राजनीति में नैतिकता
लोकसभा में आज गृहमन्त्री श्री अमित शाह द्वारा रखे गये तीन विधेयकों के दौरान विरोधी दलों के सांसदों ने जैसा व्यवहार किया उसे किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है। इन तीन विधेयकों में एक संविधान संशोधन विधेयक है, दूसरा केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों या राज्यों के अधिनियम में संशोधन है और तीसरा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून में संशोधन है। ये तीनों ही विधेयक एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। विपक्ष इन विधेयकों का पुरजोर विरोध कर रहा है जिसके चलते उसके कुछ सदस्यों ने विधेयक की प्रतियां भी सदन के भीतर ही फाड़ डालीं। संविधान में संशोधन का विधेयक इस गरज से लाया गया है कि भारत की राजनीति में साफ-सुथरापन लाया जा सके। इस मामले में विधेयक में यह प्रावधान किया गया है कि यदि देश के प्रधानमन्त्री से लेकर राज्यों का कोई भी मुख्यमन्त्री या मन्त्री अपने ऊपर लगे ऐसे आरोपों में जिनमें पांच साल या इससे अधिक की सजा का प्रवधान हों, किसी जांच एजेंसी या पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने पर तीस दिन से अधिक तक जेल में बन्द रहता है तो 31वें दिन उसे अपने पद से हटा दिया जायेगा। वर्तमान में कोई भी मन्त्री अपने पद पर तब तक बना रह सकता है जब तक कि वह अदालत द्वारा दोषी न करार दे दिया जाये।
विपक्षी सांसदों का कहना है कि ऐसे प्रावधानों का इस्तेमाल गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमन्त्रियों या मन्त्रियों के खिलाफ किया जायेगा क्योंकि वर्तमान में उच्च जांच एजेंसियां प्रायः उन्हें ही निशाना बना रही हैं। अगर पूरे मामले को सरकार की नजर से देखा जाये तो सत्तारूढ़ दल कह रहा है कि यह राजनीति में नैतिकता स्थापित करने की तरफ कदम होगा। मगर केन्द्र सरकार तभी ऐसा कर सकती है जब संविधान के 75वें अनुच्छेद में संशोधन किया जाये। इसी अनुच्छेद में प्रधानमन्त्री समेत राज्यों के मन्त्रियों तक की नियुक्ति से लेकर उनके दायित्वों की व्याख्या की गई है। हालांकि श्री शाह ने विधेयक प्रस्तुत करते हुए यह भी कहा कि बिलों को पहले संसद की संयुक्त जांच समिति को भी प्रेषित किया जा सकता है। जाहिर है कि संसद के सावन सत्र का आज गुरुवार को अन्तिम दिन है अतः विधेयकों पर सदन के भीतर विशद चर्चा नहीं हो सकती। विपक्ष यह भी कह रहा है कि विधेयक पूरी तरह संविधान विरोधी है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है।
विपक्षी खास कर कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि सरकार ये विधेयक जानबूझ कर सत्र समाप्त होने के एक दिन पहले लेकर इसलिए आई है जिससे देश की जनता का ध्यान बिहार में हो रही मतदाता सूची में पकड़ी गई विसंगतियों से भटकाया जा सके। सभी जानते हैं कि फिलहाल विपक्ष ने इस मुद्दे को कस कर पकड़ लिया है और वह चुनाव आयोग को अपने निशाने पर लिये हुए है। भाजपा चुनाव आयोग के पक्ष में खड़ी दिखती है जिसकी वजह से विपक्ष ने अपनी लड़ाई बिहार की सड़कों पर लड़नी शुरू कर दी है। बिहार में कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी व राज्य की प्रमुख राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री तेजस्वी यादव मिलकर मतदाता पुनरीक्षण सूची के खिलाफ यात्रा निकाल रहे हैं जिसे वहां की जनता का समर्थन भी मिल रहा है। राजनीतिक गलियारों में चल रही यह चर्चा कि बिहार में अगले दो महीने बाद होने वाले चुनावों को देखकर ही सारी कवायद हो रही है, तथ्यों को निरपेक्ष नहीं रहने दे रही है। मगर असली सवाल यह नहीं है बल्कि यह है कि राजनीति को शुद्ध बनाये रखने के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए? कानून विद यह अच्छी तरह जानते हैं कि यदि कोई सांसद या विधेयक ऐसे जुर्म में पकड़ा जाए कि उसे दो वर्ष से अधिक की सजा हो तो उसकी अपने सदन से सदस्यता चली जाती है। यह कानून पहले से ही मौजूद है। मगर इसके चलते भी संसद व विधानसभाओं में आरोपित सदस्यों की कमी नहीं है। विभिन्न अदालतों से जमानत पर छूटे नेतागण भी चुने हुए सदनों में विद्यमान हैं।
अमित शाह यदि यह चाहते हैं कि आरोप लगने के स्तर पर पुलिस द्वारा 30 दिन से अधिक तक गिरफ्तार किये गये नेताओं को इसी स्तर पर सदन की सदस्यता से बेदखल कर दिया जाये तो इसे नैतिक रूप से हम कितना उचित या अनुचित मानेंगे, इस पर देश की न्यायपालिका ही अन्तिम फैसला दे सकती है। मगर संसद के भीतर इस मुद्दे पर जो भी घटा है उसे कम से कम उचित तो नहीं माना जा सकता। संसद के पूरे वर्तमान सत्र में अभी तक केवल ऑपरेशन सिन्दूर पर ही रचनात्मक बहस हो पाई है। विपक्षी दल बिहार में हो रही मतदाता पुनरीक्षण सूची पर पहले दिन से ही बहस कराने की मांग कर रहे हैं जिसकी उन्हें अनुमति नहीं मिल रही है अतः संसद का पूरा सत्र भारी शोर- शराबे में ही निकला जा रहा है परन्तु पक्ष-विपक्ष के सभी सांसदों को यह विचार करना होगा कि जब कोई मन्त्री या मुख्यमन्त्री को भ्रष्टाचार के आरोपों में जांच एजेंसियों द्वारा गिरफ्त में ले लिया जाता है तो सार्वजनिक जीवन में उसकी नैतिक जिम्मेदारी क्या बनती है? इस प्रश्न का सम्बन्ध सीधे वर्तमान राजनीतिक चरित्र से जाकर जुड़ता है। अतः सवाल दीगर है कि राजनीति में पहले शुद्धता को स्थापित किया जाये। श्री शाह ने जो संविधान संशोधन पेश किया है उसे पारित कराने के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत पड़ेगी। इतना बहुमत मोदी सरकार के पास नहीं है। इसके साथ ही देश के आधे राज्यों से भी इस विधेयक को स्वीकृत कराना पड़ेगा। अतः हो सकता है कि इस मुद्दे पर आगे चल कर पूरे देश में बहुत गर्मागरम बहस हो।