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जी-20 की अध्यक्षता का अर्थ

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहां पूरी दुनिया ने यह प्रण लिया कि प्रत्येक देश की भौगोलिक सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए और मध्य युगीन परिपाठियों को तिलांजिली देकर ताकत के बूते पर देशों की सीमाएं निर्धारित नहीं होनी चाहिएं।

02:06 AM Dec 03, 2022 IST | Aditya Chopra

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहां पूरी दुनिया ने यह प्रण लिया कि प्रत्येक देश की भौगोलिक सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए और मध्य युगीन परिपाठियों को तिलांजिली देकर ताकत के बूते पर देशों की सीमाएं निर्धारित नहीं होनी चाहिएं।

जी 20 की अध्यक्षता का अर्थ
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द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहां पूरी दुनिया ने यह प्रण लिया कि प्रत्येक देश की भौगोलिक सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए और मध्य युगीन परिपाठियों को तिलांजिली देकर ताकत के बूते पर देशों की सीमाएं निर्धारित नहीं होनी चाहिएं। इस उद्देश्य के लिए 1945 में ही राष्ट्रसंघ का गठन किया गया और एक नियम में एक नये विधान को लागू करने की कसमें इसके सभी सदस्य देशों ने उठाईं। परन्तु तभी से दुनिया में उत्तर औऱ दक्षिण के क्षेत्राें के देशों में विकसित व विकासशील देशों की रेखा भी खिंच गई। इस विभाजन के चलते ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन का जन्म हुआ जिसका नेतृत्व भारत जैसे नव स्वतन्त्र राष्ट्र के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने मिस्र के राष्ट्रपति स्व. नासर और युगोस्लोविया (अब यह बंट चुका है) के राष्ट्रपति मार्शल टीटो के साथ किया। द्वितीय विश्व युद्ध मे बेशक सोवियत संघ व अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देश (जर्मनी को छोड़ कर)   जैसे ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी एक पाले में थे परन्तु युद्ध समाप्त होने के बाद सोवियत संघ व अमेरिका अलग-अलग खेमों में चले गये। सोवियत संघ के खेमे में अधिसंख्य कम्युनिस्ट या समाजवादी विचारधारा के देश थे जबकि अमेरिका के खेमे में विकसित कहे जाने वाले देश।
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इस विश्व युद्ध में सबसे बड़ा नुकसान भी सोवियत संघ का हुआ था और इसके ढाई करोड़ सैनिक हताहत हुए थे जबकि अमेरिका ने 1939 से 1945 तक चले इस युद्ध में बहुत बाद में शिरकत की थी। इसके बावजूद अमेरिका इस युद्ध के बाद विश्व की बड़ी शक्ति बनकर उभरा और सोवियत संघ इसके जवाब में। दोनों खेमों के बीच शीतयुद्ध चलता रहा और अधिसंख्य विकासशील देश सोवियत संघ की पनाह में अपना विकास करते रहे हालांकि इसमें कुछ अपवाद भी रहे विशेषकर मध्य व पश्चिमी एशियाई व अफ्रीकी देश।
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जर्मनी भी दो भागों में बंट गया पूर्वी जर्मनी कम्युनिस्ट खेमे में और पश्चिमी जर्मनी अमेरिकी खेमे में।  औद्योगिक विकास से लेकर सामरिक तैयारियों के बीच भी उत्तर-दक्षिण की रेखा स्पष्ट रही। सामरिक संगठन नाटो व सेंटों (ईरान, इराक, पाकिस्तान, तुर्की व ब्रिटेन) व सीटों संगठन उत्तरी खेमे की पहल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने व विकासशील देशों को भी अपने साथ लेने की गरज से किये गये। दूसरी और सोवियत संघ ने वारसा सन्धि के जरिये पूर्वी यूरोपीय देशों को अपने साथ रखा और साथ ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्यों के साथ अपनी सहानुभूति रखी। इस प्रकार भारत गुटनिरपेक्ष देशों की अगुवाई करते हुए तटस्थ रहा और इसे ही इसने अपनी विदेशनीति का प्रमुख अंग बनाया जिस पर देश की सभी राजनैतिक पार्टियों की सहमति रही। परन्तु 1988 में बर्लिन की दीवार गिरने के साथ दोनों जर्मनियों के एक हो जाने और कालान्तर में वियतनाम का एकीकरण हो जाने के साथ 1990 में सोवियत संघ के 15 देशों में बिखर जाने से पूरी दुनिया की राजनीति में अभूतपूर्व व क्रान्तिकारी बदलाव आया जिससे एक बारगी दुनिया एकल ध्रुवीय जैसी बन गई और अमेरिका के चारों ओर ही घूमती सी दिखाई देने लगी। इस दौर में दुनिया के अधिसंख्य देश संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था को छोड़कर बाजार मूलक आर्थिक  प्रणाली की तरफ घूमने लगे जिससे पूरी दुनिया एक बाजार के रूप में विकसित सी होने लगी। इस व्यवस्था ने कुछ ऐसी समस्याएं खड़ी कीं कि विकासशील देशों में विकसित देशों द्वारा किये जाने वाले निवेश से विकास के साथ स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों व आयस्रोतों के शोषण ने सामाजिक असमानता को जन्म देना तेजी से शुरू किया। इससे विकासशील देशों का आैद्योगिकरण  होने के साथ पूंजीकरण तो हुआ वह विकास नहीं हो सका जिसे सम्पत्ति का सम्यक व समानुपाती बंटवारा कहा जाता है। इसके बावजूद पूंजीकरण के बढ़ने की वजह से और विदेशी निवेश की उपस्थिति से विकासशील देशों की ‘पूंजीवत्ता’ में बढ़ौत्तरी हुई।
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पूंजीमूलक या बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का पैमाना पूंजीवत्ता के बनने के बाद भारत जैसे समन्वित व राजनैतिक व्यवस्था के प्रणाली गत स्थायित्व वाले देश ने विकास वृद्धि के पैमाने पर जहां दुनिया को चौकाना शुरू किया वहीं चीन जैसे कम्युनिस्ट देश ने भी बाजार मूलक प्रणाली को अपनाकर अपनी पूंजीवत्ता को आसमान पर पहुंचाने में सफलता प्राप्त की। मगर इस विकास का प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से ज्यादा लेना-देना इसलिए नहीं होता है क्योंकि 25 प्रतिशत से अधिक वृद्धि दर केवल कुछ औद्योगिक घरानों की वजह से ही होती है।  भारत में एेसा ही है। मगर इसके बावजूद यह दुनिया के 20 प्रमुख औद्योगिक देशों की श्रेणी में पहुंच चुका है जो कि गर्व की बात है। दुनिया के इन बीस देशों में उत्तर के भी देश हैं और दक्षिण के भी। इंडोनेशिया से भारत को जी-20 देशों का नेतृत्व करने के लिए इसकी अध्यक्षता मिली है। इन जी -20 देशों मे अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि के साथ इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब, अर्जेंटाइना, आस्ट्रेलिया आदि जैसे देश भी हैं। अतः यह संगठन कुल मिलाकर पूरे विश्व के सभी महाद्वीपों के  अग्रणी देशों का प्रतिनिधित्व करता है। भारत अपनी अध्यक्षता में इस संगठन की महत्ता में चार चांद लगा सकता है और वैश्विक स्रोतों व प्राकृतिक सम्पत्ति के समान बंटवारे के लिए सहमति बनाने में प्रमुख भूमिका निभा सकता है। वैश्विक आर्थिक संगठन व विश्व बैंक जिस तरह अभी तक उत्तरी देशों के प्रभाव में काम करते आ रहे हैं उनकी कार्यप्रणाली में संशोधन के लिए भी भारत अपना प्रभाव इस्तेमाल कर सकता है।
इसके साथ ही राष्ट्रसंघ के संरचनात्मक ढांचे में परिवर्तन का भी यह उचित समय है क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अब एशिया महाद्वीप का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है और विश्व की अर्थव्यवस्था के लिए यह अवलम्ब बन चुका है। प्रधानमन्त्री मोदी इसी दिशा में अग्रसर होकर दक्षिण के देशों के बीच विकास की लहर चलाने के लिए कामयाब हों ऐसी हर भारतीय की इच्छा है।
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