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चीन की गोद में खेलता नेपाल

नेपाल-भारत के बीच प्राचीनकाल से ही बड़े घनिष्ठ संबंध रहे। विभिन्न काल खंडों में राजनीतिक परिस्थितियों के कारण दोनों देशों के शासकों के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं लेकिन दोनों देशों के संबंध अटूट ही बने रहे

12:04 AM Jun 08, 2020 IST | Aditya Chopra

नेपाल-भारत के बीच प्राचीनकाल से ही बड़े घनिष्ठ संबंध रहे। विभिन्न काल खंडों में राजनीतिक परिस्थितियों के कारण दोनों देशों के शासकों के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं लेकिन दोनों देशों के संबंध अटूट ही बने रहे

नेपाल-भारत के बीच प्राचीनकाल से ही बड़े घनिष्ठ संबंध रहे। विभिन्न काल खंडों में राजनीतिक परिस्थितियों के कारण दोनों देशों के शासकों के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं लेकिन दोनों देशों के संबंध अटूट ही बने रहे। हमारे संबंधों की कड़ियां हमारी सांझा संस्कृति, भाषा, इतिहास और भूगोल से जुड़ी हुई हैं लेकिन अब संबंधों में पुरानी बात नहीं रही। नेपाल कभी हिन्दू राष्ट्र था। नेपाल के राजा को देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता था। राजा को विष्णु का अवतार समझा जाता था और उनके दर्शन के लिए आम लोगों को लम्बी-लम्बी कतारें लगानी पड़ती थीं लेकिन बंदूक से निकली क्रांति ने राजशाही के अंत का फरमान लिख दिया और नेपाल में राजशाही अतीत का हिस्सा बन गई। भारत के एक बड़े तबके में दुनिया के एकमात्र हिन्दू राजशाही के अंत को लेकर थोड़ी बहुत कसक जरूर होगी मगर एक जीवंत लोकतंत्र के स्वामी होने के नाते यह भारत के लिए खुशी की ही बात थी कि पड़ोस में एक स्थिर और आमजन द्वारा चुने हुए प्रजातंत्र की मौजूदगी रहे। इसीलिए भारत ने नेपाल के नए अध्याय का स्वागत किया था। राजशाही के अंत के बाद कई वर्षों तक नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता रही। प्रधानमंत्री आते-जाते रहे। जब से नेपाल में कम्युनिस्टों की सरकार सत्ता में आई है, वह चीन के ज्यादा करीब होती गई। 
अब यह स्पष्ट है कि नेपाल चीन के इशारे पर भारत विरोधी कदम उठा रहा है। नेपाल अब चीन की गोद में खेल रहा है। नेपाल ने भारत में निर्माणाधीन एक सड़क पर आपत्ति जताई है। यह सड़क उत्तराखंड में धारचूला को लिपुलेख से जोड़ती है जो करीब 80 किलोमीटर लम्बी है। इस सड़क से तीर्थयात्रियों की कैलाश मानसरोवर यात्रा की अवधि कम हो गई है​ और यह सुगम भी है। नेपाल ने अब उत्तराखंड में स्थित कालापानी इलाके को लेकर विवाद छेड़ा हुआ है। यह पहला अवसर है जब नेपाल भारत को खुलेआम धमकियां दे रहा है। नेपाल ने आनन-फानन में बिना किसी विशेष सर्वेक्षण के नेपाल का नक्शा जारी किया जिसमें कालापानी, लिपुलेख और लि​िम्पयांधुरा को अपनी सीमाओं में दिखाया। साथ ही इस संबंध में नेपाली संसद में बिल भी पेश कर दिया। नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने नेपाली सेना को भी बार्डर पर चौकस कर दिया  वे यह सब भूल गए कि नेपाल में प्रजातंत्र की स्थापना करने में भारत ने महत्वपूर्ण शांतिदूत की भूमिका निभाई थी। भारत और नेपाल की सीमाएं खुली हुई हैं और सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक तौर पर दोनों देशों के बीच संबंध बने हुए हैं। ​
पिछले पांच वर्षों में ओली ने भारत विरोध के सहारे अपनी राजनीतिक साख मजबूत की है। ऐसा लगता है कि ओली अब विवाद को सुलझाने की बजाय अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता करने में लगे हुए हैं।
अब नेपाल ने भारत को कहा है कि सीमा विवाद पर दोनों देशों के विदेश सचिवों की बात हो सकती है। कालापानी विवाद पर दोनों देशों के विदेश सचिवों की वर्चुअल बैठक भी हो सकती है। पिछले माह ही भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला और नेपाल के विदेश सचिव शंकरदास बैरागी में कोरोना महामारी से निपटने के लिए बातचीत हुई थी। दोनों देशों में विदेश सचिव स्तरीय वार्ता का सुझाव 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की नेपाल यात्रा और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी और जी.पी. कोइराला की 2000 के नवम्बर में हुई बातचीत के दौरान भी सामने आया था लेकिन ये वार्ताएं हो नहीं सकी थीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कोराेना काल में कई वीडियो कांफ्रैंसिंग को सम्बोधित करते आ रहे हैं। सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों की कांफ्रैंसिंग में के.पी. ओली भी शामिल हुए थे। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी वीडियो कांफ्रैंसिंग से कई देशों के विदेश मंत्रियों से बातचीत करते आ रहे हैं। भारत और नेपाल के विदेश सचिवों में भी बातचीत होनी ही चाहिए और विवाद का समाधान किया जाना चाहिए। मधेसियों के अधिकारों को लेकर हुई आर्थिक नाकाबंदी के दौरान चीन ने नेपाल से संबंध गहरे बनाए और नेपाल की काफी मदद की। नेपाल और चीन में कई सैन्य करार भी हुए। चीन नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार को माओवादी विचारधारा से जोड़ कर भारत के विरोध में खड़ा करना चाहता है क्योंकि इससे न केवल चीन को नेपाल में अपनी साख मजबूत करने में मदद मिलेगी बल्कि नेपाल में रह रहे 13 हजार से अधिक तिब्बती शरणार्थियों के दमन का रास्ता तैयार होगा। चीन चाहता है कि भारत और नेपाल के संबंधों में दरार पड़े इसीलिए वह नेपाल को अपनी ढाल बना रहा है।
श्रीलंका, म्यांमार और अन्य देशों ने चीन की मदद लेकर अंजाम भुगत लिया है। पहले चीन इन देशों काे कर्ज के जाल में फंसाता है फिर उनकी जमीन हड़प लेता है। मलेशिया में भी ऐसा हो रहा था लेकिन ठीक वक्त पर उसने चीन से दूरी बना ली। चीन जानता है कि वह नेपाल में पाकिस्तान और श्रीलंका जैसी मनमानी नहीं कर सकता। हैरानी इस बात की है कि 2015 में हुए करार में चीन ने कालापानी और लिपुलेख को भारत का हिस्सा माना था तो नेपाल को अब क्यों दर्द हो रहा है। नेपाल सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिए भारत का ​विरोध कर रही है। विदेश व्यापार के लिए नेपाल की भारत पर आत्मनिर्भरता एक सत्य है। भारत से कोई भी विवाद नेपाल के ​लिए नुक्सानदेह ही साबित होगा। भारत ने हर संकट में नेपाल की मदद की है। उसकी प्र​गति की राह भारत से खुलेगी। उसे भविष्य की रणनीति बनाकर काम करना होगा। चीन की गोद में खेलने से कोई फायदा नहीं होगा। बेहतर है कि मिल-बैठकर मामला सुलझा लिया जाए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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