाड़ों के लाखों श्रद्धालु, लगभग 5 लाख नागा साधू, विश्वभर से इलैक्ट्रोनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया व डिजिटल टीम की टीमें सभी मौजूद रहेंगे।
कुम्भ मेला हमारे देश की एक धरोहर भी है। वैसे तो इस मेले से जुड़े कई रहस्य हैं लेकिन उनमें से एक सबसे खास यह भी है कि पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश से गिरती बूंदों के कारण कुंभ मेले से जुड़े विशेष स्थलों हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज को विशेष महत्व मिला। वहीं, ऐतिहासिक दृष्टि से महाकुंभ का पहला उल्लेख प्राचीन शिलालेखों में भी मिलता है। आज भी लाखों लोग इस आयोजन से जुड़े कई रहस्यों और तथ्यों से अनजान हैं। जैसे पहला महाकुंभ मेला कब और कहां आयोजित हुआ था? यह आयोजन किन ज्योतिषीय घटनाओं से जुड़ा है? नागा साधू और शाही स्नान की पंरपरा कैसे शुरू हुई?
महाकुंभ का आयोजन हर 12 साल में होता है और यह मेला विशेष रूप से संगम-तट पर आयोजित किया जाता है, जहां गंगा, यमुना और अदृश्य नदी सरस्वती आकर मिलती है। इस अवसर पर करोड़ों श्रद्धालु यहां आते हैं और पवित्र शाही स्नान करके अपने पापों से मुक्ति का एहसास अपने भीतर जीवित रखते हैं, यद्यपि स्नानादि से निवृत्ति के बाद लौटने पर सब पाप-पुण्य पूर्ववत जारी हो जाते हैं।
पौराणिक मान्यताओं की मानें तो महाकुंभ मेले की शुरुआत सतयुग से हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि इसका आधार समुद्र मंथन की उस कथा में हैं, जहां अमृत की बूंदे चार पवित्र स्थलों प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक पर गिरी थीं। महाकुंभ मेले की ऐतिहासिक शुरुआत को लेकन प्राचीन ग्रंथों में सटीक जानकारी नहीं मिलती है। कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है लेकिन इनमें मेले के पहले आयोजन के समय और स्थान को लेकर स्पष्टता नहीं है। वहीं कुछ विद्वानों का मानना है कि महाकुंभ की परंपरा 850 साल पहले शुरु हुई थी और हर 12 साल बाद इसका आयोजन प्रयागराज में होता है। वैसे हर 6 साल में अर्द्ध कुंभ का अयोजन होता है। इस महाकुंभ मेले का इतिहास आज भी कई रहस्यों से भरा हुआ है।
यद्यपि वर्तमान स्वरूप में यह आयोजन 850 साल से भी ज्यादा पुराना है। अगर हम इसकी शुरुआत की बातें करें तो इसका आयोजन सबसे पहली बार आदि शंकराचार्य द्वारा किया था। कुछ कथाओं के अनुसार महाकुंभ मेले का अयोजन समुद्र मंथन के बाद से ही आरंभ हो गया था। जिन स्थानों पर भी समुद्र मंथन से निकले हुए अमृत कलश का अमृत गिरा था उसी समय से वहां एक बहुत बड़े मेले का आयोजन होने लगा। ऐसी मान्यता है कि उस स्थान की नदियों के जल में भी अमृत है और उसमें स्नान करने वाले अमृत का पान कर लेते हैं और उन्हें मोक्ष मिलता है। समुद्र मंथन के बाद ही गुरु शंकराचार्य और उनके शिष्यों द्वारा संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर शाही स्नान की व्यवस्था की गई थी और तभी से अखाड़ों की नींव भी रखी गई।
महाकुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश के साथ हुई लेकिन इससे जुड़ी एक और कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार जब देवराज इंद्र के पुत्र जयंत कौए के रूप में अमृत कलश लेकर जा रहे थे तो उनकी जीभ पर भी अमृत की कुछ बूंदें लग गई थी। इसी वजह से आज भी कौए की उम्र अन्य पक्षियों की तुलना में लंबी होती है। जब जयंत अमृत कलश लेकर भाग रहे थे तो कुछ बूंदे प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार और नासिक में गिरीं जिसकी वजह से ये स्थान पवित्र स्थल बन गए और यहां महाकुंभ का आयोजन होने लगा। वहीं उसी समय इस अमृत की कुछ बूंदे दूर्वा घास पर भी पड़ीं और उसी समय से इसे भी पवित्र माना जाने लगा और पूजा-पाठ में इसका इस्तेमाल होने लगा। यही नहीं इस घास को भगवान गणपति की प्रिय घास माना जाने लगा। प्रयागराज में हर 12 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होता है जिसका महत्व सबसे ज्यादा है। इसका मुख्य कारण यह है कि इसी स्थान पर तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। हालांकि सरस्वती नदी विलुप्त हो चुकी है लेकिन आज भी वो प्रयागराज में मौजूद है। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति इन तीन नदियों के संगम में शाही स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी वजह से प्रयागराज के महाकुंभ का महत्व सबसे ज्यादा है। यद्यपि किसी को भी अमरत्व की प्राप्ति हुई हो इसका भी कोई साक्ष्य नहीं है।