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वैचारिक पहचान की तलाश करता नेपाल

04:00 AM Sep 17, 2025 IST | Prabhu Chawla

नेपाल के शासकों को एक कठोर सबक मिला है। जब वादे टूटते हैं और लोगों का विश्वास आहत होता है तब सत्ता बिखर जाती है। सोशल मीडिया की प्रचंड ताकत से लैस नेपाल के युवाओं ने सरकार गिरा दी। नतीजतन केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देकर भागना पड़ा। भ्रष्टाचार, परिवारवाद और नेपाल की आर्थिक बदहाली के बीच राजनीतिक एलीटों द्वारा संपत्ति जमा करने की होड़ से क्षुब्ध इन युवाओं ने अनियंत्रित सत्ता को बेनकाब कर दिया। पिछले सोलह साल से राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक अपंगता से ध्वस्त नेपाल में संदेश स्पष्ट है, जो सत्तारूढ़ शासक जनता को धोखा देते हैं, वे उन्हीं लोगों द्वारा हटाये जाते हैं जिनकी वे अनदेखी करते हैं। वैसे में हिंसा ही परिवर्तन की आवाज बनती है। नेपाल के युवाओं ने एक चुनी हुई सरकार को हटाकर एक विश्वसनीय विकल्प को सत्ता सौंपी है, उन्होंने बेहद स्वच्छ छवि वाली एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया है।
नेपाल की हिंसा को क्रांति नहीं कह सकते, यह सामूहिक गुस्से का, नेताओं द्वारा छले गये परेशान लोगों का अनुभवहीन और नेतृत्वविहीन विस्फोट था। देश का सत्तारूढ़ गठबंधन इसके दबाव से ढह गया और ओली ने सिर्फ इस्तीफा ही नहीं दिया, बल्कि उनके छिप जाने की भी खबरें हैं, नेपाली युवाओं के गुस्से के हिंसक दृश्य विनाशकारी थे। मंत्रियों को निशाना बनाया गया और सरकारी भवनों को आग के हवाले कर दिया गया। यह अशांति एक गहरी बीमारी के साथ-साथ उस राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अविश्वास का संकेत करती है, जिसने न सिर्फ सोलह साल में चौदह सरकार दी, बल्कि दुखद यह भी कि हर सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तुलना में नाकारा साबित हुई। वर्ष 2008 में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र के लिए अपने राजतंत्रात्मक अतीत से छुटकारा पाने वाला नेपाल आज अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है।
नेपाल के मौजूदा संकट की जड़ें उसके अस्थिर राजनीतिक इतिहास में हैं। राजशाही से लोकतंत्र में रूपांतरण के दौरान भी नेपाल खून-खराबा और धोखाधड़ी का गवाह बना था। वर्ष 2001 में राजकुमार दीपेंद्र ने शाही परिवार की नृशंस हत्या कर दी थी। उस त्रासदी ने नेपाल को संवैधानिक संकट में धकेल दिया था, जिसके बाद ज्ञानेंद्र नेपाल के नरेश बने लेकिन उनका शासन माओवादी आंदोलन पर अंकुश लगाने में नाकाम रहा। वर्ष 1990 में शुरू हुए उस आंदोलन में 16,000 से अधिक जानें गयीं। वर्ष 2005 में संसद को विघटित कर पूरी ताकत खुद में केंद्रित करने के ज्ञानेंद्र के फैसले का भारी विरोध हुआ, भारी जनविरोध को देखते हुए ज्ञानेंद्र को सत्ता छोड़नी पड़ी।
वर्ष 2008 में राजशाही को खत्म कर नेपाल ने पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में खुद को एक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र के रूप में स्थापित किया। नेपाल में स्थायित्व और प्रगति के नये युग का वादा बहुत आकर्षक था, पर वह छलावा ही साबित हुआ। वर्ष 2008 से आज तक वहां कोई सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी है और अंदरुनी प्रतिद्वंद्विता, भ्रष्टाचार और अवसरवादी गठबंधनों के दबाव से गिरती रही है। मौजूदा संकट इन सबका मिलाजुला परिणाम है। युवाओं द्वारा विरोध-प्रदर्शन की शुरुआत सोशल मीडिया पर सरकारी प्रतिबंध के खिलाफ हुई थी।
निरंतर सत्ता संघर्ष और समन्वयकारी एजेंडे के अभाव में शासन व्यवस्था अपंग हो गयी है, जिस कारण नेपाल के बाहरी ताकतों से प्रभावित होने की आशंका बहुत बढ़ गयी है, इनमें से चीन और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों के हस्तक्षेप के आरोप ज्यादा खतरनाक हैं जो नेपाल में भारत का असर कम करने के लिए सक्रिय हैं। चीन ने जहां बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के जरिये नेपाल में भारी निवेश किया है, वहीं पाकिस्तान नेपाल सीमा के जरिये भारत के खिलाफ साजिश रचने में लगा है। आर्थिक रूप से नेपाल भीषण संकट में है, इस वर्ष उसकी विकास दर लगभग 3.3 फीसदी रहने वाली है जो दक्षिण एशिया में सबसे कम है, भारत में प्रति व्यक्ति 2,700 डॉलर और बंगलादेश में प्रति व्यक्ति 2,500 डॉलर के मुकाबले नेपाल की प्रति व्यक्ति आय 1,400 डॉलर है। बेरोजगारी की दर वहां 19.2 फीसदी है। राजनेताओं के भव्य रहन-सहन और आमजनों के मुश्किल जीवन के अंतर को ही उन युवाओं ने अपने आंदोलन का आधार बनाया जो भ्रष्टाचार और परिवारवाद को सारी बुराइयों की जड़ मानते हैं।
नेपाल की अशांति श्रीलंका और बंगलादेश की याद दिलाती है, उन दो देशों में भी आर्थिक संकट और लोगों के गुस्से ने सरकार पलट दी। वर्ष 2022 में श्रीलंका में आर्थिक संकट से उपजे जनविद्रोह ने गोटबाया राजपक्षे की सरकार पलट दी थी, तो 2024 में बंगलादेश में हुए सत्ता विरोधी छात्र आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता छोड़कर भागना पड़ा। उन दोनों ही देशों में आंदोलनों के पीछे विदेशी हस्तक्षेप और सेना द्वारा समर्थित सरकार बनने की आशंकाएं जतायी गयी थीं, नेपाल में भी ऐसी ही आशंका जतायी गयी। लोकतांत्रिक रूप से चुने गये नेता या वैकल्पिक सरकार के अभाव में नेपाल में मौजूदा असंतोष लंबे समय तक बना रह सकता है। इस संकट के बीच वहां राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र की पहचान की मांग भी एक समूह ने की।
विगत नौ मार्च को काठमांडाै में राजशाही की वापसी के पक्ष में एक प्रदर्शन भी हुआ था, नेपाल के संकट से भारत में भी सुरक्षा चिंता बढ़ी है। नेपाल के अस्थिर होने से वहां भारत-विरोधी गतिविधियां बढ़ेंगी और सीमापार आतंकवाद व स्मगलिंग बढ़ने के साथ भारत के उत्तरी राज्यों में सुरक्षा चिंता भी बढ़ेगी। भारत को चाहिए कि वह नेपाल की अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने के लिए वित्तीय मदद दे, साथ ही, रोजगार सृजन, ढांचागत विकास में सहायता करे। तकनीकी और अक्षय ऊर्जा में भारत की विशेषज्ञता नेपाल के ढांचागत सुधार में बहुत कारगर हो सकती है। ऐसे ही शिक्षा तथा कौशल प्रशिक्षण में निवेश से युवा बेरोजगारी में कमी आ सकती है। कूटनीतिक तौर पर भारत को नेपाल में राजनीतिक पार्टियों, सिविल सोसाइटी, यहां तक कि राजशाही समर्थकों से भी संवाद करना चाहिए। इसका लक्ष्य राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श होना चाहिए जिससे नेपाल में स्थिरता की गारंटी मिले। हिंदू-बौद्धों की साझा विरासत के आधार पर सांस्कृतिक कूटनीति से दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली संभव है।

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