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महबूबा मुफ्ती : आगे की राह?

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को 14 माह बाद प्रशासन ने हिरासत से रिहा कर ​दिया है। महबूबा की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने अपनी मां को बंदी बनाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।

12:08 AM Oct 15, 2020 IST | Aditya Chopra

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को 14 माह बाद प्रशासन ने हिरासत से रिहा कर ​दिया है। महबूबा की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने अपनी मां को बंदी बनाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।

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महबूबा मुफ्ती   आगे की राह
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जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को 14 माह बाद प्रशासन ने हिरासत से रिहा कर ​दिया है। महबूबा की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने अपनी मां को बंदी बनाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
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29 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में अदालत ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा था कि केन्द्र सरकार किस आदेश के तहत और कब तक महबूबा मुफ्ती को हिरासत में रखना चाहती है, तब सुनवाई 15 अक्तूबर तक टाल दी थी। सुप्रीम कोर्ट में पेशी से पहले ही सरकार ने महबूबा को रिहा कर दिया। उनकी रिहाई का उमर अब्दुल्ला समेत राज्य के कई नेताओं ने स्वागत किया है।
उमर अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला समेत कई नेताओं को पहले ही रिहा किया जा चुका है। अपनी रिहाई के बाद से ही बाप-बेटा मोदी सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाए हुए हैं। फारूक अब्दुल्ला के धारा 370 और 35 ए की बहाली के लिए चीन की मदद लेने संबंधी बयान पर देशभर में कड़ी प्रतिक्रिया हुई है।
अब ऐसी स्थिति में महबूबा मुफ्ती के लिए आगे की राह क्या है? महबूबा मुफ्ती के सामने मुश्किल यह है ​िक या तो वह अब्दुल्लाह बाप-बेटे से भी ज्यादा सख्त तेवर दिखाएं या फिर दिल्ली से किसी तरह की सुलह-सफाई का रास्ता निकालें। एक साल के बाद उनकी रिहाई तो हो गई लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने खिसक चुके जनाधार को फिर से मजबूत करने की है।
नजरबंदी के दौरान उनकी पार्टी के दर्जन भर नेता और पूर्व मंत्री बागी हो चुके हैं। उनके पूर्व मंत्री अलताफ बुखारी ने नई पार्टी ‘अपनी पार्टी’ बना ली है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी साजिशों के बावजूद लगातार आतंकवादी ढेर हो रहे हैं।
आतंकी कमांडरों की उम्र काफी कम रह गई है। केन्द्र शासित जम्मू-कश्मीर और लद्दाख राज्य ने विकास की राह पकड़ ली है। यद्यपि महबूबा मुफ्ती ने धारा 370 की बहाली के लिए जद्दोजहद करने का ऐलान कर दिया है और मोदी सरकार के खिलाफ जहर उगला है लेकिन ऐसा करना महबूबा मुफ्ती की मजबूरी भी है।
खैर राजनीतिक दलों के नेताओं को तो रिहा किया  ही जाना था, अब सवाल यह है कि जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र को कैसे मजबूत बनाया जाए। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है इसलिए यह जरूरी भी है। जम्मू-कश्मीर में सीटों के परिसीमन का काम चल रहा है और देर सवेर वहां चुनाव कराए ही जाने हैं।
चुनाव आयोग का कहना है कि चुनाव कराने के लिए बहुत सी चीजें दिमाग में रखनी पड़ेंगी, जैसा कि नया नक्शा तैयार करना, मौसम, इलाके में तनाव की स्थिति और स्थानीय त्यौहारों बगैरह को देखकर चुनाव की तारीखें तय की जाएंगी। चुनाव आयोग का कोरोना महामारी के दौरान बिहार विधानसभा चुनावों के अनुभवों को भी देखना होगा। केन्द्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर का पहला विधानसभा चुनाव 2021 में हो सकते हैं। नए सिरे से परिसीमन में एक साल का समय लग जाता है। इसी साल नवम्बर में रिपोर्ट आएगी। इसी दौरान बर्फबारी का सीजन शुरू हो जाएगा, इसलिए अगले वर्ष ही चुनाव कराए जाएंगे।
जम्मू-कश्मीर में कुल 111 विधानसभा सीटें हैं, जिनमें 87 जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की हैं। बाकी 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की हैं, जिन्हें खाली रखा जाना है। नए परिसीमन  में लद्दाख के खाते की चार सीटें हट जाएंगी क्योंकि वहां पर विधानसभा नहीं होगी।
जम्मू में अभी 37 और कश्मीर में 46 विधानसभा सीटें हैं। परिसीमन के हिसाब से देखें तो यहां 7 सीटों का इजाफा हो सकता है, हालांकि स्थिति चुनाव आयोग के फैसले के बाद साफ होगी। जम्मू-कश्मीर ​के विशेष राज्य के दर्जे को खत्म किए जाने के बाद खंड विकास परिषद के चुनाव हुए थे, तो उसमें रिकार्ड 98.3 प्रतिशत मतदान हुआ था। इस दौरान 27 प्रत्याशी निर्विरोध चुने गए थे।
कांग्रेस नेशनल कांफ्रैंस  और पीडीपी ने इन चुनावों का बहिष्कार किया था। जम्मू-कश्मीर, लेह और लद्दाख के बीडीसी चुनावों में कोई हिंसा भी नहीं हुई थी। इससे पता चलता है कि लोकतंत्र में लोगों का अटूट विश्वास है। 2005 के नगरपालिका चुनाव और 2011 के पंचायत चुनावों में बहिष्कार की अपील के बावजूद इन चुनावों में क्रमशः 45 से 80 फीसदी वोट होना इस तथ्य का सबूत था कि घाटी के ग्रामीण इलाकों में लोकतंत्र की नींव कितनी गहरी है।
राज्य में चुनी हुई लोकप्रिय सरकारें भी रही हैं। आतंकवाद की समस्या तो 1989 में शुरू हुई। इस आतंकवाद ने क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक ढांचे को तहस-नहस करने के लिए कहर ढा डाला। आतंकवादियों ने स्थानीय नेतृत्व को निशाना बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन इसके बावजूद राज्य में वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। अब यह क्षेत्रीय दलों और राष्ट्र की मुख्यधारा की पार्टियों का दायित्व है कि वे चुनावों की तैयारी करें।
लोकतंत्र तभी सम्पूर्णता पाता है जब इसमें लोगों की भागीदारी पूरे जज्बे के साथ हो। चुनावों से पहले यह जरूरी भी है कि पूरे राज्य में ऐसा वातावरण बनाया जाए कि राजनीतिक प्रक्रिया बेरोकटोक पूरी हो सके। देखना होगा नेशनल कांफ्रैंस और पीडीपी जैसी पार्टियां क्या रुख अपनाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों दलों का जनाधार काफी खिसक चुका है। बेहतर यही होगा कि क्षेत्रीय दल राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हों और राज्य में लोकतांत्रिक वातावरण स्थापित हो। लोगों की आकांक्षाएं पूरी होंगी तो कोई समस्या रहेगी नहीं।
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