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मोहन भागवत : विरासत, चुनौती और दायित्व

04:03 AM Oct 09, 2025 IST | Chander Mohan

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष की विजयदशमी रैली में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने संदेश में बहुत सामंजस्यपूर्ण संदेश दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति सब तरह की विभिन्नताओं का सम्मान करती है। उनका कहना था कि अगर कोई हिन्दू कहलाने में असहज महसूस करता है तो वह ख़ुशी से खुद को ‘भारतीय’ कह सकता है। उनका यह भी संदेश था कि हिन्दू समाज को ‘हम’ और ‘वह’ की मानसिकता से खुद को अलग रखना है और समुदायों के बीच उत्तेजना फैलाना अस्वीकार होना चाहिए। संघ का प्रभाव तो पहले से ही था, पर जिस तरह भागवत उसे नई दिशा दे रहे हैं उससे प्रासंगिकता और बढ़ रही है। सोशल मीडिया और एआई के जमाने में पुराने कई विचार बदल रहे हैं। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि ख़ाकी निक्कर चले गई और जिस संगठन का नागपुर मुख्यालय सादगी के लिए जाना जाता है, ने दिल्ली में चमकता हाईटैक कार्यालय बना लिया है। समय के साथ बदलने की उनकी क्षमता से संघ के इतिहास में भागवत को विशेष स्थान मिलेगा। पहली बार लाल क़िले से देश के किसी प्रधानमंत्री ने आरएसएस की प्रशंसा की है, पर जहां इतना महत्व मिल रहा है वहां दायित्व भी बढ़ जाता है, क्योंकि जम गईं मानसिकता और विचारधाराओं को बदलना बहुत बड़ी चुनौती है।
2009 में मोहन भागवत संघ के प्रमुख बने थे। उन्हीं के कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी का उत्थान हुआ और राजनीतिक क्षेत्र में भाजपा का वर्चस्व क़ायम हो गया। इस दौरान संघ के प्रमुख लक्ष्य, धारा 370 हटाना या अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना, पूरे हो गए। यह सब काम सरकारी, संसदीय या न्यायिक कदमों से शांतिमय ढंग से पूरे हुए। आभास मिला कि भाजपा और आरएसएस के बीच पूर्ण सामंजस्य है, पूर्व में अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यहां तक कह दिया कि अब हमें संघ की ज़रूरत नहीं क्योंकि हम ‘सक्षम’ हैं, तो भागवत ने भी बताने में देर नहीं लगाई कि “सेवक में अहंकार नहीं होना चाहिए”। वह तो मोरोपंत पिंगले का ज़िक्र करते हुए कह चुके हैं कि जो सार्वजनिक जीवन में हैं उन्हें 75 वर्ष के बाद दूसरों के लिए जगह छोड़ देनी चाहिए। बाद में उन्होंने अपनी बात को कुछ संशोधित कर दिया और 75 वर्ष की आयु पार करने पर न नरेन्द्र मोदी और न ही मोहन भागवत ही रिटायर हुए है! वैसे, अगर सब कुछ सही चल रहा है तो रिटायर होने की ज़रूरत भी नहीं।
जब जेपी नड्डा जिनका कार्यकाल डेढ़ साल पहले ख़त्म हो चुका है, के उत्तराधिकारी के बारे पूछा गया कि क्या संघ से मतभेद के कारण मामला लटक रहा है तो भागवत का कटाक्ष था कि “हम तय करते तो इतना समय लगता क्या”? पर यह तो स्पष्ट है कि भागवत और उनके संगठन ने यह फ़ैसला कर लिया है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार से बेहतर विकल्प उनके पास नहीं है और वह चाहेंगे कि मोदी 2029 का चुनाव भी लड़ें। पूर्व संघ सरचालक के. सुदर्शन का वाजपेयी सरकार के साथ लगातार झगड़ा चलता रहा। उन्होंने जसवंत सिंह को वित्तमंत्री नहीं बनने दिया था। मीडिया के सामने आकर वाजपेयी और अडवाणी के इस्तीफ़े मांग लिए थे। सम्बंध बिल्कुल टूट गए और सरकार ने संघ की परवाह करना छोड़ दिया था। जसवंत सिंह को भी वित्त मंत्री बना दिया गया। पर आज दोनों संगठनों के रिश्ते ऐसे हैं कि ऐसे सीधे टकराव की कोई सम्भावना नहीं। लोकसभा चुनाव में जो धक्का पहुंचा था ने भाजपा नेतृत्व को संघ की कीमत समझा दी तो दूसरी तरफ़ संघ को भी अहसास है कि वह कभी भी ऐसी सुविधाजनक स्थिति में नहीं रहे। आरएसएस कितना बदल गया है यह इस बात से पता चलता है कि दिल्ली में शताब्दी समारोह पर मोहन भागवत ने तीन घंटे पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। के. सुदर्शन को छोड़कर अभी तक संघ प्रमुख के विचार विजयदशमी के दिन ही सुनने को मिलते थे। यह भी दिलचस्प है कि संघ प्रमुख के भाषण का अनुवाद इंग्लिश, स्पैनिश और फ्रेंच में किया गया और आमंत्रित मेहमानों में विदेशी पत्रकारों और राजदूतों में चीन के राजदूत भी मौजूद थे। अर्थात संघ अपनी छवि बदलने में लगा हुआ है कि वह कोई रहस्यमय संगठन नहीं है और दुनिया के लिए खुले हैं। यह भागवत का बड़ा योगदान है। पिछले कई महीनों से वह मुस्लिम समुदाय के नेताओं के साथ संवाद कर रहे हैं। वह कह चुके हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक जैसा है। वह यह भी कह चुके हैं कि “हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने का प्रयास नहीं होना चाहिए”। आज के माहौल में यह असाधारण साहसी बयान है। काशी और मथुरा के विवादों का ज़िक्र करते हुए उनका कहना था कि जहां संघ किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा वहां इन मंदिरों के लिए किसी भी आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए कार्यकर्ता आज़ाद हैं। इसे कहा जाता है कि ख़रगोश के साथ दौड़ भी रहे और शिकारी कुत्तों के साथ शिकार भी कर रहे हैं!
शायद वह अपने गर्म ख्याल वालों को संतुष्ट रखने की कोशिश कर रहे हैं। यह तो आभास मिलता है कि संघ अपनी छवि बदलने की कोशिश कर रहा है, पर कहीं अतीत अभी भी रुकावटें खड़ी कर रहा है। वह मुसलमानों तक पहुंचने की कोशिश तो कर रहे हैं और कहा है कि “वह हमारा हिस्सा है” पर ज़मीन पर यह सद्भावना नज़र क्यों नहीं आती?
देश के आगे बहुत चुनौतियां हैं। आपस में लड़ता-झगड़ता भारत तरक्की नहीं कर सकता। चीन हम से बहुत आगे निकल चुका है। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य हमारे विरुद्ध हो रहा है। मणिपुर अभी सम्भाला नहीं कि लद्दाख जलने लगा है। पूर्व उपकुलपति और क़ानून विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफ़ा का लिखना है, “आरएसएस चीफ़ वह व्यक्ति हैं जो ...नफ़रत और उन्माद के इस माहौल में विवेक, सहिष्णुता, भाईचारा जो हिन्दू धर्म का मूलतत्व है, को क़ायम कर सकते हैं”। मोहन भागवत की स्थिति विशिष्ट है। वह पहले संघ सरचालक हैं जिनका मुस्लिम नेताओं के साथ खुला संवाद है। उन्हें समाज को सही रखने में सक्रियता से योगदान देना होगा। सदियों से चली आ रही हमारी विभिन्नता को बचाकर रखना है। कोई भी राष्ट्र अपने अतीत की ज़्यादतियों को लेकर लगातार उबलता नहीं रह सकता। बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने औरंगजेब की कब्र खोदने की धमकी दी थी। हमने भविष्य का निर्माण करना है या गड़े मुर्दे उखाड़ने हैं? हम कब तक सदियों पुरानी शिकायतों और रोष को खाद और पानी देते रहेंगे? देश में पहले से अधिक अविश्वास, तनाव और व्यग्रता है। पिछले कुछ दिनों में कानपुर, बरेली, जालंधर, कटक आदि में साम्प्रदायिक टकराव या तनाव हो कर हटा है। मुख्य न्यायाधीश पर ‘सनातन धर्म’ के नाम पर हमले का निन्दनीय प्रयास बताता है कि धर्म के स्वयंभू ठेकेदार समाज को ग़लत रास्ते पर धकेलने की कोशिश कर रहे हैं। इसे रोकना है।
हमें आगे देखना है, पीछे नहीं, जो राजनीतिक नेता हैं, उनका दृष्टिकोण दूसरा होता है। उन्होंने चुनाव लड़ना है, वोट लेना है। हर राजनीतिक दल निंदा करते हुए भी अंग्रेजों की ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति पर चलते हैं। जाति जनगणना का यही मक़सद है, पर देश किसी भी संगठन या दल या व्यक्तित्व से ऊपर है। मोहन भागवत की ऐसी कोई राजनीतिक मजबूरी नहीं है। वह प्रमाण दे चुके हैं कि उनकी सोच संकीर्ण नहीं हैं। उन्हें उभर रही नफ़रत और असहिष्णुता को रोकने की कोशिश करनी है। वह जानते हैं कि साम्प्रदायिक झगड़े देश का अहित करते हैं, पर कहीं ‘इतिहास की हिचकिचाहट’ उन्हें रोक देती है। उनकी विरासत उनके लिए चुनौती है। उन्हें इससे ऊपर उठना है। समाज को सही दिशा कोई ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति ही दे सकता है। मुझे मोहन भागवत के सिवाय और कोई नज़र नहीं आता। यह उनका राष्ट्रीय दायित्व भी बनता है।

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