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राजनीति में धर्म का मिश्रण

04:20 AM Oct 02, 2024 IST | Aditya Chopra

लोकतन्त्र में राजनीति में जब भी धर्म या मजहब का मिश्रण होता है तो उसके परिणाम बहुत भयंकर होते हैं। भारत के सन्दर्भ में इसका रौद्र रूप हमने 1947 में राष्ट्र के दो टुकड़े होते हुए देखा। इसकी वजह यह थी कि ब्रिटिश भारत में मोहम्मद अली जिन्ना की पार्टी मुस्लिम लीग ने 1945 के प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव में इस्लाम धर्म का खुलकर उपयोग किया था और भारतीय मुसलमानों को हिन्दोस्तान के दो टुकड़े करने के लिए भरपूर तरीके से बरगलाया था। जिस संयुक्त पंजाब राज्य में 1936-37 के एसेम्बली चुनाव में लीग को केवल दो सीटें मिली थीं उसी पंजाब में 1945 के चुनावों में उसकी पार्टी की सर्वाधिक सीटें आ गई थीं। पंजाब में तो खुलकर लीगी नेताओं व उनके समर्थकों ने ‘पैगम्बर हजरत मुहम्मद सलै अल्लाह अलै वसल्लम’ के नाम पर वोट मांगे थे और मुसलमानों से कहा था कि उनका हर वोट रसूल-अल्लाह को दिया गया वोट होगा और जो लोग लीग को वोट नहीं देंगे वे इस्लाम की राह के नहीं हैं। जिन्ना की पार्टी ने इन चुनावों में जो-जो कहा था उसे यहां लिखना इसलिए असंभव हो क्योंकि जिन्ना ने पाकिस्तान सिर्फ गांधी जी से विरोध के चलते ही नहीं बल्कि अंग्रेज सरकार के दलाल होने की वजह से बनाया था। इस काम में उसने धर्म का खुलकर प्रयोग किया जबकि बजाते खुद जिन्ना इस्लाम धर्म की किसी भी रवायत से नावाकिफ था। अतः सनद रहनी चाहिए कि 1947 में भारत का बंटवारा राजनीति में धर्म के मिश्रण की वजह से ही हुआ था। इससे पहले अगर हम दुनिया का इतिहास देखें तो 18वीं सदी में फ्रांसीसी क्रान्ति से पहले राज्य का मतलब राजा या शहंशाह ही होता था।
इस क्रान्ति के बाद ही ‘रैयत’ को ‘नागरिकों’ का दर्जा मिला और उनके अधिकारों की बात होने लगी। इस क्रान्ति ने धर्म को राज्य से अलग रखकर देखने की दृष्टि भी दुनिया को दी वरना इससे पहले की दुनिया के उस दौर को अंधेरा दौर (डार्क एजेज) कहा जाता है जब राज्य के ऊपर धर्म का प्रादुर्भाव रहता था। मगर भारत में धर्म का मतलब मजहब से नहीं होता है और धर्म को कर्त्तव्य या दायित्व के रूप में लिया जाता है। जिस प्रकार न्यायपालिका का धर्म न्याय करना होता है उसी प्रकार सैनिक का धर्म राष्ट्र की रक्षा करना होता है। अतः सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्तियों बी.आर. गवई व के.वी. विश्वनाथन ने तिरुपति बालाजी के प्रसाद लड्डू में मिलावट के सम्बन्ध में दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए जो टिप्पणी की है वह देश के राजनीतिज्ञों के मुंह पर करारे तमाचे की तरह है। विद्वान न्यायाधीशों ने टिप्पणी की कि ‘कम से कम भगवान को तो राजनीति से अलग रखिये’। राजनीति सामाजिक व आर्थिक सिद्धान्तों को लेकर होती है क्योंकि प्रजातन्त्र में नागरिकों की समस्याएं राष्ट्रीय चुनौतियों का मुकाबला करने हेतु ही विभिन्न राजनैतिक दलों का गठन किया जाता है।
भारत का संविधान बहुत स्पष्ट रूप से अपना धर्म मानने की इजाजत निजी तौर पर हर नागरिक को देता है। धर्म को भारतीय संविधान में पूरी तरह निजी मामला समझा गया है। ईश्वर और मनुष्य के बीच का सम्बन्ध उसका निजी मामला ही होता है जिसे हम आत्मा-परमात्मा भी कहते हैं। परमात्मा की प्राप्ति के लिए कोई नागरिक किस धार्मिक शैली या पूजा-पाठ को अपनाता है इसमें राज्य किसी प्रकार की दखलंदाजी नहीं कर सकता बशर्ते वह मानवता के दायरे में हो। मगर तिरुपति बालाजी के प्रसाद लड्डू के मामले में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री ने अपने राजनैतिक अंक बढ़ाने की गरज से घोषणा कर दी कि जिस घी से लड्डू तैयार किये जाते हैं वह घनघोर रूप से मिलावटी है।
मजेदार बात यह है कि जनाब नायडू साहब ने इस प्रकरण की जांच करने के लिए एक विशेष जांच दल भी गठित कर दिया। इस जांच दल की रिपोर्ट आने से पहले ही उन्होंने सार्वजनिक तौर पर बयान दे दिया कि लड्डू के घी में जानवरों की चर्बी मिली हुई है। जुलाई महीने में घी की प्रयोगशाला रिपोर्ट आयी कि यह मिलावटी है। इसके बाद आन्ध्र सरकार ने यह जांच करने लिए विशेष जांच दल का गठन कर दिया कि इस घी का प्रयोग लड्डू बनाने में हुआ है अथवा नहीं। मगर जांच का निष्कर्ष आने से पहले ही सितम्बर महीने में मुख्यमन्त्री ने पत्रकारों से कह दिया कि लड्डू में मिलावटी घी का उपयोग हुआ है। जबकि जिस घी से लड्डू तैयार किये गये थे उनमें जांच हुए घी का प्रयोग हुआ ही नहीं था।
तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट को घी सप्लाई करने वाले पांच ठेकेदार हैं। लड्डू बनाते समय इन पांचों का घी इस्तेमाल होता है। अतः यह जानना मुश्किल है कि किसके घी से लड्डू तैयार किये गये। जबकि नायडू के वक्तव्य से देश के करोड़ों लोगों की भावनाएं आहत हुईं। न्यायमूर्तियों ने सरकारी वकील से यह भी पूछा कि क्या किसी लड्डू को भी जांच के लिए भेजा गया है तो उन्हें इस बाबत कोई जानकारी ही नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय सवाल खड़ा कर रहा है कि आखिरकार सितम्बर महीने में सार्वजनिक रूप से नायडू के वक्तव्य की मंशा क्या थी? सब जानते हैं कि जून महीने से पहले आन्ध्र प्रदेश में नायडू की मुखालिफ पार्टी वाईएसआर कांग्रेस के नेता श्री जगनमोहन रेड्डी की सरकार थी। चुनावों में तेलगू देशम को तूफानी सफलता मिली जो कि नायडू की पार्टी है। क्या राजनैतिक हिसाब-किताब पूरा करने के लिए तिरुपति बालाजी के प्रसाद को केन्द्र में रखा गया। शायद इसी वजह से न्यायमूर्तियों ने नायडू सरकार के वकील से कहा कि यह सब देखते हुए क्या प्रसाद की जांच का काम किसी स्वतन्त्र जांच एजेंसी को नहीं दे दिया जाना चाहिए। इस मामले की अगली सुनवाई कल 3 अक्तूबर को ही फिर से होगी।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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