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बिहार में सियासत की नई गोटियां !

बिहार राज्य की सबसे बड़ी खूबी यह है कि आर्थिक रूप से देश के सबसे कमजोर राज्यों की श्रेणी में आने के बावजूद राजनीतिक रूप से सबसे सजग और चतुर माना जाता है।

12:06 AM Jul 03, 2020 IST | Aditya Chopra

बिहार राज्य की सबसे बड़ी खूबी यह है कि आर्थिक रूप से देश के सबसे कमजोर राज्यों की श्रेणी में आने के बावजूद राजनीतिक रूप से सबसे सजग और चतुर माना जाता है।

बिहार राज्य की सबसे बड़ी खूबी यह है कि आर्थिक रूप से देश के सबसे कमजोर राज्यों की श्रेणी में आने के बावजूद राजनीतिक रूप से सबसे सजग और चतुर माना जाता है। ऐसे कई अवसर आये हैं जब स्वतन्त्र भारत की राजनीति को इसी राज्य ने दिशा दी है। कई अवसरों पर इसे साम्यवाद से लेकर समाजवाद और राष्ट्रवाद की प्रयोगशाला तक कहा गया मगर यह भी हकीकत है कि 1989 में मंडल आयोग लागू होने के बाद इसे जातिवादी राजनीति की प्रयोगशाला भी माना गया। इसी राजनीति से बिहार की राजनीति में ‘लालू, पासवान व नीतीश’ की तिकड़ी का उदय हुआ मगर भाजपा की राष्ट्रवाद की मोदी लहर ने इस तिकड़ी को इस प्रकार ध्वस्त किया कि नीतीश बाबू झक मार कर भाजपा की गोदी में बैठ गये किन्तु अब भाजपा-नीतीश के पिछले 15 वर्ष से (केवल मई 2014 से फरवरी 2015 के दस महीने छोड़ कर) लगातार सत्ता में रहने से जमीनी स्तर पर  विसंगतियां जिस तरह जन्म ले रही हैं उसे देखते हुए आगामी नवम्बर महीने में होने राज्य विधानसभा चुनावों में राज्य की राजनीति वैचारिक व सैद्धान्तिक रूप से नये चरण में प्रवेश कर सकती है और जातिवादी राजनीति का अध्याय समाप्त हो सकता है। इसका अर्थ यह होगा कि ‘लालू-पासवान-नीतीश’ की तिकड़ी की जातिगत वोटबन्दी का खात्मा और वैचारिक स्तर पर भाजपा व कांग्रेस की राजनीति का उदय। 
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 इस विश्लेषण की कुछ राजनीतिक पंडित घनघोर आलोचना कर सकते हैं और कुतर्क तक कह सकते हैं परन्तु पिछले पांच वर्षों से बिहार के धरातल पर जो राजनीतिक वातावरण बन रहा है वह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि मूलभूत बदलाव की तरफ बिहार की जनता आगे बढ़ रही है जिसका उत्प्रेरक एक युवा कम्युनिस्ट नेता कन्हैया कुमार है। अभी तक चुनावी सफलताओं से दूर कन्हैया कुमार ने मतदाता की मानसिकता को झकझोरने का महत्वपूर्ण काम कर डाला है परन्तु राज्य में विपक्ष का इसे पक्का विकल्प नहीं माना जा सकता। सशक्त विपक्षी विकल्प देने के लिए किसी मध्यमार्गी  ऐसे कद्दावर नेता की जरूरत पड़ेगी जो ‘लालू-पासवान-नीतीश’ के कदों को स्वतः ही छांटता हुआ लगे।  इस मामले में कांग्रेस पार्टी जो गोटिया बिछा रही है उन्हें ध्यान से देखना होगा। कांग्रेस राज्य में नेतृत्व विहीनता की स्थिति में है। अतः श्री शरद यादव जैसे नेता को विपक्ष की बागडोर थमा कर यह कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कन्हैया कुमार के साथ गठजोड़ करने की फिराक में है। शरद यादव और कन्हैया कुमार का गठजोड़ राज्य की जातिवादी राजनीति को जड़ से निर्मूल करने में इसलिए सक्षम हो सकता है क्योंकि शरद यादव की छवि मूल जनता दल के संस्थापक सदस्य होने के बावजूद कभी भी किसी विशेष जाति के घेरे मंे नहीं रही और उन्हें डा. राम मनोहर लोहिया व चौधरी चरण सिंह की विरासत का वाहक माना गया। वह किसी विशेष राज्य से भी बन्धे हुए नहीं रहे और लोकसभा में कई राज्यों से जीत कर पहुंचते रहे।
 जातिवादी राजनीति के चरण से जनमूलक सैद्धान्तिक राजनीति के चरण में प्रवेश करने की इन गोटियों में ज्यादा खोट इसलिए नजर नहीं आता है क्योंकि बिहार मूलतः एक गरीब राज्य है जिस पर 1990 से लालू प्रसाद के उदय के बाद जातिवादी दबंगों का कब्जा रहा है मगर कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते लागू हुए लाॅकडाऊन की रंजजदा हकीकत ने बिहारी जनता को ‘अमीर-गरीब’ के बीच इस तरह बांट डाला है कि इसका असर लोगों के ‘दिल-ओ-दिमाग’ पर बहुत गहरे तक पड़ा है।  इससे नीतीश बाबू के पिछले 15 साल की सुशासन बाबू की छवि पूरी तरह बिगड़ चुकी है परन्तु राज्य में लालू जी के बेटों तेज प्रताप यादव व तेजस्वी यादव ने उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को विरासत में मिली एेसी ‘जायदाद’ बना डाला है जिसमें परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति का कोई जायज हक हो ही नहीं सकता। हाल ही में पार्टी के संस्थापकों में से एक डा. रघुवंश प्रसाद सिंह का इस्तीफा इसका पुख्ता प्रमाण है। इसका सीधा अर्थ है कि राजद की जातिवादी राजनीति बन चुकी है परन्तु विपक्ष के पास कोई विकल्प भी नहीं हैं जिसे कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी गठजोड़ बना कर पैदा करने की जुगाड़ में लग गये हैं  मगर यह इतना आसान भी नहीं है क्योंकि  दूसरी तरफ भाजपा व नीतीश बाबू के जनता दल के गठजोड़ के पीछे भी बिहार की कथित अगड़ी मानी जाने वाली जातियों के वोट बैंक की ताकत है जिसे प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी  की लोकप्रियता ने पिछड़ी व गरीब माने जाने वाली जातियों तक में विस्तार दिया था। यह समीकरण हमें 2019 के लोकसभा चुनावों में देखने को मिला था, परन्तु 2015 के विधानसभा चुनावों में जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद मिल गये थे तो राज्य में मोदी लहर काम नहीं कर सकी थी परन्तु इस वर्ष नवम्बर महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव पूरी तरह नये धरातल पर लड़े जाने हैं और यह धरातल साम्यवाद, समाजवाद और राष्ट्रवाद का होगा। बिहार का राजनीतिक धरातल मूल रूप से साम्यवाद और समाजवाद का पोषक रहा है।
 1962 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस राज्य की मुख्य प्रतिपक्षी पार्टी थी जबकि 1967 से यह जगह डा. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने ले ली। भाजपा केन्द्रीय भूमिका 2014 से मोदी लहर चलने पर केवल लोकसभा चुनावों में ही ले सकी।  विधानसभा चुनावों में इसे नीतीश बाबू पर ही निर्भर रहना पड़ा (2015 के विधानसभा चुनावों में अकेले जाने पर भाजपा को करारी हार मिली थी) परन्तु अब यह दौर समाप्ति के कगार पर दिखाई पड़ने लगा है जिसकी वजह से असली मुकाबला भाजपा व कांग्रेस के बीच में ही होगा और नीतीश बाबू भाजपा के साथ रहते हुए भी लटकन की तरह लटक सकते हैं। इसका कारण केवल मात्र शरद यादव व कन्हैया कुमार की जोड़ी बनेगी जो छात्र राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धान्तवादी तेवरों की संयोजक रहेगी। शरद यादव ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष के तौर पर ही की थी, जहां उन्होंने इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की थी। इसके बाद वह गरीब मजदूरों व कामगारों और किसानों की राजनीति करने लगे और जातिवाद के तमगे से अलग रहे।  राज्य में भाजपा ने भी 1962 के बाद से स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह के जमाने से अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की थी परन्तु उनके कद का नेता पार्टी अभी तक कोई दूसरा पैदा करने में असमर्थ रही है।  यदि पूर्णतः निष्पक्ष भाव से बिहार की राजनीति का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो नवम्बर के चुनाव नतीजे सीधे राष्ट्रीय राजनीति के कलेवर तय कर सकते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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