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थम नहीं रही मॉब लिंचिंग

2019 में जून माह के अंत तक पहुंचते-पहुंचते भीड़ हिंसा से जुड़ी हुई 11 घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें 4 लोगों की मौत हुई और 22 अन्य घायल हुए। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में घृणा के चलते हिंसा की 297 घटनाएं हुईं।

03:58 AM Jun 27, 2019 IST | Ashwini Chopra

2019 में जून माह के अंत तक पहुंचते-पहुंचते भीड़ हिंसा से जुड़ी हुई 11 घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें 4 लोगों की मौत हुई और 22 अन्य घायल हुए। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में घृणा के चलते हिंसा की 297 घटनाएं हुईं।

2019 में जून माह के अंत तक पहुंचते-पहुंचते भीड़ हिंसा से जुड़ी हुई 11 घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें 4 लोगों की मौत हुई और 22 अन्य घायल हुए। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में घृणा के चलते हिंसा की 297 घटनाएं हुईं। इनमें 98 लोग मारे गए और 722 घायल हुए। आंकड़ों के अनुसार इनमेें से ज्यादातर पीड़ित मुस्लिम समुदाय से हैं और 28 फीसदी मामले  पशु चोरी या पशु हत्या के आरोप से जुड़े हैं। 
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गौवंश की चोरी या हत्या के नाम पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। झारखंड में भीड़ की हिंसा का शिकार हुए तबरेज अंसारी की मौत ऐसी ही घटनाओं की एक और कड़ी है। जो वीडियो वायरल हुआ है उसमें कुछ लोग पीड़ित को जय श्रीराम और जय हनुमान बोलने के लिए मजबूर करते दिख रहे हैं। क्या तबरेज अंसारी की हत्या भीड़ के बहाने अल्पसंख्यकों को शिकार बनाने का एक और सबूत नहीं है? बुलन्दशहर में छेड़छाड़ का विरोध करने पर एक युवक ने प्रदर्शनकारी महिलाओं पर अपनी कार चढ़ा दी जिसमें 2 महिलाओं की मौत हो गई। समाज कितना खौफनाक होता जा रहा है कि हर कोई कानून को अपने हाथ में लेने लगा है। न पुलिस का कोई खौफ और न ही कानून का। प्राचीनकाल से हम सत्य, अहिंसा और शांति के पुजारी रहे हैं। 
यह हमारी कमजोरी भी रही है। कमजोरी इसलिए कि इस रीति-नीति को विदेशी आक्रांताओं ने हमारी कमजोरी समझ आक्रमण किया और हम पर शासन किया। भारत ने सम्राट अशोक, गौतमबुद्ध, महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों के विचारों को आत्मसात किया। हमने तो सत्, अहिंसा की राह पर चलकर आजादी हासिल की, फिर आज ऐसा क्या हो गया कि हर कोई सड़कों पर उबल रहा है। यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि समाज असहिष्णु क्यों होता जा रहा है। मानवीय संवेदनाएं समाप्त हो रही हैं। आखिर समाज असहिष्णु और संवेदनहीन क्यों हुआ? क्या इसके पीछे वोट बैंक की राजनीति नहीं? इस राजनीति ने लोगों को कहीं न कहीं धर्म, जाति और समुदाय में बांट दिया है। 
अनेक धर्मों आैर जातियों के इस विशाल देश भारत में जहां देश के विकास और प्रगति के लिए सभी वर्गों आैर समुदाय के लोगों का योगदान रहा है, दुर्भाग्यवश इस देश में घटित होने वाली आपराधिक घटनाओं को धर्म और जाति के नजरिये से देखा जा रहा है। हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बातें तो बहुत करते हैं लेकिन कहां है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। भारत में जय श्रीराम का उद्घोष शांति के लिए किया जाता है। लोग सुबह उठकर भी एक-दूसरे का अभिवादन भी जय श्रीराम के शब्दों से करते हैं लेकिन आज कुछ लोग जय श्रीराम के उद्घोष का इस्तेमाल अशांति फैलाने के लिए करने लगे हैं। जय श्रीराम बोलकर या किसी दूसरे समुदाय से जबरन बुलवाए जाने और एेसा नहीं करने पर मारपीट करने और यहां तक कि हत्याएं करना लोकतंत्र में सहन किया जा सकता है। श्रीराम तो हमारे रोम-रोम में हैं, फिर उनके नाम पर घृणित हत्याएं क्यों? श्रीराम बोलकर नाग​िरक समाज पर आघात क्यों पहुंचाया जा रहा है। समाज मूल्यों और नैतिकता की खुल्लम-खुल्ला धज्जियां उड़ा रहा है।
 समाज में ऐसे तत्वों की कमी नहीं जो किसी न किसी संगठन से जुड़कर अपना रोब जमाकर बहुत कुछ कब्जाना चाहते हैं। इसके लिए वे धर्म-जाति का सहारा लेने से नहीं चूकते। आज नाममात्र के संगठन हैं, जो पीट-पीटकर मार डालने के खिलाफ हैं या जो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के पक्षधर हों। मानवाधिकार कार्यकर्ता अगर आवाज बुलन्द करते भी हैं तो उन पर राष्ट्र विरोधी होने का आरोप लगा दिया जाता है। दरअसल धार्मिक उद्घोषों और प्रतीकों का इस्तेमाल पहले से  कहीं अधिक बढ़ गया है। इन प्रतीकों का इस्तेमाल अपने-अपने धर्म का वर्चस्व स्थापित करने के लिए किया जा रहा है और वोटों के लिए ध्रुवीकरण किया जाने लगा है, इसलिए समाज निष्ठुर हो रहा है। अगर कोई व्यक्ति चोरी करता है या कोई अपराध करता है तो उसके लिए कानून है। 
अगर तबरेज के पास चोरी की मोटरसाइकिल थी तो उसकी जांच के लिए पुलिस थी। उसको पेड़ से बांधकर पीट-पीटकर मार डालना कहां का इन्साफ है? जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग को रोकने के उपायों के बतौर कई निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक निर्देश जारी किए थे और कहा था कि हमलावरों को याद रखना होगा कि वे कानून के अधीन हैं और वे धारणाओं या भावनाओं या विचारों या इस विषय में आस्था से निर्देशित नहीं हो सकते। मॉब लिंचिंग की घटनाएं थम इसलिए नहीं रहीं क्योंकि हमारी पुलिस भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रही। पुलिस कर्मचारी भी जाति और धािर्मक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। काश! पुलिस ने तबरेज का ठीक समय अस्पताल में इलाज कराया होता तो उसकी जान बच जाती। ऐसे पुलिसकर्मियों को दंडित किया ही जाना चाहिए आैर तबरेज के हत्यारों के विरुद्ध भी कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
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