राष्ट्र प्रथम और राष्ट्र सर्वोपरि
भारत के संसदीय लोकतन्त्र की यह विशेषता है कि यह एक ओर जहां लोकसभा में…
भारत के संसदीय लोकतन्त्र की यह विशेषता है कि यह एक ओर जहां लोकसभा में बहुमत की गठित सरकार से चलता है वहीं विपक्ष में अल्पमत में बैठे सदस्यों की भी इसमें शिरकत की व्यवस्था करता है। संसद में पहुंचे प्रत्येक संसद सदस्य के सदन के भीतर अधिकार एक समान होते हैं। इसकी वजह यही है कि प्रत्येक सांसद का चयन आम लोगों के वोटों के द्वारा ही होता है और प्रत्येक वोट की कीमत एक बराबर होती है। अतः सरकार बनाने की प्रक्रिया जहां बहुमत पर टिकी होती है वहीं इसे चलाने का काम सत्ता व विपक्ष की भागीदारी पर टिका होता है। सरकार के किसी भी विधेयक पर विपक्ष के सांसद सदनों के भीतर अपने सुझाव देते हैं जिन्हें मानना या न मानना सरकार का काम होता है। लोकतन्त्र को दुनिया की सबसे बेहतर शासन व्यवस्था इसीलिए माना गया है क्योंकि यह आम जनता से प्राप्त ताकत के आधार पर चलती है, जिसमें सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष की भी बराबर की भागीदारी होती है। इस प्रणाली में जब भी राष्ट्र पर संकट की घड़ी आती है तो प्रत्येक दल के सदस्यों का कर्त्तव्य केवल राष्ट्रहित हो जाता है और वे अपने सैद्धान्तिक मतभेद भुला देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सभी दलों का धर्म केवल एक हो जाता है जिसे ‘राष्ट्रधर्म’ कहा जाता है। अतः मोदी सरकार के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए कि वह हाल ही किये आपरेशन सिन्दूर की बाबत बहुदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडलों को विश्व के विभिन्न देशों में भेज कर पाकिस्तान द्वारा किये जा रहे आतंकवाद का पर्दाफाश करना चाहती है। इसमें दलगत भेदभावों को भुलाकर ही हम अपने राष्ट्रधर्म का पालन कर सकते हैं।
इस मसले पर यदि कोई भी राजनैतिक दल अपने दलीय हितों को ऊपर रख कर सोचता है तो इसे अनुचित ही माना जायेगा। संकट की घड़ी में राष्ट्रहित से ऊपर कोई दूसरा हित नहीं हो सकता क्योंकि राष्ट्र के अस्तित्व से ही लोकतन्त्र का अस्तित्व बंधा होता है। मोदी सरकार चाहती है कि भारत का पक्ष विश्व में रखने के लिए विपक्षी दलों के नेता भी जायें तो इसे हम राष्ट्र सर्वोपरि की श्रेणी में ही रखेंगे जिसमें दलगत नीतियों का कोई लेना-देना नहीं हो सकता। भारत के विपक्षी दल भी यह भली-भांति जानते हैं कि जब उनके कदम विदेशी धरती पर होते हैं तो भारत में चलने वाली किसी भी पार्टी की सरकार मोदी सरकार या वाजपेयी सरकार अथवा मनमोहन सिंह सरकार नहीं होती बल्कि वह केवल ‘भारत की सरकार’ होती है और विदेशों में इस सरकार की सुरक्षा करना उनका दायित्व होता है क्योंकि यह सरकार भारत के लोगों की सरकार होती है और विपक्ष भी लोगों का ही प्रतिनिधित्व करता है। मोदी सरकार चाहती है कि यूरोपीय व खाड़ी के देशों से लेकर राष्ट्रसंघ तक में कुछ विपक्षी नेताओं के नेतृत्व में भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल जाएं और वहां जाकर दुनिया की नींद खोलें कि पाकिस्तान किस प्रकार भारत में आतंकवाद फैला रहा है और इस कार्य में वह किस हद तक नीचे जा चुका है कि उसके भेजे हुए आतंकी जम्मू-कशमीर में लोगों का धर्म पूछ-पूछकर उनकी हत्या कर रहे हैं जिसके जवाब में भारत को कुछ कड़े कदम उठाने पड़ रहे हैं और सेना का ‘आपरेशन सिन्दूर’ चलाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। दुःखद यह है कि अमेरिका जैसा देश भी आपरेशन सिन्दूर रुकवाने के लिए आड़ी-तिरछी भाषा बोल रहा है और पाकिस्तान के परमाणु शक्ति से लैस होने की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र को परमाणु युद्ध के मुहाने पर बैठा क्षेत्र समझ रहा है।
इस मामले में रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह साफ कह चुके हैं कि पाकिस्तान के परमाणु अस्त्रों को अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी में लिये जाने की सख्त जरूरत है क्योंकि ऐसे देश के पास परमाणु शक्ति संरक्षित नहीं है जिसकी नीति ही आतंकवाद फैलाने की हो। ऐसे वातावरण में भारत व पाकिस्तान को यदि एक ही तराजू में रख कर तोलने की भूल विश्व के कुछ देश करते हैं तो वे परोक्ष रूप से आतंकवाद को ही बढ़ावा देने का काम करते हैं। अतः बहुत जरूरी है कि विदेशों में भारत की पहचान दलगत आधार पर चलने वाले मुल्क की न होकर समवेत स्वर में बोलने वाले एक राष्ट्र की हो। इसी वजह से मोदी सरकार ने विभिन्न दलों के नेताओं से सम्पर्क किया और उनसे बहुदलीय प्रतिनिधिमंडलों में शामिल होने की प्रार्थना की । जिन पार्टियों के नेताओं से सम्पर्क किया गया उनमें कांग्रेस पार्टी के शशि थरूर, अमर सिंह, सलमान खुर्शीद व मनीष तिवारी हैं जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस की श्रीमती सुप्रिया सुले, तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बन्द्योपाध्याय , आल इंडिया इत्तेहादे मुसलमीन के असीदुद्दीन ओवैसी, द्रमुक की श्रीमती कन्नी मौझी, बीजू जनता दल के सस्मित पात्रा, मुस्लिम लीग के ई.टी. मुहम्मद बशीरव, मार्क्सवादी पार्टी के जान ब्रिटास शामिल हैं। इनके साथ ही भाजपा की ओर से बी.जे. पांडा व रविशंकर प्रसाद शामिल हैं। ये सभी संसद सदस्य हैं और वाकपटु सांसद माने जाते हैं। इसलिए इस मुद्दे पर भी यदि राजनीति की जाती है तो उसे राष्ट्रहित मेें नहीं कहा जा सकता। भारत कोई पहली बार ऐसा नहीं कर रहा है।
1971 में जब पाकिस्तान से भारत का बंगलादेश युद्ध हुआ था तो तब भी तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी ने विश्व के समक्ष भारत का पक्ष रखने के लिए अपने कटु आलोचक राजनेताओं को विदेश भेजा था। इनमें स्व. जय प्रकाश नारायण भी शामिल थे जिन्होंने बाद में 1974 में इन्दिरा शासन के विरुद्ध जन आन्दोलन चलाया था। कांग्रेस की सरकार के मुखिया रहे स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने भी 1994 में लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष के नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार सम्मेलन में जिनीवा भेजा था। अतः कांग्रेस की श्री थरूर के नाम पर आपत्ति उचित नहीं कही जा सकती है। हो सकता है भीतर से वह सत्तारूढ़ भाजपा के साथ खिचड़ी पका रहे हों मगर जहां तक राष्ट्र का सवाल है तो वह लोकसभा में कांग्रेस के एक सांसद ही हैं जो कि वर्तमान में विदेश मामलों की लोकसभा की स्थायी समिति के अध्यक्ष भी हैं। इसी प्रकार सलमान खुर्शीद भी मनमोहन सरकार में विदेश मन्त्री रह चुके हैं। अतः जब भारत की बात आती है तो भाजपा की सरकार मुस्लिम लीग के सांसद को भी देश का पक्ष रखने विदेश भेजना चाहती है। अतः इस घड़ी में राष्ट्र प्रथम व राष्ट्र सर्वोपरि ही हर राजनीतिक दल की नीति होनी चाहिए।