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दया याचिका सवालों के घेरे में

उन्नाव गैंगरेप पीड़िता ने अंतत: सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया। यह आज देश की बेटी की मौत नहीं बल्कि शहादत है जो व्यर्थ नहीं जाएगी।

04:16 AM Dec 08, 2019 IST | Ashwini Chopra

उन्नाव गैंगरेप पीड़िता ने अंतत: सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया। यह आज देश की बेटी की मौत नहीं बल्कि शहादत है जो व्यर्थ नहीं जाएगी।

उन्नाव गैंगरेप पीड़िता ने अंतत: सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया। यह आज देश की बेटी की मौत नहीं बल्कि शहादत है जो व्यर्थ नहीं जाएगी। 95 फीसदी जली हुई बेटी के अंतिम शब्द यही थे कि ‘वह जीना चाहती है’ लेकिन जिन्दगी और मौत के बीच संघर्ष के बाद जिन्दगी हार गई। हैदराबाद गैंगरेप के चारों आरोपियों को एनकाउंटर  में मार गिराने के बाद देशभर में दिनभर जश्न मनाया गया। लोगों ने तेलंगाना पुलिस पर फूल बरसाये, पुलिस वालों को मिठाइयां खिलाई लेकिन रात के वक्त उन्नाव गैंगरेप पीड़िता की मृत्यु हो जाने पर देश फिर शोक में डूब गया। 
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सभी शोक संतप्त हैं, दुख और शर्म के साथ सभी आक्रोशित भी हैं। हैदराबाद एनकाउंटर के बाद लोगों ने जिस तरह खुशी मनाई वह हमारे सिस्टम की नाकामी का एक पहलू है। लोगों का पुलिस और न्यायपालिका पर से विश्वास उठ चुका है। जब भी सिस्टम लोगों को न्याय दिलाने में विफल होता है तो जनता की ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। उन्नाव गैंगरेप पीड़िता की मौत कई सवाल छोड़ गई है, जिसका उत्तर देना उत्तर प्रदेश सरकार, पुलिस और न्यायपालिका के लिए आसान नहीं होगा। नारी अस्मिता की रक्षा का बड़ा सवाल देश के समक्ष है। 
पूरे देश में रेप की घटनाएं हो रही हैं। इन पर अंकुश लगाना बड़ी चुनौती है। लोग बार-बार सवाल उठाते हैं कि निर्भया कांड के दोषियों को अभी तक फांसी क्यों नहीं हुई। अगर निर्भया कांड के दोषियों काे पहले फांसी दे दी जाती तो एक नजीर स्थापित होती और कानून का खौफ पैदा होता। ऐसी घटनाएं फिर से न हो इसके लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। निर्भया के माता-पिता आज भी अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं। कानून को नजरंदाज करने वाली पुलिस व्यवस्था का उभरना भी समस्या का समाधान नहीं है। 
न्याय को सुविचारित हत्या और प्रतिशोधी रक्तपात से नहीं पाया जा सकता। इसके साथ ही पीड़ितों के भविष्य के दुःख और शोक से न्याय का मार्ग प्रभावित नहीं होता। हैदराबाद मुठभेड़ को लेकर सांसदों की कई प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। जिसमें मुठभेड़ को सही करार दिया गया। जनप्रतिनिधियों को सोचना होगा कि यदि पुलिस भीड़ के शोर से प्रभावित होकर काम करती है तो फिर संविधान बचेगा कैसे। फिर कानून और अदालतों का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। जनप्रतिनिधियों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि पीड़ितों को न्याय उनके दुःख और दर्द के रूप में उनका समर्थन करने और उचित प्रक्रिया पर जोर देने में निहित है जो अभियुक्तों के खिलाफ एक मजबूत केस तैयार कर सकें। 
इसे विडम्बना कहें या कुछ और कि बलात्कार के आरोपी जमानत पर बाहर आ जायें और पीड़िता को जिन्दा जला डालें। विदेशों में अगर कोई ऐसा अपराधी जेल से बाहर आता है तो पीड़िता को सतर्क किया जाता है लेकिन भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं। उन्नाव पीड़िता के परिजन लगातार इस बात की शिकायत करते रहे हैं कि अभियुक्त जेल से छूट कर आने के बाद उन्हें धमकियां दे रहे थे और इससे पहले भी कई बार उन पर हमले की कोशिश की गई। उन पर केस वापस लेने के लिए दबाव डाला जा रहा था। तब पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। लड़की को जिंदा जलाने की घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार भी सक्रिय हुई। सरकार ने उसे एयर एम्बूलेंस से दिल्ली के अस्पताल भेजा लेकिन लड़की के जीवित बचने की संभावनाएं पहले से ही काफी क्षीण थी। 
क्या ऐसा जघन्य अपराध करने वालों को जमानत का अधिकार होना चाहिए। क्या पाक्सो एक्ट के तहत दोषियों के पास दया याचिका का अधिकार होना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने दे दिया है। उन्होंने बेटियों के साथ होने वाली आसुरी प्रवृत्तियों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि पाक्सो एक्ट के तहत बलात्कार के दोषियों को दया याचिका का अधिकार समाप्त होना चाहिए। राष्ट्रपति द्वारा स्पष्ट विचार व्यक्त करने के बाद यह संसद का दायित्व है कि वह दया याचिका के अधिकार पर विचार करे और कानून में संशोधन कर यह सुनिश्चित करे कि जघन्य अपराध के दोषियों को सजा सुनाये जाने के बाद फांसी पर लटकाया जाए। 
उधर केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने निर्भया कांड के दोषी की दया याचिका राष्ट्रपति के पास भेजी है और इसे नामंजूर करने की सिफारिश की है। दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने भी इस दया याचिका को ठुकराते हुए फाइल केन्द्रीय गृह मंत्रालय को भेजी थी। राष्ट्रपति संविधान के संरक्षक हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जघन्य अपराधों के दोषियों की दया याचिकाएं ठुकरा दी थीं। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति के उन अधिकारों को परिभाषित किया गया है जिसके तहत वह किसी अपराधी की सजा को कम, माफ या स्थगित कर सकते हैं। 
यह विडंबना ही है कि देश में न्याय को अपराध के विभिन्न धरातलों की कसौटियों पर कसना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारे यहां पुलिस व्यक्ति की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक हैसियत के हिसाब से दोषी ठहराने में भेद करती है। यह एक मानवीय पहलू हो सकता है लेकिन देखना होगा कि अपराध कितना घिनौना है। निर्भया कांड के दोषियों को जल्द फांसी देकर ही देश के आक्रोश को शांत किया जा सकता है।
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