सड़कों पर उतरे सांसद
संसद का सत्र चालू है और देश का विपक्ष चुनाव आयोग के खिलाफ मतदाता सूचियों में गड़बड़ी को लेकर सड़कों पर उतरा हुआ है। विपक्ष की 25 राजनीतिक पार्टियों का कहना है कि बिहार में चुनाव आयोग जो मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम कर रहा है वह त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि आयोग ने एक महीने के समय के भीतर ही यह कार्य किया है और मतदाता सूची से 65 लाख से अधिक मतदाताओं के नाम काट दिये हैं। सर्वप्रथम यह समझने की जरूरत है कि लोकतन्त्र में सबसे ऊंचा ‘लोक स्वर’ होता है क्योंकि संसद में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही लोकस्वर के प्रहरी होते हैं। यह लोकस्वर ही बहुमत का पर्याय बन कर देश में सरकार और विपक्ष का गठन करता है, मगर इस व्यवस्था में चुनाव आयोग ही इस लोकस्वर को प्रतिष्ठापित करने का काम लोगों को मिले एक वोट के अधिकार के जरिये करता है। लोकतन्त्र में राजनीतिक दल और स्वयं लोग ही सबसे बड़े भागीदार होते हैं। बेशक बहुमत और अल्पमत संसद में आंकड़ों के आधार पर तय होते हैं मगर दोनों ही पक्ष लोकस्वर के प्रतिनिधि होते हैं। जिस भी दल का लोकसभा में बहुमत आता है वहीं सरकार गठित करता है परन्तु चुनाव आयोग एकमात्र ऐसी संस्था है जो लोकतन्त्र की जमीन तैयार करती है।
अतः इसकी विश्वनीयता पर यदि अंगुली उठती है तो पूरी व्यवस्था ही शक के घेरे में आ जाती है, मगर भारत में ऐसा अवसर आज से पहले कभी नहीं आया जब चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर कोई राजनीतिक दल सड़क पर उतरा हो। चुनाव आयोग कह रहा है कि मतदाता सूचियों में समय-समय पर संशोधन करना उसका संवैधानिक अधिकार है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती है लेकिन इसके साथ ही चुनाव आयोग का यह भी दायित्व और कर्त्तव्य है कि मतदाता सूचियों को लेकर आम जनता के मन में किसी प्रकार की शंका का भाव न उपजने पाये। इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग को सरकार का अंग नहीं बनाया और इसे न्यायपालिका की भांति स्वतन्त्र व खुद मुख्तार दर्जा दिया। यह दर्जा इसीलिए दिया गया जिससे स्वतन्त्र भारत में प्रत्येक वैध भारतीय नागरिक को मिले एक वोट के संवैधानिक अधिकार की मार्फत देश व प्रदेशों में जनता की सरकारें गठित हो सकें। लोकतन्त्र में हमारे पुरखों ने मतदाता को स्वयंभू इस प्रकार बनाया कि हर पांच साल बाद देश के प्रधानमन्त्री से लेकर राज्यों के मुख्यमन्त्री उसकी सेवा में हाजिरी दें और अपने किए गए कामों की मजदूरी मांगे। इसी वजह से मतदाता को लोकतन्त्र का राजा कहा जाता है।
वह अपने मतों की मार्फत ही हर पांच साल बाद सत्ता का फैसला करता है और निर्देश देता है कि वह किस दल की सरकार देखना पसन्द करेगा। जाहिर तौर पर इसकी व्यवस्था चुनाव आयोग ही कराता है और सीधे संविधान से ताकत लेकर अपने दायित्वों का निर्वाह करता है। मगर आज अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है। एक तरफ चुनाव आयोग है जो कह रहा है कि उसकी बनाई गई मतदाता सूची पूरी तरह सन्देहों से ऊपर है और दूसरी तरफ समूचा विपक्ष है जो कह रहा है कि उसकी मतदाता सूची में ही भारी गड़बड़ है। विपक्ष की तरफ से मोर्चा कांग्रेस पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी संभाले हुए हैं। राहुल गांधी व चुनाव आयोग के बीच में सरकार कहीं नहीं आती है, मगर जनता जरूर आती है, क्योंकि वही लोकतन्त्र की मालिक है। चुनाव आयोग का काम इसी जनता के प्राधिकृत अधिकार को संरक्षित रखना है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि लोकतन्त्र में जनता को मालिक बनाने की गरज से ही संविधान निर्माताओं ने प्रत्येक वयस्क भारतीय को एक समान रूप से एक वोट का अधिकार दिया जिसे बेशकीमती अधिकार का नाम दिया गया।
लोकतन्त्र में इसकी कोई कीमत नहीं आंकी जा सकती। यह अधिकार स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने लोगों को देने का वादा तीस के दशक में ही कर दिया था। स्वतन्त्रता की लड़ाई केवल अंग्रेजों से मुक्ति पाने की ही नहीं थी, बल्कि वह आम भारतीय को इस मुल्क का मालिक बनाने की भी थी क्योंकि अंग्रेजों के दो सौ वर्षों के शासन के दौरान लोगों में दास भाव घर कर गया था। इस दास मानसिकता से पीछा छुड़ाने के लिए बापू ने प्रत्येक भारतीय को खुद मुख्तारी एक वोट के जरिये अता की थी। अत: चुनाव आयोग का यह पवित्र धर्म बनता है कि वह वोट के अधिकार की पुख्ता तरीके से सुरक्षा करे और यह भी सुनिश्चित करें कि किसी भी अवैध नागरिक के हाथ में यह अधिकार नहीं जायेगा और कोई वैध नागरिक छूटेगा भी नहीं, मगर विपक्ष आरोप लगा रहा है कि चुनाव आयोग अवैध मतदाता इस प्रकार बना रहा है कि एक ही मतदाता कई बार और कई स्थानों पर मत दे रहा है।
इस विसंगति को दूर करना चुनाव आयोग का ही काम है। चुनाव आयोग को अपने काम के बारे में पूरी तरह जनता के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है, क्योंकि उसके हितों व अधिकारों की रक्षा करने का काम ही पूरी चुनाव प्रणाली करती है परन्तु विपक्ष का भी यह दायित्व बनता है कि वह अपने आरोपों के सत्यापन में किसी प्रकार की गफलत न दिखाये। उसके सारे आंकड़े चुनाव आयोग के अधिकृत प्रपत्रों पर ही आधारित होने चाहिए। राहुल गांधी कह रहे हैं कि उन्होंने कर्नाटक के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र के जो मतदाता आंकड़े दिये हैं वे आयोग द्वारा जारी कागजात पर ही आधारित हैं तो उन्हें जांचने का काम आयोग को ही करना होगा। राहुल गांधी एक ‘वैधानिक’ पद पर हैं और लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है तो यह एक संवैधानिक संस्था है और अपने क्रिया-कलापों के लिए खुद ही जिम्मेदार है। उसे किसी भी अवैध मतदाता को सूची से बाहर करने का पूरा अख्तियार है, मगर इस क्रम में कोई भी वैध मतदाता सूची से बाहर नहीं रहना चाहिए।