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भाजपा-जदयू की संयुक्त सामाजिक ताकत की तुलना में लोकसभा चुनाव में बिहार में विपक्ष का नुकसान तो साफ नजर आ ही रहा है। बिहार के बाहर भी कांग्रेस को सुकून नहीं मिलने जा रहा है, क्योंकि सहयोगी दलों के साथ सीटों के बंटवारे के झंझट में फंसी कांग्रेस का साथ जदयू ने वैसे वक्त में छोड़ा है, जब भारत जोड़ो न्याय यात्रा लेकर राहुल गांधी ने बिहार के सीमांचल में प्रवेश किया है।कांग्रेस के कुछ नेताओं को आशंका है कि झटकों का सिलसिला आगे भी जारी रह सकता है।28 दलों का कुनबा लेकर भाजपा को चुनौती देने के लिए अखाड़े की ओर बढ़ रही कांग्रेस का एक अहम सहयोगी साथ छोड़ चुका है, जिससे सड़क से लेकर सदन तक में ''सिपाहियों'' की संख्या घट गई है।
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दूसरी क्षति बिहार, उत्तर प्रदेश एवं झारखंड में भाजपा के विरुद्ध सामाजिक समीकरण के मोर्चे पर है। नीतीश कुमार जिस ''कुर्मी'' समुदाय से आते हैं, उसकी संख्या उक्त तीनों राज्यों में अच्छी है। बिहार में जातिवार गणना एवं आरक्षण के दायरे को 50 से बढ़ाकर 75 प्रतिशत करके नीतीश ने खुद को पिछड़ों के हमदर्द नेताओं की पंक्ति में आगे कर लिया था। जाहिर है, यह ताकत अब भाजपा के साथ है।
नीतीश के फैसले ने उन क्षेत्रीय दलों के महत्व को बढ़ा दिया है, जो अभी तक कांग्रेस की अकड़ में जकड़े हुए हैं। अब उनकी अपेक्षाएं बढ़ सकती हैं, जिससे सीट बंटवारे पर बातचीत में कांग्रेस को कम सीटों पर समझौते के लिए विवश होना पड़ सकता है। बंगाल में ममता बनर्जी ने पहले ही कांग्रेस को दो सीटों की हैसियत बता दी हैं। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने पंजाब में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है।
विपक्षी एकता के लिहाज से अबतक सबसे आसान दिख रहे महाराष्ट्र में भी कांग्रेस की चुनौतियां बड़ी हो सकती हैं, जहां उसका सिर्फ एक सांसद है, किंतु चाहत बीस सीटों की है। स्पष्ट है कांग्रेस की चुनौतियां जितनी विकट होती जाएंगी, भाजपा की मनोवैज्ञानिक बढ़त उतनी ही बड़ी होती जाएगी।