For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

जरूरत है एक और विनोबा भावे की

01:32 AM Jan 12, 2024 IST | Shera Rajput
जरूरत है एक और विनोबा भावे की

आज देश में दर्दनाक किस्से रोज सुनाई देते हैं। देश की जवानी विदेशों में तो जा रही है, नशों की दलदल में फंसी है और अपराध की दुनिया में हजारों नौजवान लड़के भी और लड़कियां भी फंस चुके हैं। कितना करुण दृश्य होता है जब अपराध की दुनिया में खो चुके नवयुवक बेटे पुलिस की गोलियों का शिकार हो जाते हैं या एनकाउंटर के नाम पर मारे जाते हैं या पुलिस मुकाबले करते हैं और फिर ढेर हो जाते हैं। रोते हुए परिवार को देखकर दर्द भी होता है और यह प्रश्न भी उठता है कि क्या देश में कोई ऐसे साधु-संत किसी भी धर्म संप्रदाय में नहीं हैं, जो इस भटकती जवानी को संभाल सकें, देश की जवानी देश के काम आए। सीमा पर नौजवान शहीद होता है तो वह गौरव का विषय हो जाता है, पर जब कोई नवयुवक लूटपाट करके भागता या हत्या करके दौड़ता है और पुलिस मुकाबले में मारा जाता है तो ऐसे लगता है कि एक मां की सारी साधना मिट्टी में मिल गई और एक शानदार जीवन ढेर हो गया।
ऐसे वातावरण में विनोवा भावे की याद आती है। विनोबा भावे को आज की नई पीढ़ी तो भूल ही चुकी है, देश के शीर्ष नेतृत्व ने भी इस महान संत का नाम लेना बंद कर दिया। विनोबा भावे को उनका भी दर्द था जो स्वतंत्र देश में एक गज भूमि के भी स्वामी नहीं थे और इसी से द्रवित होकर उन्होंने भूदान आंदोलन शुरू किया। उनका एक ही संदेश था कि सभी जमींदार अपनी खेती योग्य भूमि का छठा हिस्सा दान कर दें। यह आंदोलन तेलंगाना से शुरू हुआ और 18 अप्रैल 1951 में पहला भूदान हुआ। तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव में पहला भूदान यज्ञ प्रारंभ हो गया। इसके बाद वे चलते गए और केवल तेलंगाना में ही 12 हजार 200 एकड़ जमीन उन्हें दान में मिली। 1953 में श्री जयप्रकाश नारायण भी उनके साथ जुड़ गए और 1956 तक चालीस हजार एकड़ से भी ज्यादा मिली। उन्होंने भूमिहीन किसानों में बांटी, पर इसके बाद कई मतभेद उत्पन्न हुए और आंदोलन ज्यादा आगे न बढ़ा।
कोई कारण ही था तो विनोबा भावे जी के कहने से दुर्दांत डाकुओं ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। इतिहास साक्षी है कि विनोबा जी को कश्मीर यात्रा के दौरान डाकू मान सिंह के पत्र तहसीलदार का जेल से लिखा पत्र मिला था। वह जेल में उसकी फांसी का दिन था। उसने फांसी से पूर्व विनोबा जी के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। विनोबा जी ने अपनी कश्मीर यात्रा के प्रबंधक मेजर यदुनाथ सिंह को जेल में तहसीलदार से मिलने के लिए भेजा। उसने यह संदेश दिया कि यदि विनोबा भावे चंबल का दौरा करें तो बहुत से डाकू आत्मसमर्पण कर सकते हैं, वे अपराध का जीवन छोड़ देंगे। विनोबा जी को यह विचार पसंद आया। उनके इस विचार का उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने स्वागत किया। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री श्री पंत जी ने भी इसका अनुमोदन किया और सम्बद्ध प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों को विनोबा जी का पूरा साथ देने का निर्देश जारी कर दिया। 7 मई 1960 को एक प्रार्थना सभा के साथ यह अभियान शुरू हुआ और डाकू रामअवतार ने विनोबा जी के सामने हथियार डालकर आत्मसमर्पण किया।
विनोबा जी ने उस समय उपस्थित अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा-कोई जन्म से डाकू नहीं होता, यह केवल शोषण, क्रूरता तथा संवेदनहीनता का परिणाम है। ये डाकू मूल रूप से सीधे, बहादुर तथा निडर लोग हैं। इन्हें अच्छा व न्यायपूर्ण व्यवहार देकर भला व्यक्ति बनाया जा सकता है। इसके बाद दुर्दांत डाकू लच्छी पंडित ने भी परिवार समेत आत्मसमर्पण किया। मेरा सीधा प्रश्न भी है कि क्या देश की राजनीति में, पूरे धार्मिक जगत में, स्वयं को बड़े-बड़े सामाजिक कार्यकर्ता का बैनर लगाकर मंचों पर भाषण देने और फोटो खिंचवाने वाले लोगों में से कोई दो-चार विनोबा भावे नहीं बन सकते? जो देश के अपराध जगत के कीचड़ में फंसे बेटे बेटियों को निकाल सकें। जो नशों से मुक्त रहने के लिए सही प्रेरणा दे सकें। जो भ्रष्टाचार की कमाई से शान-शौकत भरा जीवन बिताने की चाह रखने वालों को मेहनत की कमाई से रोटी खाना सिखा सकें। अगर ऐसा हो जाता है तो फिर हमारे देश की जवानी न नशे की ओवरडोज से मरेगी, न अपराधी बनकर पुलिस की गोलियों का शिकार होगी और न अभागिन माताओं के आंसुओं से मेरे देश की धरती भीगेगी।

- लक्ष्मीकांता चावला

Advertisement
Advertisement
Author Image

Shera Rajput

View all posts

Advertisement
×