लोकपाल और न्यायपालिका
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों पर विचार करने…
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों पर विचार करने संबंधी लोकपाल के आदेश पर स्वतः संज्ञान लेते हुए रोक लगा दी है। शीर्ष अदालत ने लोकपाल के आदेश को बेहद परेशान करने वाला और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला आदेश करार िदया है। जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली विशेष पीठ ने नोटिस जारी कर केन्द्र, लोकपाल रजिस्ट्रार और हाईकोर्ट के मौजूदा जज के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने वाले व्यक्ति से जवाब मांगा है।
दरअसल, लोकपाल ने अपने एक आदेश में कहा था कि हाई कोर्ट राज्य के लिए संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था, इसलिए यह लोकपाल अधिनियम, 2013 की धारा 14 (1) (एफ) के अंतर्गत आता है। लोकपाल ने यह भी कहा कि धारा 14(1) (एफ) के तहत ‘कोई भी व्यक्ति’ की परिभाषा में हाई कोर्ट के जस्टिस भी शामिल हैं। हालांकि, लोकपाल ने मामले में शिकायत की सत्यता पर कोई टिप्पणी नहीं की और उसे सीजेआई को आगे की कार्यवाही के लिए भेज दिया। लोकपाल का नेतृत्व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए.एम. खानविलकर कर रहे हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान लागू होने के बाद हाई कोर्ट के जजों को स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकारी माना गया है।
लोकपाल एक तटस्थ, स्वतंत्र सार्वजनिक अधिकारी या कार्यालय होता है जिसका काम जनता के हितों की रक्षा करना और सार्वजनिक संस्थाओं के कार्यों के बारे में शिकायतों की जांच करना होता है। सौ से ज्यादा देशों में अब किसी न किसी तरह का लोकपाल है। स्वीडन 1809 में अपने संविधान में लोकपाल पद को शामिल करने वाले पहले देशों में से एक था। मूल रूप से सार्वजनिक अधिकारियों पर मुकदमा चलाने और अदालतों और प्रशासनिक निकायों के विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए सशक्त, स्वीडन का लोकपाल अब एक सलाहकार की तरह कार्य करता है। लोकपाल नागरिक शिकायतों की समीक्षा करता है, मानवाधिकारों की रक्षा करता है, सार्वजनिक संस्थानों में कदाचार को संबोधित करता है, और जांच करता है कि क्या कानूनों को ठीक से लागू किया गया है। लोकपाल वाले अधिकांश देश इस मॉडल का पालन करते हैं, जिनमें फिनलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे, जर्मनी, नीदरलैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम, न्यूजीलैंड, इज़राइल और संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ राज्य शामिल हैं। विद्वानों का मानना है कि लोकपाल की अवधारणा रोमन गणराज्य से शुरू हुई थी। प्लेबीयन ट्रिब्यूनल को सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का अधिकार था। इसके पास कानूनी मामलों में हस्तक्षेप करने और न्यायाधीशों के कार्यों को रद्द करने का अधिकार था। चीन में किन राजवंश, 225 ई. में, एक समान संस्था थी, सेंसरेट, जो शाही अधिकारियों पर कुछ निगरानी रखती थी और सीधे सम्राट को रिपोर्ट करती थी।
भारत में जन लोकपाल बनाने को लेकर 5 अप्रैल, 2011 को समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके साथियों ने जंतर-मंतर पर आंदोलन शुरू कर दिया था। यह आंदोलन इतना व्यापक हो गया कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए पूरे देश के लोग आंदोलित हो गए थे। देशभर में जगह-जगह बड़ी संख्या में धरने, प्रदर्शन और अनशन शुरू हो गए थे। अन्ना हजारे के अनशन के देशव्यापी जन आंदोलन के रूप में फैल जाने से चिंतित तत्कालीन मनमोहन सरकार ने जनलोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के िलए आनन-फानन में समिति की घोषणा कर दी। अन्ना हजारे का अनशन संसद में एक मजबूत लोकपाल विधेयक के पास कराने की उम्मीदों के साथ समाप्त हुआ। लोकपाल विधेयक के मसौदे को लेकर भी मतभेद बने रहे। अंततः देश को लोकपाल मिला।
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश पिनाकी चन्द्रघोष पहले लोकपाल बने। जिस तरह से भारत में भ्रष्टाचार ने सरकारी िवभागों से लेकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सभी संस्थाओं को अपनी चपेट में लिया था और नौकरशाहों से लेकर सांसद तक भ्रष्टाचार में लिप्त होने के उदाहरण सामने आए थे। उसे देखकर राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था की निगरानी के लिए लोकपाल विधेयक लाने की मांग ने जोर पकड़ा था। लोकपाल विधेयक को लेकर शुरू से ही िववाद रहा है। विधि विशेषज्ञों का एक वर्ग का यह तर्क था कि संविधान के अनुसार संसद हमारे देश की सर्वोच्च विधायी शक्ति और संस्था है। देश में सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट है तो फिर लोकपाल की नियुक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद की गरिमा को नष्ट करने का काम विधायिका में स्थापित होती जा रही राजनीतिक शैली ने भी किया। अन्ना आंदोलन के दौरान भी यह सवाल उठाया गया था कि कानून सड़कों पर नहीं बनते बल्कि कानून संसद ही बनाएगी। अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या लोकपाल के पास मौजूदा हाईकोर्ट जजों के विरुद्ध जांच करने के अधिकार है या नहीं। यह मामला लोकपाल और लोकपाल की शक्तियों और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बीच संवैधानिक सीमा को स्पष्ट करने का मसला है। सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला देगा वह भविष्य के लिए उदाहरण बनेगा। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि देश में न्यायपालिका की साख को कायम रखना बहुत जरूरी है। अगर न्यायपालिका की साख ही नहीं बची तो देश में बचेगा क्या? क्या लोकपाल मौजूदा जजों की जांच कर सकता है? यह सवाल अब कानूनी गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com