ठाकरे बंधुओं का ‘मिलन’
महाराष्ट्र की राजनीति में एक बड़ा घटनाक्रम उस वक्त देखने को मिला जब शिवसेना (यूबीटी) के प्रमुख उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे ने लगभग 20 साल बाद मंच साझा किया। यह जश्न महाराष्ट्र सरकार द्वारा विवादास्पद त्रिभाषा नीति के सरकारी आदेश को वापस लेने के फैसले के बाद आयोजित किया गया। इस विजय रैली ने जहां एक तरफ मराठी अस्मिता और भाषा अधिकारों के मुद्दे को फिर से केन्द्र में ला दिया वहीं दूसरी ओर आगामी मुम्बई महानगर पालिका चुनावों और अन्य स्थानीय निकायों में संभावित गठबंधन को लेकर अटकलों का बाजार भी गर्म हो चुका है। एक बड़ी हिन्दी भाषी आबादी होने के बावजूद महाराष्ट्र में हिन्दी को लेकर विरोध को हवा मिलती रही है।
वजह है मराठी पहचान पर ज़ोर, स्थानीय राजनीतिक दल इसे मुद्दा बनाते आए हैं। महाराष्ट्र में ये हिंदी विरोध आज की बात नहीं है, बल्कि ये पचास के दशक से चला आ रहा है, जो सियासी वजहों से रह-रहकर उफ़ान मारता रहा है। पचास के दशक में तत्कालीन बॉम्बे स्टेट जिसमें आज का गुजरात और उत्तर-पश्चिम कर्नाटक भी आता था, वहां एक अलग मराठी भाषाई राज्य बनाने की मांग को लेकर संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन शुरू हुआ। साठ के दशक में आंदोलन का असर दिखा। संसद ने मुम्बई पुर्नगठन कानून पास किया जिसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात दो अलग राज्य बने। इसके छह साल बाद जब बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना की तो उनका घोषित लक्ष्य था, बैंक की नौकरियों और कारोबार में दक्षिण भारतीयों और गुजराती लोगों के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ मराठी मानुष को संरक्षण देना। मराठी भाषा, मराठी अस्मिता और मराठी लोगों के मुद्दे उठाकर शिवसेना ने महाराष्ट्र में गहरी पैठ बना ली। अस्सी के दशक में शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने दक्षिण भारतीयों और उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी उत्तर भारतीयों के खिलाफ लगातार रैली और आंदोलन किए। शिवसेना सत्ता में आई तो उसने दुकानों और संस्थानों में मराठी नेम प्लेट लगानी अनिवार्य कर दीं। बैंकों और सरकारी दफ्तर में भी मराठी में काम शुरू करवाया।
शिवसेना यूबीटी के कार्यकर्ताओं ने एक दुकानदार को इसलिए पीटा क्योंकि वह मराठी नहीं बोल पाया था। मुम्बई आैर महाराष्ट्र में उत्तर भारत के लोगों को पहले भी मारा-पीटा जाता रहा। ठाकरे बंधुओं के मिलन से पहले मनसे कार्यकर्ताओं ने उद्योगपति सुशील केडिया के कार्यालय में तोड़फोड़ की क्योंकि उन्हाेेंने भी मराठी नहीं सीखने की बात कही थी। दिक्षण भारत में भी हिन्दी के विरोध में मोर्चाबंदी कर रखी है। ठाकरे बंधुओं का मेल-मिलाप विशुद्ध राजनीतिक कारणों से है, लेकिन दोनों ने मराठी गौरव को अपनाया और एक बार फिर हिन्दी के विरोध को हवा दी। यह कैसा तर्क है कि दोनों को हिन्दू हिन्दोस्तानी तो स्वीकार्य है, लेकिन हिन्दी नहीं। दरअसल भाषा का मुद्दा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को भाजपा के खिलाफ एकजुट करता है। महाराष्ट्र की सरकार ने विरोध को देखते हुए पहली से पांचवीं कक्षा के छात्रों के लिए हिन्दी को अनिवार्य भाषा बनाने का आदेश बढ़ते राजनीतिक विरोध के चलते वापस ले लिया।
देश में लगभग 65 करोड़ भारतीय हिन्दी जानते हैं, पढ़ते हैं और बोलते हैं। अहिन्दी भाषी राज्यों के राजनीतिज्ञ, कलाकार, लेखक हिन्दी सीखते हैं और बोलने का अभ्यास करते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिन्दी में डब कर रिलीज किया जाता है और नामी गिरामी दिक्षण भारतीय फिल्म स्टारों की राष्ट्रीय छवि हिन्दी के माध्यम से ही बनी है। मुम्बई फिल्म उद्योग भी हिन्दी सिनेमा के सहारे ही करोड़ाें रुपए का व्यापार करता है। सवाल यह है कि फिर हिन्दी का इतना तीखा विरोध क्यों?
उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के मेल-मिलाप से महाराष्ट्र की राजनीति में समीकरण बदल सकते हैं। खासकर मुंबई, पुणे, नासिक और ठाणे जैसे मराठी-बहुल शहरी क्षेत्रों में, जहां दोनों दलों का मजबूत जनाधार रहा है। वर्ली, सेवरी, लालबाग, परेल, वडाला, भायखला, भांडुप, विक्रोली और चेंबूर जैसे इलाकों में यह तालमेल काफी असर डाल सकता है, ये ऐसे इलाके हैं, जहां इन दोनों पार्टियों के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिलती है। ठाकरे ब्रदर्स के साथ आने से उनका वोट बैंक मजबूत होगा, जिससे उन्हें इन क्षेत्रों में जबरदस्त बढ़त मिल सकती है हालांकि ये गठबंधन आसान नहीं होगा। दोनों पार्टियों की विचारधाराएं, सांगठनिक संरचनाएं और अतीत की प्रतिद्वंद्विता अलग-अलग रही है। सीट बंटवारे से लेकर नेतृत्व के मुद्दों तक कई चुनौतियां सामने आ सकती हैं। दोनों नेताओं को एकसाथ आने के लिए आंतरिक असंतोष और प्रतिस्पर्धी महत्वाकांक्षाओं को खत्म करना होगा। वर्ली की रैली, दरअसल इस बात का भी लिटमस टेस्ट था कि क्या ठाकरे बंधु मराठी जनमत को एकजुट कर सकते हैं। फिलहाल दोनों ने अपने कोर वोट बैंक को साधने की कोशिश की है लेकिन हिन्दी विरोध के नाम पर हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता। अब सबकी नजर ठाकरे बंधुओं की अगली राणनीति पर है। देखना होगा कि अब महाराष्ट्र की सियासत क्या करवट लेते हैं?