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दूध, ट्रैक्टर और गोवंश

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10:08 AM Jan 21, 2019 IST | Desk Team

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भारत जब 1947 में आजाद हुआ था तो देश में ट्रैक्टरों की कुल संख्या साढ़े पांच हजार के लगभग थी और आज हालत यह है कि हर वर्ष लगभग पांच लाख नये ट्रैक्टर किसान खरीदते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि खेती-किसानी में आधुनिकीकरण इस हद तक हुआ है कि भारत के हर गांव में कृषि का कार्य  ट्रैक्टरों की मार्फत होने लगा है परन्तु सवाल यह है कि यह कार्य किसकी कीमत पर हुआ है? जाहिर है कि यह काम पारंपरिक खेती करने के तरीके के स्थान पर वैज्ञानिक तरीके अपनाने से ही हुआ है मगर इसका सीधा सम्बन्ध खेतों की पैदावार से है। भारत के किसानों ने अपने खेतों की पैदावार पिछले सत्तर सालों के दौरान लगभग चार गुणा बढ़ाकर इस देश की लगभग इतने ही अनुपात में बढ़ी आबादी के लिए अन्न आत्मनिर्भरता का वातावरण बनाया है। 1947 में देश की कुल आबादी लगभग 33 करोड़ बढ़कर अब 125 करोड़ से ज्यादा हो चुकी है और भारत अनाज आयात करने वाले देश के स्थान पर अब निर्यातक देश बन चुका है।

यह सब हमने पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर श्रीमती इन्दिरा गांधी के लगातार कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाने के प्रयासों की वजह से ही किया। विकास की इस यात्रा में हमने एक तरफ कृषि पर निर्भर रहने वाले लोगों की संख्या में कमी करने का रास्ता औद्योगीकरण की गति तेज करके निकाला और दूसरी तरफ कृषि की लागत को कम करने के उपाय इस क्षेत्र को सब्सिडी देकर शुरू किये। यह पं. नेहरू की ही दूरदृष्टि थी कि उन्होंने एक तरफ विदेशी मदद से औद्योगीकरण की रफ्तार बढ़ाई और दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र को सब्सिडी दी तथा किसानों को गाैवंश का उपयोग दुग्ध उत्पादन के लिए करने की नीतियां निर्धारित कीं। खेती में बैलों के कम होते उपयोग को देखते हुए ही इंदिरा गांधी ने एक तरफ जहां कृषि क्रान्ति की शुरूआत की वहीं दूसरी तरफ श्वेत क्रान्ति का बिगुल बजाया।

हालांकि सहकारी क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने का कार्य स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय से ही गुजरात में शुरू हो चुका था और सरदार पटेल ने भी इसे पूरा समर्थन दिया था परन्तु दुग्ध उत्पादन में बढ़ौतरी का आन्दोलन साठ के दशक में कृषि क्रान्ति के समानान्तर ही शुरू हुआ जिसके चलते आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध व सह उत्पादों का उत्पादक देश है परन्तु भारत के किसानों ने गाैवंश का उपयोग अधिकाधिक दुग्ध उत्पादन में करने के साथ उसके पालन व भरण-पोषण की जो अर्थव्यवस्था विकसित की थी उसे गाैरक्षा के अति उत्साह में हमने इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डाला है कि आज उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में किसानों को सबसे ज्यादा डर इसी गाैवंश से खेतों में खड़ी अपनी फसलों को बचाने का पैदा हो गया है।

इस राज्य के हर कस्बे से लेकर गांव तक में आज दूध देना बन्द करने वाली गायों और बछड़ाें के साथ ही बिजारों को भी किसान अपने घर से बाहर करने पर न केवल मजबूर हो रहे हैं बल्कि सरकारी सजा के खौफ से भी भयभीत हो रहे हैं। राज्य के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने विगत दिसम्बर महीने में फरमान जारी कर दिया कि ऐसी सभी गायों और गाैवंश को गाैशालाओं में ही रखा जायेगा और इसके लिए प्रत्येक पंचायत व नगर परिषद में गाैशाला स्थापित की जायेगी। सड़कों पर खुला छोड़ने वाले किसानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी। इसके लिए योगी सरकार ने आधा प्रतिशत शुल्क लगाने का भी एलान कर डाला और अन्तिम तिथि 10 जनवरी नियत कर डाली। इसका परिणाम यह हो रहा है कि राज्य के हर शहर, कस्बे से लेकर गांवों तक के रास्ते पर गाैवंश के झुंड के झुंड मंडराते हुए देखे जा सकते हैं।

दूध देना बन्द करने पर किसान या गौपालक उसका खर्चा उठाने में असमर्थ हैं और राज्य में गौशालाओं की संख्या सीमित है। अतः उनके दूध से अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक रखने वाले अब उन्हें सरकारी स्कूलों से लेकर अन्य सार्वजनिक स्थानों पर धकेल रहे हैं। गौपालकों में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग भी भारी संख्या में हैं मगर गौरक्षा के नाम पर उन्हें जिस तरह पिछले कुछ समय से घेर-घेरकर मारा जा रहा है उसकी वजह से वे पशुओं को ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने से डरने लगे हैं। इसका लाभ अब वे संस्थाएं उठा रही हैं जो पशुओं की मददगार होने का दावा करती हैं। वे किसान से एक गाय या पशु के लिए तीन से लेकर छह हजार रुपया तक वसूल करके अपने आश्रय स्थलों तक ले जाती हैं जबकि इससे पूर्व किसान दूध देना बन्द करने पर पशु को बेच कर नई गाय ले आता था और उसका दूध का कारोबार चलता रहता था।

एक गाय बीस वर्ष तक ही दूध देती है मगर दुग्ध पालकों के लिए अब ऐसी गायों को बेचना असंभव बना दिया गया है उलटे उस पर कानून से बचने के लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करके गाय से मुक्ति पाने का दबाव बढ़ गया है। गंभीर प्रश्न यह है कि यदि सरकार की यही नीति जारी रहती है तो कोई भी किसान गाय क्यों पालेगा? वह गाय के स्थान पर भैंस पालना पसन्द करेगा जिसके दूध देना बन्द करने पर भी वह उसे बेच कर नई भैंस ला सके मगर भारत की दूसरी हकीकत यह भी है कि गाय के नाम पर मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों को जहां अक्सर निशाना बना दिया जाता है वहीं ‘बीफ’ का निर्यात लगातार बढ़ा है और देश की छह बड़ी ऐसी निर्यातक कम्पनियों में से एक भी मुसलमान मालिक की नहीं है। भारत में गौ को पूज्य पशु माना गया है।

इसका सम्बन्ध भी अर्थव्यवस्था से ही जुड़ा हुआ था। कृषि प्रधान भारत में गौवंश खेती करने में सबसे अहम भूमिका निभाता था और कृषि आय से ही घर का निर्वाह होता था अतः प्रत्येक चूल्हे पर पहली रोटी गाय के नाम की बनती थी क्योंकि उसी के बूते पर अन्न उत्पादन हो पाता था। इसके साथ ही कुत्ता खेतों से लेकर गौवंश की रखवाली करता था इसलिए चूल्हे की अन्तिम रोटी उसके नाम की होती थी परन्तु अब समय बदल गया है और यह सारा काम ट्रैक्टर करता है इसीलिए किसान डीजल को सस्ता करने की मांग करते रहते हैं। सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश के बिजली मन्त्री श्रीकान्त शर्मा गांवों में दिन में भी बिजली की सप्लाई करने में समर्थ हुए हैं जिससे किसान दिन में ही ट्यूबवेल आदि चला कर सिंचाई कर लें और रात को आराम से सो सकें मगर गाय ही अब उसे रात को सोने नहीं दे रही है और वह सर्द रातों में जाग-जागकर अपने खेतों को चरने से बचा रहा है! योगी जी चिल्ला रहे हैं ‘‘गऊ हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है।’’

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