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मोदी सरकार की सौगात

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09:44 AM Feb 02, 2019 IST | Desk Team

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भारत के संविधान में जब किसी चुनी हुई सरकार को पांच वर्ष का कार्यकाल दिया जाता है तो इसका मतलब यही होता है कि वह केवल पांच बजट ही पेश करेगी मगर चुनाव ठीक पांच वर्ष बाद होने की सूरत में किसी भी सरकार को चुनाव परिणामों और नई सरकार के गठित होने की प्रक्रिया के चलते छठी बार भी सरकारी हिसाब-किताब का लेखा-जोखा पेश करना पड़ता है और नई सरकार के हाथ में वित्तीय व्यवस्था इस प्रकार देनी पड़ती है कि समूचे सरकारी ढांचे का वित्तीय पोषण होने में किसी प्रकार की कठिनाई न आये। इसी व्यवस्था को संसदीय भाषा में लेखानुदान या ‘वोट आन अकाउंट’ कहा गया मगर जब से देश में साझा सरकारों का चलन शुरू हुआ है तब से ‘वोट आन अकाऊंट’ का मतलब बदल कर ‘अकाऊंट फार वोट’ हो गया है।

दरअसल चुनावी वर्ष में पेश किये गये छठे अंतरिम बजट का सीधा सम्बन्ध चुनावों से ही होता है। यद्यपि अरुण जेटली की अनुपस्थिति में वित्त मंत्रालय का प्रभार संभालने वाले पीयूष गोयल ने किसानों, नौकरीपेशा लोगों और मध्यम वर्ग के लिये सरकार का खजाना खोल दिया है। मोदी सरकार ने लोगों को काफी कुछ दिया और लोग संतुष्ट भी नजर आ रहे हैं। नौकरीपेशा लोगों को तो कर में छूट उम्मीद से बढ़कर मिली है। विपक्ष हल्ला मचा सकता है लेकिन उसे अपने भीतर झांक कर भी देखना होगा। 1997-98 में तत्कालीन वित्त मन्त्री श्री पी. चिदम्बरम ने संयुक्त मोर्चा सरकार का आखिरी बजट इस लेवल में पेश किया था कि मानों चुनावों के वक्त मतदाता उनके द्वारा दी गई राहतों का इस कदर दीवाना हो जायेगा कि मोर्चे में शामिल विभिन्न राजनैतिक दलों की झोलियां वोटों से भर डालेगा।

भारत के लोगों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जो उन्हें मूर्ख समझने की गलती करता है उसी को वह जमकर मूर्ख बना देते हैं मगर यह काम वह इतनी तरतीब से करते हैं कि राजनीतिज्ञ भी गश खाकर गिर पड़ते हैं। ऐसा हमने 2004 में जाती हुई वाजपेयी सरकार के समय में भी देखा और 2014 में मनमोहन सिंह की सरकार के समय में भी देखा। मनमोहन सरकार के समय से ही आयकर की सीमा को बढ़ाने की मांग हो रही थी। 2014-15 का जब पहला पूर्ण बजट श्री अरुण जेटली ने पेश किया था तो लोगों को उम्मीद थी कि यह सीमा दो लाख से बढ़कर पांच लाख तक होनी चाहिए क्योंकि महंगाई के बढ़ते रहने की वजह से रुपये की क्रय क्षमता में भारी गिरावट दर्ज हो चुकी थी मगर यह कार्य मोदी सरकार ने अपने छठे बजट में किया है। इसका स्वागत है क्योंकि लोगों की जायज मांग पूरी हुई है मगर इससे सरकार को जो राजस्व हानि होगी उसे पूरा करने की जिम्मेदारी अगली सरकार की होगी। आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि आयकर छूट की सीमा बढ़ाने से लोग अधिक खरीददारी करेंगे जिससे खपत बढ़ेगी और राजस्व बढ़ेगा।

इससे सरकार को कोई नुकसान नहीं होगा। हम भारत की अर्थव्यवस्था को कयासों का बाजार नहीं बना सकते कि एक तरफ औद्योगिक विकास व प्रगति की दुहाई देते रहें और दूसरी तरफ इस प्रणाली की रीढ़ हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था दम तोड़ती नजर आये। दो हैक्टेयर भूमि तक के छोटे किसानों को छह हजार रुपये वार्षिक की मदद देने से उनके वे जख्म फिर से हरे हो सकते हैं जिन्हें वे बमुश्किल मरहम लगा कर छिपाये हुए हैं। एक एकड़ जमीन की जुताई-बुवाई, सिंचाई आदि पर वार्षिक खर्च कम से कम 20 हजार रुपये आता है। एक किसान के परिवार में यदि पांच लोग भी मान लिये जायें तो वे सभी मिलकर सालभर इस पर मेहनत करते हैं। यदि इस परिवार को जीवन की न्यूनतम जरूरतें भी उपलब्ध कराई जायें तो प्रति माह खर्चा आठ हजार रुपये आता है।

इस हिसाब से दो एकड़ जमीन की जोत वाले किसान को सालाना 96 हजार रुपये की जरूरत होती है। यदि दो एकड़ जमीन पर उसका खर्चा चालीस हजार रुपये आता है तो उसे कम से कम 96 हजार रुपये तो अपनी फसल से चाहिएं। सवाल यह है कि क्या खेती इतनी लाभप्रद है कि उसे इतनी रकम मिल जाये? हकीकत यह है कि हमने कृषि क्षेत्र की पिछले तीस वर्षों से जिस प्रकार उपेक्षा की है उसी का परिणाम है कि आज किसान आत्महत्या करने के नये आंकड़े लिख रहा है। क्या यह मांग बेजा है कि किसानों को बैंकों से ऋण उस न्यूनतम ब्याज दर पर दिया जाये जितना खर्चा किसी बैंक को चलाने भर पर आता है और यह एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं होता क्योंकि बैंकों का कारोबार जमा राशियों पर अदा करने वाली ब्याज की दरों और दिये गये ऋणाें पर वसूली गई ब्याज की दरों पर ही निर्भर करता है। हमारी औद्योगिक प्रगति मंे क्या धरती के अन्नदाता की कोई भूमिका नहीं है ? हम हर वर्ष के बजट में किसानों को दी जाने वाली ऋण राशि को बढ़ा देते हैं मगर सकल विकास में उसकी वाजिब हिस्सेदारी तय नहीं करते।

किसान की आय बढ़ाने का रास्ता केवल समर्थन मूल्य में बढ़ौत्तरी नहीं है बल्कि समूचे औद्योगिक विकास ढांचे में कृषि मूलक उद्योगों में उसकी केन्द्रीय भूमिका निर्धारित करने पर टिकी हुई है लेकिन कैसा मंजर बना हुआ है कि किसी भी सराकर ने देश के राज्यपालों की उस रिपोर्ट की धूल उतारने की भी नहीं सोची जो कभी पंजाब के राज्यपाल श्री शिवराज पाटिल की अध्यक्षता में छोटी जोत के किसानों की समस्याओं के बारे में विचार करने के लिए गठित हुई थी। भारत के किसान के पास ही वह हुनर है जिसने नदियों के खादर में उगने वाले सरुए में रस भरकर उसे गन्ना बना दिया और चावलों में विभिन्न खुशबुएं भरकर उन्हें कभी हंसराज और केवड़े की महक से महकता बासमती चावल बना दिया और आम में न जाने कितने रस भर डाले कि उन्हें सिन्दूरी से तोतापरी और दशहरी और चौसा बना दिया। किसानों की समस्याओं से एक झटके में नहीं निपटा जा सकता फिर भी मोदी सरकार की पहल अच्छी है।

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