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उत्तर प्रदेश के नये विपक्षी नेता

06:37 AM Jul 30, 2024 IST | Shivam Kumar Jha

उत्तर प्रदेश की राजनीति ने कई करवटें बदली हैं। स्वतन्त्रता से पूर्व जहां इस प्रदेश की राजनीति राष्ट्र पर जांनिसारी की थी वहीं आजादी के बाद यह धीरे-धीरे जनसंघ का प्रभाव बढ़ने से हिन्दुत्व की राजनीति की तरफ खिंचती गई जिसकी पराकाष्ठा 1967 में तब हुई जब उत्तर प्रदेश विधानसभा की कुल 425 सीटों में से 99 पर जनसंघ विजयी हुई और प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनी परन्तु 1969 में स्वयं चौधरी चरण सिंह द्वारा कांग्रेस से अलग होकर अपनी पृथक पार्टी भारतीय क्रान्ति दल बनाये जाने पर जनसंघ का ग्राफ नीचे गिर गया और राज्य में ग्रामीण राजनीति का नया युग शुरू हुआ जिसमें सभी खेतीहर जातियों व ग्रामीण जनता ने चौधरी साहब को अपना नायक चुना और उनका रुतबा राष्ट्रीय स्तर तक ऊंचा किया। इसके बाद 80 के दशक तक जनसंघ का नया नामकरण भाजपा होने तक भी यह पार्टी उभर नहीं सकी और चौधरी साहब की राजनीति कांग्रेस के बाद पूरी तरह प्रभावी रही।

चौधरी साहब ने ही स्व. मुलायम सिंह यादव को राज्य की राजनीति में अपना उत्तराधिकारी बनाया और घोषणा की कि उत्तर प्रदेश सर्वदा सामाजिक न्याय के रास्ते पर चलता रहेगा। मगर 80 के दशक में एक बड़ा परिवर्तन हुआ। राज्य में जातिवादी राजनीति का उदय हुआ जिसकी शुरूआत स्व. काशीराम ने बहुजन समाज पार्टी व जय गुरुदेव ने दूरदर्शी पार्टी बना कर की। काशीराम ने केवल दलित मतदाताओं को रिझाया और जय गुरुदेव ने अत्यन्त पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को। इनमें से जय गुरुदेव की दूरदर्शी पार्टी विफल रही औऱ काशीराम की बहुजन समाज पार्टी हिन्दुओं में सवर्णों के तीखे विरोध की वजह से लोकप्रिय होती गई। बाद में इसमें मायावती भी शामिल हुईं औऱ उन्होंने बहुजन समाज पार्टी को सींचने का काम किया। इसके समानान्तर 80 के दशक के अंत में भाजपा के श्री लालकृष्ण अडवानी ने अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन चलाया जिसकी वजह से भाजपा हिन्दू मतदाताओं को फिर से लुभाने लगी। इसके साथ ही 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हो जाने के बाद हिन्दू समाज पिछड़े व सवर्ण समाज में बंट गया। इससे उत्तर प्रदेश की राजनीति का स्वरूप पूरी तरह बदल गया और इस कलेवर की राजनीति में कांग्रेस पार्टी लगातार हाशिये पर खिसकती चली गई।

एक जमाने में कांग्रेस की ताकत माने जाने वाले दलित व मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज के लोग अब कांग्रेस से अलग होकर अन्य जातिवादी दलों की तरफ आकर्षित होने लगे थे। मगर मुलायम सिंह जमीनी राजनीति के पुरोधा माने जाते थे। उन्होंने कांग्रेस के गिरते जनाधार व भाजपा के समर्थन के बढ़ते ज्वार के बीच जो रास्ता निकाला वह चौंकाने वाला था। उन्होंने सबसे पहले अल्पसंख्यक समुदाय को अपने साथ लिया और मंडल आयोग के लागू होने से सतह पर आई पिछड़ी जातियों को लामबन्द किया। इससे उत्तर प्रदेश की राजनीति त्रिकोणीय बहुजन समाज पार्टी, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी व भाजपा के बीच हो गई और कांग्रेस पूरी तरह गायब हो गई। उत्तर प्रदेश की राजनीति अब जातिपरक राजनीति हो चुकी थी जिसमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी के बीच बंटा हुआ था। उसका मन्तव्य यही रहता था कि इन दोनों में से जो भी पार्टी भाजपा को हराये उसका समर्थन उसी को जाये परन्तु लोकतन्त्र कभी भी जड़ता को नहीं स्वीकारता है। सत्ता के लिए जब बहुजन समाज पार्टी व भाजपा की प्रेम की पींगें बढ़ती अल्पसंख्यक समाज ने देखीं तो उसका मन बदलना शुरू हुआ। केवल भाजपा विरोध पर समाजवादी पार्टी की राजनीति भी उसे अवसरवादी प्रतीत होने लगी इसके भी बहुत से कारण थे।

अतः अल्पसंख्यक समुदाय ने पुनः एकजुट होकर कांग्रेस का दामन थामने का मन बनाया जिसकी वजह से वर्तमान लोकसभा चुनावों में हमें राज्य में बदलाव देखने को मिला है परन्तु इसमें चौधरी चरण सिंह के उस मूल वोट बैंक की बहुत बड़ी भूमिका है जिसकी कमान चौधरी साहब स्व. मुलायम सिंह यादव को सौंप कर गये थे। ग्रामीण मतदाताओं के पिछड़े व दलित और वंचित समाज ने कांग्रेस व समाजवादी पार्टी का दामन थामा और भाजपा के पैरों की जमीन निकाल दी। इसकी वजह बेशक जातिगत जनगणना व संविधान पर खतरा रहा हो मगर हकीकत यही रहेगी कि ग्रामीण समाज ने राहुल-अखिलेश गठबन्धन को पुरजोर समर्थन दिया। मगर बड़ी हैरानी की बात है कि राज्य विधानसभा में अखिलेश यादव द्वारा विपक्ष के नेता पद पर अपनी जगह ब्राह्मण समुदाय के माता प्रसाद पांडेय को बैठाये जाने पर राजनैतिक क्षेत्रों में टीका-टिप्पणी हो रही है। यह सनद रहना चाहिए कि उत्तर प्रदेश की राजनीति अब जातिवादी दीवारों को तोड़ रही है और सम्पन्न व वि​भिन्न लोगों के खांचे में ढल रही है। बेशक इसका आधार जातिवादी ही हो सकता है क्योंकि भारत में जातियों के आधार पर सम्पत्ति का बंटवारा भी है। मगर हकीकत यही रहेगी कि राजनीति में अब जातिगत बन्धन टूट रहे हैं और नागरिकों को मजबूत व अधिकारपूर्ण बनाने की राजनीति का उदय हो रहा है। इसे हम कल्याणकारी राज के उदय के रूप में भी व्याख्यायित कर सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में विपक्षी नेता के पद पर न तो किसी यादव की जरूरत है और न किसी अन्य जाति के व्यक्ति की बल्कि ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो राज्य की राजनीति को नया आयाम दे सके और सभी वर्गों के लोगों को साथ लेकर चल सके। जातिसूचक नेताओं से किसी भी प्रदेश व सरकार का भला तब तक नहीं हो सकता जब तक कि वे समूचे समाज की विसंगतियों के विरुद्ध संघर्ष करने का बीड़ा न उठायें। श्री माता प्रसाद पांडेय दो बार विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं और चौधरी चरण सिंह द्वारा ही राजनीति में लाये गये व्यक्ति हैं। उनकी विरासत ग्रामीण राजनीति ही है।

अतः उन्हें किसी एक जाति के घेरे में बांधना उनके साथ अन्याय होगा। एक जमाना था जब जनसंघ के विधानमंडल दल के नेता श्री माधव प्रशाद त्रिपाठी हुआ करते थे और मुख्य सचेतक मेरठ शहर से विधायक श्री मोहन लाल कपूर हुआ करते थे। श्री त्रिपाठी ने ही 80 के दशक में बस्ती जिले में दलितों पर हुए सिसवां कांड का भंडाफोड़ किया था। इसी प्रकार चौधरी साहब के भारतीय क्रान्ति दल में भी बहुत से सवर्ण नेता थे जो गांवों की बात करते थे। कांग्रेस में तो ऐसे नेताओं की भरमार थी। कहने का मतलब यह है कि राजनीति को हम जातिवाद के खांचे में बन्द न करें बल्कि इसे उसमें से निकालें और वंचितों के हित की बात करें।

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