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उत्तर-दक्षिण का विभाजन गलत

01:12 AM Dec 08, 2023 IST | Aditya Chopra

भारत की परिकल्पना पूर्व-पश्चिम व उत्तर-दक्षिण में स्थित राज्यों को जोड़ कर ही वैदिक काल से लेकर आज तक होती रही है और इस देश की संस्कृति में जितना महत्व गंगा-जमुना-सरस्वती नदियों का है उतना ही दक्षिण की कृष्णा-कावेरी से लेकर नर्मदा और गोदावरी का भी है। भारत मूल रूप से धार्मिक यात्राओं का देश रहा है जिसके तहत इसमें बसने वाले लोग उत्तर से दक्षिण व दक्षिण से उत्तर तक वहां स्थित तीर्थ स्थलों की यात्रा करते रहे हैं। लोगों ने ही भारत को बनाया है और इसकी सीमाएं निर्धारित की हैं। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने देशाटन करके इसी तथ्य को मजबूती दी और भारत की चारों दिशाओं में चार पीठ स्थापित करके ऐसी व्यवस्था की कि उत्तर की पीठ में दक्षिण का धर्मोपदशक रहे और दक्षिण की पीठ में उत्तर का। इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम की पीठों की भी व्यवस्था रही। मगर हाल ही में तमिलनाडु के एक लोकसभा सांसद श्री डीएनवी सेंथिल कुमार ने हिन्दी भाषी उत्तर के राज्यों के बारे में गाय से जोड़ते हुए जो अभद्र ​टिप्पणी की उस पर उनकी पार्टी द्रमुक व स्वयं उन्होंने माफी मांग ली है मगर इससे उत्तर-दक्षिण के विभाजन का सवाल भी व्यर्थ में ही गर्मा गया है।
हम जब मथुरा के पास वृन्दावन तीर्थ में जाते हैं तो वहां के प्रसिद्ध ‘रंग जी’ का मन्दिर पूरी तरह दक्षिण भारत की वास्तुकला पर बना हुआ है। इसी प्रकार उत्तर भारत के अन्य धार्मिक स्थलों में भी हमें दक्षिण की मनमोहक व सुन्दर वास्तुकला के दर्शन हो जाते हैं। वास्तव में भारत प्रारम्भ से ही राजनैतिक प्राणियों का देश भी है। यदि एेसा न होता तो ढाई हजार साल पूर्व चाणक्य जैसा पश्चिम के शहर तक्षशिला (अखंड पंजाब) से चल कर पूर्व के नगर पाटलीपुत्र न पहुंचता और वहां राज कर रहे नन्द वंश का विनाश करके मौर्य वंश की स्थापना न करता। मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र सम्राट ‘अशोक महान’ ने जब बौद्ध धर्म की शरण ली तो उसने पूरे भारत को ही नहीं बल्कि पाटलीपुत्र से लेकर तेहरान (ईरान) तक पर अपना राज कायम किया परन्तु दक्षिण के वैष्णव पंथ के अनुयायी राजाओं को बौद्ध धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया और उनकी वैष्णव संस्कृति का सम्मान करते हुए वहां केवल अपने विशेषज्ञ दूत भेजे। मध्यकाल में सुल्तानी व मुगल बादशाह भी विन्ध्य पर्वत पार करते ही हांफने लगते थे।
अलाउद्दीन खिलजी से लेकर औरंगजेब तक को दक्षिण में कभी भी पूर्ण सफलता नहीं मिल पाई और वे आंशिक रूप से कामयाब होने को ही अपनी उपलब्धि मानते रहे। जहां तक भाषा का प्रश्न है तो भारत में हजारों की संख्या में बोलियां हैं और सैकड़ाें से ऊपर लिपि में तब्दील होने वाली भाषाएं हैं। जहां तक गाय को पवित्र मानने का प्रश्न है तो उत्तर भारत में जिन्हें ग्वाला या यादव अथवा हीर कहा जाता है उन्हें दक्षिण भारत में ‘नन्द गोपाल’ कहा जाता है। यादव या अहीर भगवान कृष्ण के वंशज माने जाते हैं । दक्षिण भारत में इस समाज को श्रीकृष्ण के स्थायी भाव से ही जोड़ दिया गया है। जहां तक तमिल भाषा और तमिलनाडु की संस्कृति का सवाल है तो वह वेदपाठियों की संस्कृति से भीतर तक प्रभावित रही है और इसी वजह से यहां ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह के स्वर भी फूटते रहे। इसके बावजूद तमिल के प्रसिद्ध प्राचीन व आधुनिक कवियों व सन्तों की वाणी में भारत की परिकल्पना उत्तर भारत से उपजी परिकल्पना का भाव ही मुखर रहता आय़ा है परन्तु यहां चतुर्वर्ण सामाजिक पद्धति का विद्रूप स्वरूप भी समाज में व्याप्त रहा है जिसके विरुद्ध क्रान्तिकारी विचारक स्व. पेरियार ने विद्रोह किया और अपने इस अभियान में वह तमिल संस्कृति को ही अलग रूप में दिखाने लगे परन्तु इस राज्य में स्थित विश्व प्रसिद्ध मन्दिर गवाही देते हैं कि इनका भारत की मान्यताओं से ओत-प्रोत ‘देशज’ संस्कृति से ही गहरा सम्बन्ध है लेकिन हाल ही में राजनीतिक नेता जिस उत्तर-दक्षिण विभाजन को बीच में लेकर आ रहे हैं उससे स्वयं तमिलनाडु के लोग भी सहमत नहीं हो सकते। यदि ऐसा होता तो इस राज्य के शहर कोयम्बटूर में पंजाब व अन्य उत्तर भारतीयों की बहुलता न होती और ये वहां उद्योग-धंधे न जमाते।
हकीकत तो यह है कि तमिलनाडु में वाणिज्य व व्यापार में राजस्थान से गये मारवाड़ियों की भूमिका भी कम करके नहीं आंकी जानी चाहिए। उदाहरण के लिए देश के एक प्रसिद्ध उद्योग घराने ‘ एस्सार समूह’ का सम्बन्ध तमिलनाडु से ही है और इसके मालिक ‘शशिकान्त रुइया व रविकान्त रुइया बन्धु’ फर्राटेदार तमिल बोलते हैं। अलग-अलग राजनैतिक दल के नेता एक-दूसरे पर चाहे जो आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहें मगर तमिलनाडु के ही राजनेता स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की कांग्रेस से अलग होकर स्थापित की गई ‘स्वतन्त्र पार्टी’ 70 के दशक तक उत्तर व पश्चिम भारत के कई राज्यों में आज की भाजपा के पुराने स्वरूप जनसंघ से भी ज्यादा लोकप्रिय थी। 1967 में लोकसभा में इसके 44 सांसद थे जबकि जनसंघ के 33 थे। 1967 में गुजरात से स्वतन्त्र पार्टी के 11 सांसद थे जबकि कांग्रेस के केवल 10 ही थे। इसी प्रकार 1967 में ही जनसंघ के नेता स्व. दीन दयाल उपाध्याय ने अपनी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन केरल के कालीकट शहर में व्यर्थ ही नहीं रखवाया था। अतः उत्तर-दक्षिण के विभाजन को हम अपने दिमाग से निकाल दें और केवल भारत के लोगों की बात करें जिनकी विविधता में अद्भुत आकर्षण है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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