भारत-चीन में आपसी सहयोग
बदलते राजनैतिक व आर्थिक विश्व पटल पर हमें चीन के साथ अपने सम्बन्धों…
बदलते राजनैतिक व आर्थिक विश्व पटल पर हमें चीन के साथ अपने सम्बन्धों की समीक्षा करनी होगी और एेसा रास्ता ढूंढना होगा जिससे भारत के पड़ोसी देश के रूप में चीन अपनी विस्तारवादी मानसिकता को परे रख सके। निश्चित रूप से चीन भारत के सन्दर्भ में एक आक्रमणकारी देश रहा है क्योंकि 1962 में उसकी सेनाएं हमारे असम राज्य के तेजपुर तक पहुंच गई थीं जिन्हें चीन ने अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते वापस सीमाओं के करीब बुलाया था परन्तु अब भारत 1962 का भारत नहीं है और न ही चीन विशुद्ध रूप से साम्यवादी विचारधारा का वैचारिक राष्ट्र है। वैश्विक आर्थिक उदारीकरण के चलते बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में राष्ट्रीय हितों की परिभाषाएं भी बदली हैं और सामरिक शक्ति के स्थान पर आर्थिक शक्ति ने भी पद-चाप की है।
भारत को अपने आर्थिक सामर्थ्य के नजरिये से चीन को परखना होगा और फिर उसे आपसी सहयोग के रास्ते पर लाना होगा। 2003 में तिब्बत को चीन का स्वायत्तशासी क्षेत्र स्वीकार कर लेने के बाद भारत व चीन के सम्बन्धों में जो गुणात्मक परिवर्तन आना चाहिए था वह उसके सैनिक रवैये के कारण नहीं आ सका है जिसका उदाहरण जून 2020 में उसके द्वारा लद्दाख में किया सैनिक अतिक्रमण है। इस मोर्चे पर भारत व चीन के सैनिक कमांडरों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है जिसके परिणामों से अब दोनों देश सीमा पर शान्ति व सौहार्द बनाये रखने को राजी हो रहे हैं। हाल ही में दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग शहर में जी-20 देशों के सम्मेलन के अवसर पर भारतीय विदेश मन्त्री एस. जयशंकर व चीनी विदेश मन्त्री वांग-ई के बीच हुई आधे घंटे की द्विपक्षीय वार्ता जिस सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुई उसका स्वागत इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि दोनों देश विभिन्न नागरिक क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए राजी हुए हैं। इनमें सीधी हवाई सेवा व कैलाश मानसरोवर यात्रा शुरू करने के प्रस्ताव हैं। जहां तक दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारण का सवाल है तो इस बारे में 2005 में बना उच्च स्तरीय वार्ता दल काम कर रहा है जिसकी अभी तक डेढ़ दर्जन से अधिक बार बैठकें हो चुकी हैं। चीन के साथ सीमा का नियमन न होना भारत को अंग्रेज विरासत में देकर गये क्योंकि भारत, तिब्बत व चीन के बीच खिंची मैकमोहन रेखा को चीन ने कभी स्वीकार ही नहीं किया। यह रेखा अंग्रेज सरकार ने चीन व तिब्बत के प्रतिनिधियों के साथ बैठकर 1914 में खींची थी, जिसे चीन ने तभी अस्वीकार कर दिया था और कहा था कि तिब्बत को वह स्वतन्त्र देश स्वीकार नहीं करता है और उसे अपना हिस्सा मानता है। चीन के प्रतिनिधि ने 1914 में हुई बैठक से वाकआऊट कर दिया था। मगर इस घटना को हुए अब एक सौ साल से अधिक का समय बीत चुका है और इस बीच भारत व चीन दोनों स्वतन्त्र राष्ट्र भी बन चुके हैं और 1962 में चीन भारत पर आक्रमण भी कर चुका है। अतः इस मामले में अब वर्तमान की जमीनी हकीकत की रोशनी में विचार किये जाने की जरूरत है।
जमीनी हकीकत यह है कि भारत व चीन के बीच अरबों रुपये का व्यापार होता है और विदेश व्यापार चीन के हक में रहता है। अतः चीन के आर्थिक स्वार्थ भारत से जुड़े हुए कहे जा सकते हैं। श्री जयशंकर व वान-ई के बीच हुई वार्ता का एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि चीन अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए भारत के साथ रंजिश को बढ़ावा नहीं दे सकता परन्तु हम देखते हैं कि चीन भू से लेकर भारत की जल सीमाओं पर अपनी दादागिरी भी करता रहता है। एेसा वह जल सीमाओं में बढ़ते अमेरिकी प्रभाव को रोकने की गरज से करता है या इसका कोई अन्य कारण है परन्तु भारत ने इसकी काट क्वाड समूह का सदस्य बन जाने से निकाली है जिसमें अमेरिका, जापान व आस्ट्रेलिया भी शामिल हैं। यह बेवजह नहीं था कि 80 के दशक तक भारत यह मांग करता रहता था कि हिन्द महासागर को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाये। यह उस समय के भारत के राजनैतिक नेतृत्व की दूरदृष्टि का ही परिणाम था कि भारत इसकी मांग पुरजोर तरीके से करता था। वर्तमान में चीन के साथ भारत के सम्बन्ध खट्टे-मीठे होते रहते हैं। विपक्ष यह आवाज उठाता रहता है कि चीन ने 2020 के बाद भारत की तीन हजार वर्ग कि.मी. धरती पर कब्जा जमाया हुआ है जिससे चीन पीछे हटने को राजी नहीं हो रहा है। इस मामले में विपक्ष श्वेत पत्र जारी करने की मांग भी करता रहा है।
सवाल यह है कि जब भारत-चीन के बीच यथावत कारोबार चल रहा है तो इन प्रश्नों का उत्तर भी बेबाकी के साथ क्यों नहीं आना चाहिए। श्री जयशंकर और वान-ई के बीच जो भी सहयोगात्मक रवैया है उसकी आपसी हित में व्यापक समीक्षा की जानी चाहिए। इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के तीन एेसे वैश्विक संगठन हैं जिनके भारत व चीन दोनों सदस्य हैं। ये संगठन हैं जी-20, शंघाई सहयोग संगठन व ब्रिक्स। इनमें ब्रिक्स सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिसके सदस्य भारत, ब्राजील, रूस, चीन व दक्षिण अफ्रीका हैं। ब्रिक्स का उद्देश्य बदलते विश्व क्रम में विकास करती अर्थव्यवस्था वाले देशों को विश्व के मानचित्र में उचित स्थान दिलाने का है। इस कार्य में यह संगठन सफल भी होता दिखाई पड़ रहा है जिसकी वजह से अमेरिका को परेशानी भी हो रही है क्योंकि यह एक ध्रुवीय विश्व से बहुध्रुवीय विश्व की ओर चलने का संकेत देता है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने इसी वजह से ब्रिक्स के देशों को डाॅलर में व्यापार करने की परंपरा छोड़ने के खिलाफ चेतावनी यह कह कर दी थी कि अमेरिका ब्रिक्स देशों के आयात पर भारी शुल्क लगाने का विचार करेगा। इससे संकेत मिलता है कि वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में भारत व चीन के लिए आपसी सहयोग से ही अपना-अपना विकास करने के मार्ग खुले हुए हैं। चीन इस हकीकत को जितना जल्दी समझ जाये उतना ही उसके लिए श्रेयस्कर होगा।