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‘याचना नहीं अब रण होगा’

गलवान घाटी में जिस बर्बरता से भारत के बीस निहत्थे वीर जवानों को चीन की ‘भेड़िया धसान’ सेना ने शहीद किया है उसका बदला लिये बिना भारत चैन से नहीं बैठ सकता।

01:05 AM Jun 20, 2020 IST | Aditya Chopra

गलवान घाटी में जिस बर्बरता से भारत के बीस निहत्थे वीर जवानों को चीन की ‘भेड़िया धसान’ सेना ने शहीद किया है उसका बदला लिये बिना भारत चैन से नहीं बैठ सकता।

‘याचना नहीं अब रण होगा’
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गलवान घाटी में जिस बर्बरता से भारत के बीस निहत्थे वीर जवानों को चीन की ‘भेड़िया धसान’ सेना ने शहीद किया है उसका बदला लिये बिना भारत चैन से नहीं बैठ सकता।  प्रत्येक भारतवासी अब यह देखने के लिए बेचैन है कि भारत किस तरह चीन को सबक सिखाता है क्योंकि चीन ने भारत की गैरत को ललकारने की जुर्रत कर डाली है। अतः चीन से अब 1962 का बदला लेने का उचित समय आ गया है। भारत की राष्ट्रवादी ताकतें लगातार 1962 को एक दुःस्वप्न समझ कर चीन को सबक सिखाने का सपना देखती रही हैं, अतः बदला ठीक चीनी तर्ज के जवाब में उसी तरह लिया जाना चाहिए जिस तरह 1962 में चीन की सेनाएं असम के तेजपुर तक आ गई थीं। अर्थात भारतीय सेनाओं को अब गलवान घाटी को ही नहीं बल्कि पूरे अक्साई चिन पर तिरंगा झंडा फहराने की ठान लेनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत होगी जो वह वर्तमान केन्द्रीय नेतृत्व में दिखाई पड़ती है क्योंकि भाजपा (जनसंघ) नेताओं का पूरा इतिहास इसी सपने को ताबीर में बदलने के बयानों से भरा पड़ा है। गलवान घाटी में हमारे ही इलाके में खड़े होकर हमारे सैनिक कमांडर कर्नल सुरेश बाबू को जिस तरह चीनियों ने शहीद किया है उसका बदला समूची भारतीय सेना के मनोबल को इस तरह ऊंचा रखेगा कि अक्साई चिन ही हमारी मंजिल होगी।
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 युद्ध हौसलों से लड़े जाते हैं और जिस लद्दाख में गलवान घाटी है उसी लद्दाख में मातृभूमि की रक्षा करने वाले मेजर शैतान सिंह का स्मारक है जिन्होंने 1962 के युद्ध में चीनियों को लद्दाख के मोर्चे पर पलक नहीं झपकने दी थी और मरते दम तक अपनी मशीनगन थामे वीरगति को प्राप्त हो गये थे। कुमाऊं रेजीमेंट के इस महान सैनिक को सच्ची श्रद्धांजलि देने का समय भी आ चुका है कि भारतीय सेनाएं अक्साई चिन पर तिरंगा फहरायें। हम शान्ति के पुजारी बेशक हैं और पड़ोसी से प्यार करने पर भी यकीन करते हैं परन्तु दगाबाज को सही सजा देना भी हमारी संस्कृति का अंग है। लाजिमी है कि चीन की खता का वाजिब जुर्माना भरवाये जाये और यह जुर्माना यही होगा कि उसके कब्जे में जो अक्साई चिन का इलाका 1962 से पड़ा हुआ है उसे उसके जबड़े में हाथ डाल कर वापस खींच लिया जाये क्योंकि किसी करार या समझौते को न मानने का ऐलान उसी ने किया है।
 निहत्थे बीस सैनिकों को गैर सैनिक तरीके से शहीद कर देना समझौतों को फूंक डालने की हिमाकत  थी। हमारा राष्ट्रवाद कहता है कि हम ईंट का जवाब पत्थर से ही न दें बल्कि दुश्मन को चारों तरफ से  घेर कर मय शस्त्रों के हलाक कर दें। कमाल है कि एेसे बुजदिल चीन की सेना के अफसरों के साथ हमारी वीर सेना के अफसर बातचीत करें?  सैनिक के शस्त्र बातचीत करते हैं एेसा हमने पाकिस्तान को बताया है। अब हमारी सेना के अफसर चीनी अफसरों से किस मुद्दे पर बातचीत करेंगे जबकि हमने देख लिया है कि चीन की सेना कोई सेना न होकर आवारा गुंडों का समूह है।
गई वो बात कि हो गुफ्तगू तो क्यूं कर हो 
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कहे से कुछ न हुआ तुम्हीं कहो क्यूं कर हो। 
जो चीनी सैनिक लगातार सवा महीने से गलवान घाटी के हमारे इलाके में नियन्त्रण रेखा के पार जमें हुए हैं उनसे हम इन दिनों के बीच बात ही कर रहे थे न कि कोई क्रिकेट मैच खेल रहे थे। नियंत्रण रेखा पर शान्ति और सौहार्द बनाये रखने के लिए जितने भी समझौते अभी तक हुए हैं उन्हीं सबका पालन करते हुए भारत ने छह जून को अपने लेफ्टिनेंट जनरल हरेन्द्र सिंह को चीनी सैनिक अधिकारियों के पास भेजा था मगर उसका जवाब 15 जून को 20 निहत्थे भारतीय सैनिकों की शहादत से दिया गया तो भारत ने फिर से अपने मेजर जनरल को बातचीत करने के लिए भेज कर क्या कमजोरी का परिचय दिया? कूटनीति सैनिकों का काम नहीं है यह राजनयिकों का काम है। सैनिक का धर्म युद्ध क्षेत्र में दुश्मन का सफाया करना होता है।
 यह अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने भी 1947 में तब कहा था जब पाकिस्तानी फौजों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था। बापू ने तब कहा था कि भारतीय सेनाओं को कश्मीर की रक्षा  के लिए अपने सैनिक धर्म का पालन करना चाहिए।  बेशक भारत ‘बुद्ध’ का पुजारी है परन्तु रणचंडी का भी यह उपासक है जिसने दैत्य शक्तियों का संहार किया था।
 चीन से हमने समझौते किये और समझा कि वह हमारी भौगोलिक सीमाओं का सम्मान करेगा परन्तु वह केवल अपनी सीमाएं बढ़ाने में ही यकीन रखता है। गलवान घाटी इलाका प्रत्यक्ष उदाहरण है जबकि पेगोंग-सो झील इलाके में भी वह आठ कि.मी. अन्दर तक घुसा हुआ है और हम समझौतों की शर्तों को रो रहे हैं। असल में चीन हमारा रास्ता अक्साई-चिन के करीब पहुंचने का रोकना चाहता है तो सबसे पहले अक्साई-चिन को ही वापस लेने की रणभेरी क्यों न बजाई जाये और घोषित किया जाये कि
‘‘याचना नहीं अब रण होगा 
जीवनजय या कि मरण होगा।’’ 
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Aditya Chopra

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