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टाइम्स स्क्वायर पर ‘नमाज’

न्यूयार्क शहर के ऐतिसिक ‘टाइम्स स्क्वायर’ पर नमाज पढ़ कर बेशक मुसलमान नागरिकों ने नया इतिहास बनाने का फख्र हासिल करने का दावा किया हो मगर दुनिया के सबसे पुराने लोकतान्त्रिक देश कहे जाने वाले अमेरिका के लोगों के दिलों में इस्लाम मजहब के बारे में फैली कट्टर धारणाओं को पुख्ता करने का ही काम किया है।

01:06 AM Apr 06, 2022 IST | Aditya Chopra

न्यूयार्क शहर के ऐतिसिक ‘टाइम्स स्क्वायर’ पर नमाज पढ़ कर बेशक मुसलमान नागरिकों ने नया इतिहास बनाने का फख्र हासिल करने का दावा किया हो मगर दुनिया के सबसे पुराने लोकतान्त्रिक देश कहे जाने वाले अमेरिका के लोगों के दिलों में इस्लाम मजहब के बारे में फैली कट्टर धारणाओं को पुख्ता करने का ही काम किया है।

टाइम्स स्क्वायर पर ‘नमाज’
न्यूयार्क शहर के ऐतिसिक ‘टाइम्स स्क्वायर’ पर नमाज पढ़ कर बेशक मुसलमान नागरिकों ने नया इतिहास बनाने का फख्र हासिल करने का दावा किया हो मगर दुनिया के सबसे पुराने लोकतान्त्रिक देश कहे जाने वाले अमेरिका के लोगों के दिलों में इस्लाम मजहब के बारे में फैली कट्टर धारणाओं को पुख्ता करने का ही काम किया है। अमेरिका हर मायने में एक ऐसा  देश है जहां किसी भी व्यक्ति के मजहब से वहां के समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आम अमेरिकी मजहबी संकीर्णताओं से बहुत ऊपर माना जाता है और मानवीय अधिकारों का मूलतः पैरोकार होता है। इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं थी कि 2008 से लेकर 2016 तक इस देश के राष्ट्रपति श्री बराक हुसैन ओबामा रहे जिनकी राष्ट्रपति पद से हटने के बावजूद अमेरिका में आज तक अच्छी लोकप्रियता है। इसके साथ ही अमेरिका व अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों का समाज ऐसा  है जिनमें दुनिया भर के मुल्कों के लोग अपनी योग्यता के आधार पर ऊंचा सम्मान तक पाते रहे हैं। इन देशों का पैमाना किसी व्यक्ति का मजहब नहीं होता बल्कि उसकी योग्यता होती है। अमेरिका में लाखों की संख्या में पाकिस्तानी , बांग्लादेश व भारत मूल के भी मुस्लिम नागरिक हैं। इनके अलावा मध्य एशियाई देशों के मुस्लिम नागरिक भी हैं। पाकिस्तानी मुस्लिम नागरिक जब अमेरिका या किसी अन्य यूरोपीय देश में काम-धंधे या बसने की गरज से जाते हैं तो वे खुद को अपने देश की मजहबी भेदभाव की नीति का शिकार बता कर पनाह मांगते हैं। अधिकतर पाकिस्तानी खुद को शिया या अहमदिया मुसलमान बता कर अपने साथ किये गये जुल्मों की कहानियां सुना कर भी इन देशों के अधिकारियों की सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास करते हैं। इन देशों की सरकारें और यहां का समाज बिना किसी भेदभाव के उनका स्वागत करता है और अपने देश के उदार व खुले नियमों के तहत उन्हें एक समान नागरिक अधिकार सुलभ कराता है जिसकी वजह से वे इन देशों में आजीविका के विभिन्न साधनों में लगते हैं और तरक्की करते हैं। मगर इन देशों में बस जाने के बाद ये मुस्लिम नागरिक अपनी मजहबी रवायतों को लादना शुरू कर देते हैं और उनमें अपने ‘मुसलमान’ होने का जज्बा हिलोरे मारने लगता है और वे उसके सार्वजनिक प्रदर्शन की वे ही तकनीकें अपनाने की कोशिश करते हैं जो किसी इस्लामी कट्टरपंथी मुल्क में होती हैं। उस देश की ‘मानवीय’ संस्कृति के सिद्धान्तों के बीच ये मुस्लिम नागरिक अपनी पहचान को अव्वल दर्जे पर रखते हुए ऐसे  कारनामें करने लगते हैं जिनकी यूरोपीय समाज में सामान्यतः स्वीकार्यता नहीं होती।  इसकी वजह मूल रूप से वैचारिक धार्मिक राष्ट्रवाद माना जाता है जिसका सिद्धान्त भौगोलिक राष्ट्र न होकर मजहबी राष्ट्र होता है (इसी सिद्धान्त पर 1947 में जिन्ना ने पाकिस्तान का निर्माण कराया था)। इसलिए  इस बात पर किसी मुस्लिम को भी हैरानी नहीं होनी चाहिए कि फ्रांस जैसे आधुनिक राष्ट्र ने अपने देश के मुसलमानों के लिए क्यों अलग ‘पहचान’ को बनाये रखने के खिलाफ सख्त कानून बनाये और बुर्के या हिजाब को प्रतिबन्धित किया। अब अमेरिका में यह बहस छिड़ी हुई है कि टाइम्स स्क्वायर पर नमाज अदा करना उचित नहीं है। टाइम्स स्क्वायर पूरे अमेरिका की आजाद व रोशन ख्याल नजरिये का प्रतीक माना जाता है, वहां किसी मजहब की रवायतों का जश्न मनाना इस देश की संस्कृति की मान्यताओं के अनुकूल नहीं है इसीलिए अधिसंख्य अमेरिकी जनता इसके विरोध में अपने विचार व्यक्त कर रही है।
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दूसरी तरफ मुस्लिमों का कहना है कि वे यह दिखाना चाहते थे कि इस्लाम शान्ति व अमन का मजहब है इस वजह से उन्होंने टाइम्स स्क्वायर पर सामूहिक नमाज पढ़ी। मगर उनके इस तर्क में दम नहीं है क्योंकि जब भी किसी मजहब का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता है तो उसी से साम्प्रादिकता की शुरूआत होती है। भारत में भी यही समस्या मुस्लिम सम्प्रदाय के साथ रही है कि वे सड़कों या सार्वजनिक स्थानों तक पर अपनी मजहबी रवायतों का प्रदर्शन करने से नहीं हिचकते। मजहब किसी भी व्यक्ति का निजी मामला होता है। निजी स्तर पर वह उसका पालन मनमाने तरीके से तब तक कर सकता है जब तक कि उसके इस काम से उसके किसी पड़ोेसी या दूसरे व्यक्ति पर गलत असर न पड़े। मुस्लिम समाज के उलेमाओं को यह समझने की जरूरत है हम 21वीं सदी के उस दौर में जी रहे हैं जिसमें नागरिकों के निजी अधिकार सर्वोच्च वरीयता रखते हैं। यूरोपीय व अमेरिकी देश तो इस अधिकार के अलम्बरदार माने जाते हैं। अतः इन देशों में जाकर मुस्लिम नागरिक किस प्रकार दूसरे नागरिकों की सामाजिक मान्यताओं और सामुदायिक रवायतों पर अपनी मजहबी रवायतें गालिब कर सकते हैं।
आज की दुनिया सातवीं सदी के सामुदायिक अधिकारों से नहीं बल्कि निजी एवं व्यक्तिगत अधिकारों से चल रही है। यही वजह है कि भारत में लाऊड स्पीकरों से अजान देने का मसला बार-बार उठ खड़ा होता है। अतः वर्तमान दौर में जब हम विज्ञान के सहारे नई-नई ऊंचाइयां नाप रहे हैं तो हमें सोचना होगा कि यह काम इंसानियत के आधार पर ही हो रहा है क्योंकि विज्ञान की इजादों का फायदा तो हर इंसान को ही मिलेगा और वह हिन्दू , मुसलमान या ईसाई देख कर बंटवारा नहीं करेगा और न ही कोई मुल्क इन इजादों से केवल अपने आप को ही नवाजने की जुर्रत कर सकता है। हो सकता है कुछ मुल्कों में फायदा देर से पहुंचे मगर एक न एक दिन पहुंचेगा तो जरूर। इसी वजह से पूरी दुनिया में आज टैक्नोलोजी का बोल बाला हो रहा है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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