मुस्लिम वक्फ बोर्ड और कानून
सर्वोच्च न्यायालय ने संसद द्वारा बनाये गये मुस्लिम वक्फ संशोधन कानून को वैध रखा है मगर इसके कुछ प्रावधानों में किये गये संशोधनों पर अन्तरिम रोक भी लगा दी है। देश की सर्वोच्च अदालत के इस फैसले का दोनों ही वादी व प्रतिवादी पक्षों ने सशर्त समर्थन भी किया है। इससे लगता है कि अदालत ने बीच का रास्ता अपनाया है और अपने फैसले में सन्तुलन बनाये रखने का प्रयास किया है। वैसे यह प्रश्न अपनी जगह खड़ा हुआ है कि सरकारी सम्पत्तियों पर मुस्लिम वक्फ बोर्ड अपना दावा किस प्रकार ठोक सकता है जबकि सभी सम्पत्तियों पर लोकतन्त्र में जनता द्वारा चुनी गई सरकार का ही अन्तिम अधिकार होता है। सवाल यह भी जायज है कि जब 1947 में सिर्फ मजहब के आधार पर भारत को दो टुकड़ों में बांट कर पाकिस्तान का निर्माण किया गया था तो यह किसकी जमीन पर हुआ था। पाकिस्तान का निर्माण हिन्दोस्तान की जमीन पर ही किया गया था और यह जमीन वक्फ की नहीं थी। इसलिए भारत ने 1947 में ही मजहबी दीवारों की बहुत बड़ी कीमत चुकायी है जिन्हें अब किसी कीमत पर आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
सवाल हिन्दू-मुसलमान का नहीं है, बल्कि भारत की अस्मिता का है और भारत की अस्मिता कहती है कि हिन्दोस्तान सभी का है जिनमें हिन्दू-मुस्लिम सभी शामिल हैं। वक्फ की सम्पत्तियों का हिसाब देने से कोई फायदा नहीं है, बल्कि भारत के मुसलमानों की माली स्थिति का हिसाब देने से ही फायदा हो सकता है और हकीकत यह है कि भारत के 90 प्रतिशत मुसलमान फटेहाल हैं। वक्फ की अकूत सम्पत्ति से इन्हें कितना लाभ मिला इसका हिसाब कौन पूछेगा ? जहां तक वक्फ संशोधन अधिनियम का सवाल है तो सर्वोच्च अदालत ने अन्तरिम फैसला दिया कि केन्द्रीय वक्फ बोर्ड में अधिकतम चार और राज्य बोर्ड में अधिकतम तीन गैर मुस्लिम सदस्य होंगे और इनके चेयरमैन पदों पर मुस्लिम नागरिकों की नियुक्ति को ही तरजीह दी जायेगी। अदालत ने संशोधित अधिनियम की धारा 3(1)(आर) पर रोक लगा दी। कानून में संसद ने संशोधन करके यह अनिवार्य किया था कि वक्फ सिर्फ वही व्यक्ति बना सकेगा जो पिछले पांच साल से इस्लाम धर्म का अनुसरण कर रहा होगा। अदालत ने आदेश दिया कि इस कानून पर तब तक रोक रहेगी जब तक कि राज्य या केन्द्र सरकार इस बारे में कोई पुख्ता नियम या कानून नहीं बना देतीं। इसके साथ ही अदालत ने कानून की धारा 3 सी(2) के उस प्रावधान पर भी रोक लगा दी जिसमें किसी सम्पत्ति के अतिक्रमण के आरोप में विवाद पैदा होने पर उसे तब तक वक्फ की सम्पत्ति नहीं माना जायेगा जब तक कि सरकारी अधिकारी उस पर अन्तिम रिपोर्ट न लगा दे। इसके साथ ही सरकारी अधिकारी द्वारा वक्फ की सम्पत्ति को सरकारी घोषित करने पर तद्नुसार सरकारी अभिलेखों में सुधार करने सम्बन्धी संशोधन को निरस्त रखा गया है। विधेयक में प्रावधान किया गया था कि राज्य सरकार को भी इस बारे में रिपोर्ट पेश करनी होगी। इसी कानून में यह प्रावधान भी किया गया था कि सरकारी अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद राज्य सरकार अभिलेखों में तत्सम्बन्धी सुधार करने के आदेश देगी।
न्यायालय ने सरकारी अधिकारी की रिपोर्ट को अन्तिम मानने से इन्कार कर दिया है। मुस्लिम संस्थाएं शोर मचा रही थीं कि संशोधित कानून में सरकारी अधिकारी या जिला मैजिस्ट्रेट को असीमित अधिकार दे दिये गये हैं जिसकी वजह से वक्फ बोर्ड की ताकत के कोई मायने नहीं रहेंगे। शीर्ष अदालत का कहना था कि किसी भी कानून के लिए संवैधानिकता सबसे बड़ा पैमाना होता है अतः सरकारी अधिकारी को केवल संविधान के दायरे में ही काम करने के अधिकार दिये जा सकते हैं लेकिन आजादी के बाद से वक्फ बोर्ड कानून में कई बार संशोधन हो चुके हैं। मगर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद इसमें जिस प्रकार के संशोधन तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने किये थे, उनसे वक्फ बोर्ड की समानान्तर स्वतन्त्र सत्ता कायम हो गई थी। इन संशोधनों के बाद बोर्ड को असीमित राजस्व अधिकार दे दिये गये थे और अदालतों के हस्तक्षेप को बहुत सीमित कर दिया गया था।
यही वजह है कि देश के मुस्लिम संगठन सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले से भी पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हैं और वे कह रहे हैं कि उनकी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक कि नया संशोधन कानून पूरी तरह निरस्त नहीं हो जाता। क्योंकि सर्वोच्च अदालत ने वक्फ बाई यूजर अर्थात उपोयगकर्ता द्वारा वक्फ की अवधारणा को समाप्त करने का समर्थन किया है। संसद द्वारा पारित अधिनियम में यह कहा गया है कि उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ की अवधारणा मूलतः कानून या संविधान विरोधी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संशोधन को उचित माना है और कहा है कि यह मनमाना कदम नहीं है। अदालत ने कहा कि यदि सरकार को यह पता चलता है कि प्रयोगकर्ता द्वारा वक्फ की अवधारणा से बड़ी संख्या में सरकारी सम्पत्तियों पर अतिक्रमण किया गया है तो इस प्रावधान को खत्म करना किस प्रकार मनमाना करार दिया जा सकता है। मगर साथ ही अदालत ने लोकतन्त्र और संवैधानिक व्यवस्था के तहत शक्तियों के पृथकीकरण पर भी जोर दिया है और कहा है कि जिला कलेक्टर को नागरिकों की सम्पत्ति के अधिकार तय करने का हक नहीं दिया जा सकता। कार्यपालिका यह काम नहीं कर सकती। भारत में नागरिकों का सम्पत्ति का अधिकार संवैधानिक अधिकार है। अतः सम्पत्ति के मामले में अदालतों के आदेशों को अन्तिम माना जाना चाहिए और वक्फ सम्पत्ति के सन्दर्भ में ट्रिब्यूनल या उच्च न्यायालय के आदेश को।