इंडिया गठबन्धन का नेतृत्व?
कांग्रेस की इस विरासत को देश का कोई भी अन्य राजनैतिक दल कभी नहीं छीन सकता।
अखिल भारतीय स्तर पर राजनीति में आज के वातावरण में कांग्रेस पार्टी का कोई विकल्प अन्य विपक्षी राजनैतिक दल इसलिए नहीं बन सकता है क्योंकि इसे छोड़ कर जितने भी विपक्षी दल हैं उन सबकी उपस्थिति केवल अपने-अपने राज्यों में ही है। मगर विपक्षी दलों के बने गठबन्धन ‘इंडिया’ के नेतृत्व को लेकर जिस प्रकार का विवाद इसमें सम्मिलित अन्य क्षेत्रीय दल उठा रहे हैं उनका औचित्य केवल आत्मस्वार्थ में ही हो सकता है क्योंकि किसी भी क्षेत्रीय नेता की स्वीकार्यता राष्ट्रीय स्तर पर भारत जैसे विविधता से भरे देश में नहीं है। बदली हुई वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में कांग्रेस पार्टी इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसने भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने की महान लड़ाई लड़ी, बल्कि इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसकी विचारधारा सम्पूर्ण वैविध्य को आत्मसात करते हुए एक सशक्त व अखंड भारत को बनाने की है।
कांग्रेस की इस विरासत को देश का कोई भी अन्य राजनैतिक दल कभी नहीं छीन सकता। कांग्रेस की सबसे बड़ी वैचारिक सम्पत्ति यही है। यह सम्पत्ति भारत के गांव-गांव में आज भी बिखरी पड़ी है। इसकी वजह यह है कि भारत गांधी का देश है और गांधी अनेकता में एकता के सबसे बड़े प्रकाश स्तम्भ हैं। यदि कांग्रेस के हाथ से सब कुछ निकल जाये तब भी गांधी को उससे कोई नहीं छीन सकता। इसी कारण से पिछली सदी का भारत का इतिहास वही है जो कांग्रेस का इतिहास है। यह विवाद व्यर्थ का है कि इंडिया गठबन्धन का नेता इसका कौन सा घटक दल हो। भारत की परिस्थितियों को देखते हुए कांग्रेस ही इसकी नैसर्गिक नेता है। ऐसा आज की राजनैतिक परिस्थितियों में भी परिलक्षित होता है। लोकसभा में इसी पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं और राज्यसभा में इसके नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे विपक्ष के नेता हैं। दरअसल इंडिया गठबन्धन के नेतृत्व का विवाद जिस भी घटक दल का नेता उठाता है वह इस गठबन्धन को कमजोर करता है। मगर इससे पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि इंडिया गठबन्धन में जितने भी दल हैं उनमें द्रमुक जैसी दक्षिण भारत की पार्टी को छोड़ कर शेष सभी दल कांग्रेस के मूल वोट बैंक पर ही जिन्दा हैं।
हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की नेता व प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ने नेतृत्व का सवाल उठाया। निश्चित रूप से उन्होंने अपने राज्य में देश की सत्ताधारी पार्टी भाजपा को बहुत कड़ी टक्कर दी है और उसे हाशिये पर रखा है मगर यह हाशिया बहुत बड़ा है। भाजपा अब इस राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी हो चुकी है। इसके साथ यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि तृणमूल कांग्रेस के पास जो कुछ भी है वह सब कांग्रेस का ही है। ममता दी पहले 1996 तक इसी कांग्रेस पार्टी की नेता थीं और नरसिम्हा राव सरकार में युवा व खेलमन्त्री भी रही थीं। मगर श्री सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी से बगावत की और अपनी अलग तृणमूल कांग्रेस बनाकर राज्य में कांग्रेस के जनाधार पर धीरे-धीरे कब्जा जमा लिया और राज्य की सत्तारूढ़ वामपंथी मोर्चे की सरकार को बाद में 2011 में पराजित किया परन्तु इसके साथ वह भाजपा नीत वाजपेयी शासन में कांग्रेस के विरोधी खेमे में चली गईं और वाजपेयी सरकार में केन्द्रीय रेल मन्त्री बनीं। इस दौरान उन्होंने प. बंगाल में भाजपा को जोरदार प्रवेश दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
धीरे-धीरे भाजपा ने अपने वैचारिक आधार पर वामपंथी मोर्चे को हाशिये पर धकेलना शुरू किया जिससे राज्य की राजनीति में वैचारिक परिवर्तन आना शुरू हुआ। इस परिवर्तन में ममता दी की भूमिका को हाशिये पर नहीं डाला जा सकता है। वरना 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को इस राज्य में आश्चर्य में डालने वाली विजय प्राप्त नहीं होती। खैर यह तो केवल प. बंगाल की नेता ममता बनर्जी का सन्दर्भ है। इस क्रम में हम अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी व बिहार में लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को लें तो ये दल भी कांग्रेस का वोट बैंक हथिया कर ही अपनी खेती कर रहे हैं। इनका वजूद अपने राज्यों से बाहर नाममात्र का ही है। राष्ट्रीय स्तर पर इन्हें कांग्रेस पार्टी का सहारा हर हालत में चाहिए। वर्तमान 2024 के लोकसभा चुनावों में इन पार्टियों को जो भी वोट मिला है वह केवल कांग्रेस के साथ रहने की वजह से ही मिला है क्योंकि भारत का आम जनमानस आज भी सोचता है कि अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एकमात्र विकल्प केवल कांग्रेस पार्टी ही है।
भारत की जनता की इस राष्ट्रीय सोच को क्षेत्रीय दल इसलिए नहीं बदल सकते हैं क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दों पर उनके विचार यदि संकीर्ण नहीं तो क्षेत्र मूलक हैं जबकि भारत जैसे विशाल देश में उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम को मिलाये रखना बहुत जरूरी है। इस मामले में कांग्रेस सबसे बड़ी राष्ट्रवादी पार्टी है। आजादी से पहले इसे इसी सांचे में ढाल कर देखा जाता था। मगर इसके राष्ट्रवाद में ईश्वर-अल्लाह एक समान आते हैं। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि इसमें विकल्पों का कभी अकाल नहीं रहता। इसीलिए हम देखते हैं कि जिस-जिस राज्य में कांग्रेस कमजोर होती है वहां इसकी विचारधारा को अविलम्ब बनाकर कोई क्षेत्रीय दल उभर आता है जबकि भाजपा के साथ ऐसा नहीं है। यही कारण है कि भाजपा दक्षिण के राज्यों में बहुत सीमित प्रभाव रखती है अतः इंडिया गठबन्धन के सभी दलों को स्वयं ही आगे बढ़कर इसका नेतृत्व कांग्रेस को सौंप देना होगा तभी उनका अस्तित्व भी बचा रह सकता है क्योंकि राजनीति की लड़ाई अन्ततः वैचारिक आधार पर ही आकर टिकती है।