Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

महबूबा, संसद और चीन

NULL

09:25 PM Jul 16, 2017 IST | Desk Team

NULL

संसद का वर्षाकालीन सत्र शुरू हो रहा है और देशभर में समस्याओं का सैलाब उमड़ रहा है। केवल पाकिस्तान और चीन के साथ ही भारत नहीं उलझा हुआ है बल्कि घर के भीतर भी इस देश की एकता और अखंडता को तोडऩे वाली ताकतें सिर उठा रही हैं। ऐसे माहौल में मुल्क के 125 करोड़ लोगों का सीधे प्रतिनिधित्व करने वाली संसद शांत होकर नहीं बैठ सकती है। भारत की सड़कों पर मचने वाले कोहराम का अक्स संसद में न दिखाई दे ऐसा संभव नहीं है। लोकतंत्र की जमीनी बनावट दुहाई दे रही है कि संसद के भीतर लोगों की शंकाओं का निवारण होना चाहिए मगर जो लोग सोचते हैं कि विपक्ष की भूमिका केवल कोलाहल मचाने की होती है वे भारत की जनता का मिजाज नहीं समझते। यह संसद वही है जिसमें 1962 में चीन से हार जाने के बाद स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में लोकसभा में अपनी सरकार के विरुद्ध रखे गए अविश्वास प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया था। उस समय विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव रखने के लिए जरूरी सांसदों की संख्या जुटाने में भी मुश्किल पेश आ रही थी, इसके बावजूद प्रस्ताव रखा गया था। भारत के आजाद होने के बाद पहली बार नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा गया था मगर पं. नेहरू ने तब अविश्वास प्रस्ताव का उत्तर देते हुए कहा था कि चीनी सैनिक मानसिकता वाले लोग हैं, उनका जोर हमेशा फौजी नजरिये से सड़कों को बनाने और सैनिक तैयारी पर रहता है।

चीनी आक्रमण के बाद पं. नेहरू का यह निष्कर्ष आज तक सामयिक बना हुआ है क्योंकि चीन की हरकतें भारत की सीमा से लगते सारे इलाकों में फौजी सड़कें बनाने की आज भी जारी हैं मगर जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने यह कहकर चौंका दिया है कि कश्मीर की समस्या को बिगाडऩे में चीन का भी हाथ है। यदि ऐसा है तो हमें कूटनीतिक स्तर पर बीङ्क्षजग में बैठी सरकार के साथ रणनीतिक वार्ता करनी होगी और उसे बताना होगा कि वह भारत की सार्वभौमिक और स्वयंभू सत्ता को हिलाने-डुलाने की कार्रवाइयों में लिप्त होने से बाज आए मगर इतना तय है कि हम चीन की नीयत और नीतियों से 1962 से ही वाकिफ हैं। हम जानते हैं कि वह हमें चारों तरफ से घेरना चाहता है क्योंकि 1963 में ही पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जनरल अयूब ने चीन को हमारे कश्मीर का ही बहुत बड़ा भू-भाग भेंट में दिया था। बेशक यह पाक अधिकृत कश्मीर का हिस्सा था मगर चीन ने इसी पर ‘काराकोरम सड़क’ का निर्माण किया जो दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है लेकिन इस हकीकत के बावजूद चीन ने कश्मीर को भारत-पाक के बीच का द्विपक्षीय मसला ही माना हालांकि वह खुद इस मसले के बीच 1963 में ही अपनी टांग फंसा बैठा था लेकिन 2003 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार कर लिया तो उसने उसी वक्त हमारे अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा ठोक कर सिद्ध कर दिया कि उसकी जमीनी विस्तारवादी भूख का कोई अंत नहीं है हालांकि उसने बदले में सिक्किम को भारत का अंग स्वीकार किया जरूर मगर दूसरे छोटे पहाड़ी देश भूटान पर अपनी नजरें गड़ा दीं और पाक अधिकृत कश्मीर के रास्ते ‘चीन-पाक सड़क’ बनाने की परियोजना पर काम शुरू कर दिया।

मतलब सीधा-सीधा है कि चीन भारत को लगातार दबाव में रखकर इसकी स्वतंत्र विदेश नीति को प्रभावित करना चाहता है। इसी वजह से इसने भूटान के ‘दोगलांग पठार’ में सड़क बनाने पर नया विवाद शुरू किया है जबकि भारत और इसके बीच अभी तक स्पष्ट और सुनिश्चित सीमा रेखा तय ही नहीं हुई है लेकिन इस विवाद को सुलझाने के लिए दोनों देशों के बीच जो वार्ता तंत्र स्थापित हुआ उसका मुख्य आधार यह है कि सीमाओं पर जो इलाका जिस देश के प्रशासन तंत्र के तहत आता है वह उसका भाग माना जाए। इस सिद्धांत को देने वाले कोई और नहीं बल्कि हमारे वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी थे, जो मनमोहन सरकार के दौरान रक्षा, विदेश व वित्तमंत्री रहे थे मगर तब का विपक्ष इस मसले को भी यह कहकर उलझाना चाहता था कि संसद में एक वैसा ही प्रस्ताव पारित किया जाए जैसा कश्मीर के मामले में 1992 में पारित किया गया था कि पूरा अरुणाचल प्रदेश भारतीय संघ का हिस्सा है। ऐसा प्रस्ताव रखने की बात तब विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने कही थी। यह पूरी तरह राजनीतिक लाभ का नजरिया था क्योंकि अरुणाचल और कश्मीर के मामले में कोई समानता नहीं थी। पूरी जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय भारत में इसके महाराजा हरि सिंह ने अक्तूबर 1947 में किया था जबकि नेफा (अरुणाचल प्रदेश) का मामला मैकमोहन रेखा से संबंधित था मगर ऐसा विचार श्री अडवाणी को तब नहीं आया था जब उनकी ही सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार किया था।

कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि संसद के इस केवल 17 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले छोटे से सत्र में रचनात्मक बहस होनी चाहिए और विपक्ष को अपनी सभी शंकाओं के निवारण के लिए प्रस्ताव रखने की स्वीकृति मिलनी चाहिए। मैं विपक्ष की वकालत नहीं कर रहा हूं बल्कि इस देश के महान लोकतंत्र की परंपरा बता रहा हूं। कश्मीर मसले से लेकर गौरक्षकों के मचाए जा रहे आतंक तक भारत के इकबाल को चोट पहुंच रही है और इसकी सदियों पुरानी समावेशी संस्कृति आहत हो रही है। कोई भी देश तभी महान बनता है जब इसके लोगों का नजरिया और सोच भविष्य को सुन्दर बनाने के सपनों से प्रेरित होता है। राजनीति सिवाय भविष्य के सुरक्षित और सुन्दर सपने बेचकर उन्हें हकीकत में उतारने का रास्ता तैयार करने के अलावा और कुछ नहीं होती। अगर ऐसा न होता तो क्यों भारत आज दुनिया के 20 बड़े औद्योगिक देशों की जमात में शामिल होता। हम भूल जाते हैं कि भारत में अंग्रेजों के आने से पहले 1746 तक भारत का विश्व व्यापार में हिस्सा 25 प्रतिशत हुआ करता था इसीलिए आजादी मिलने से कुछ महीने पहले ही पं. नेहरू ने इंग्लैंड के अखबार में लेख लिखकर कहा था कि ‘भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा।’ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह पं. नेहरू ही थे जो स्वतंत्रता आंदोलन के समय कांग्रेस में अपनी नीतियों के पक्ष में विरोध की आवाज न उठने पर खुद ही किसी ‘डा. चट्टोपाध्याय’ के नाम से आलोचना किया करते थे। उस समय महात्मा गांधी से यह पूछा गया था कि यह डा. चट्टोपाध्याय नाम का व्यक्ति कौन हो सकता है तो गांधी जी ने जवाब दिया था कि यह कार्य नेहरू के अलावा कोई और नहीं कर सकता क्योंकि उसी में यह ताकत है कि वह अपने कामों की खुद आलोचना कर सके। इसलिए विपक्ष को केवल रचनात्मक चर्चा ही करनी चाहिए, शोर-शराबा करके बहिष्कार नहीं। राहुल गांधी ध्यान लगाकर सुनें और अपनी पार्टी को म्युनिसपलिटी की पार्टी होने से बचाएं।

Advertisement
Advertisement
Next Article