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मुस्लिम वक्फ बोर्ड और बिहार

06:53 AM Jul 01, 2025 IST | Aditya Chopra
मुस्लिम वक्फ बोर्ड और बिहार

नये मुस्लिम वक्फ बोर्ड कानून को लेकर जिस प्रकार की राजनीति हो रही है वह देश के हित में नहीं है। यह कानून इसी वर्ष मोदी सरकार ने संसद में विधेयक पारित करा कर बनाया था। इसके विरोध में बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में कल एक रैली का आयोजन किया गया। यह रैली ‘इमारते शरीया’ मुस्लिम संगठन की ओर से आयोजित की गई थी। इसका समर्थन प्रमुख विपक्षी दलों ने प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किया। भारत में रक्षा मन्त्रालय व रेलवे के बाद सर्वाधिक जमीन लगभग नौ लाख एकड़ बोर्ड के पास है। सवाल यह है कि इतनी बड़ी सम्पत्ति व जायदाद को संभालने के लिए क्या धर्मनिरपेक्ष भारत में किसी एक ही धर्म के मानने वाले लोगों को अधिकृत किया जा सकता है? सरकार ने नये कानून में ऐसे प्रावधान किये हैं जिससे वक्फ बोर्ड के प्रशासन में गैर मुस्लिम पदेन व्यक्तियों को भी रखा जा सके। जैसे यदि किसी जिले का जिलाधीश गैर मुस्लिम है तो वह जिले में वक्फ की सम्पत्तियों की देखभाल के लिए बोर्ड में नियुक्त किये गये लोगों का मुखिया होगा।

इसमें किसी भी मुस्लिम नागरिक को क्या आपत्ति हो सकती है। मगर कल पटना की रैली में विभिन्न वक्ताओं द्वारा जो उद्गार व्यक्त किये गये उन्हें भारत की एकता के हित में नहीं कहा जा सकता। मगर इससे भी ऊपर सबसे बड़ा सवाल यह है कि 1947 में जब भारत के दो टुकड़े केवल मजहब के आधार पर ही किये गये तो वह जमीन किसकी थी? पूरे पाकिस्तान की जमीन भी तो तब भारत व भारतीयों की थी। अतः पाकिस्तान बनाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान किस आधार पर बनाया? इस सिलसिले में यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 40 के दशक में जब जिन्ना की मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग से पाकिस्तान बनाने की मुहीम छेड़ी तो यह प्रस्ताव आया कि इस मुद्दे पर जनमत संग्रह या रायशुमारी कराई जाये। महात्मा गांधी इसके लिए राजी थे मगर उनकी यह शर्त थी कि रायशुमारी में सभी हिन्दू-मुसलमान शामिल किये जाने चाहिए। मगर जिन्ना चाहते थे कि रायशुमारी केवल मुस्लिम नागरिकों के बीच ही हो। इस पर महात्मा गांधी किसी सूरत में भी राजी नहीं थे।

अतः रायशुमारी का विकल्प समाप्त हो गया और अंग्रेजों ने जिन्ना के साथ साजिश करके पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम बहुल राज्यों पंजाब व बंगाल का बंटवारा करके करा दिया। मुस्लिम वक्फ बोर्ड संशोधन अधिनियम में ऐसा क्या है जिसे विपक्षी दलों के गठबन्धन इंडिया का समर्थन मिल रहा है। धर्मनिरपेक्षता कभी भी इकतरफा नहीं हो सकती। 1954 में पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने बोर्ड का गठन किया और बीच-बीच में इसमें संशोधन होते रहे मगर पीवी नरसिम्हा राव के शासन काल के दौरान इसमें जो संशोधन किया गया उससे वक्फ बोर्ड के पास यह अधिकार आ गया कि वह जिस जमीन को चाहे वक्फ की जमीन घोषित कर सकता है। नरसिम्हा राव ने इस कानून में तब संशोधन किया था जब 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था। अपने प्रति मुसलमानों की सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य से यह कार्य किया गया था। मैं इसके तकनीकी कानूनी पहलुओं पर नहीं जा रहा हूं मगर इतना कहना चाहता हूं कि यह कानून इकतरफा हो गया था। बाद में इसी कानून में कुछ संशोधन डा. मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार के कार्यकाल में भी किये गये। प्रश्न यह है कि भारत की पूरी जमीन किसकी है ? यह जमीन भारत के लोगों की है जिसका प्रबन्धन उन्हीं के द्वारा चुनी गई सरकारें करती हैं।

मगर बिहार में आगामी नवम्बर महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और मुसलमान मतदाताओं की संख्या यहां काफी है इसलिए चुनावी समीकरणों को देखते हुए विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी चौसर बिछाने में लगे गुए हैं। बिहार के प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दल राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने तो गांधी मैदान की रैली में यहां तक कह दिया कि यदि चुनावों के बाद उनके गठबन्धन की सरकार सत्ता में आयी तो वह इस कानून को कूड़ेदान मे फेंक देंगे। ऐसा कह कर राज्य के पूर्व उपमुख्यमन्त्री ने संसद की अवमानना करने का काम ही किया है क्योंकि संसद के दोनों सदनों ने नये कानून को बहुमत से बनाया है और तत्सम्बन्धी विधेयक को पारित करते समय राज्यसभा में भी पूरी बहस हुई।

वक्फ बोर्ड का मुख्य कार्य अल्लाह के नाम पर दान की गई जमीन का सदुपयोग समाज के हित में करने का है मगर इसके विपरीत वक्फ की जमीनों पर माफिया की तरह कुछ चन्द लोगों ने कब्जा जमाया हुआ है। अतः नये वक्फ कानून के विरोध में जाने वाले दलों को सोचना होगा कि वे जो कार्य कर रहे हैं क्या यह धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा नहीं देगा? हिन्दू और मुसलमान भारत के ही नागरिक हैं और सभी के बराबर अधिकार भी हैं। मगर बिहार में श्रीमान लालू यादव की पार्टी का जो वोट बैंक माना जाता है वह मुस्लिम-यादव गठजोड़ है। अतः आसानी से समझा जा सकता है कि उनके पुत्र तेजस्वी यादव की क्या मंशा है। वह यह कार्य अपने मूल वोट बैंक को साधे रखे रहने की वजह से ही कर रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में श्री लालू यादव की पार्टी की सीटें भाजपा की सीटों से मात्र एक ज्यादा थी। इसके साथ ही बिहार में चुनाव जातिगत आधार पर ज्यादा लड़े जाते हैं । मगर वक्फ बोर्ड कानून का आंखें मीच कर इकतरफा विरोध करने की जवाबी प्रतिक्रिया भी तो हो सकती है?

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