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न्यायपालिका से ही अब आखिरी उम्मीद

03:42 AM May 10, 2024 IST | Shera Rajput
न्यायपालिका से ही अब आखिरी उम्मीद

बहुत दिन बीत गए थे। दिन नहीं वर्षों। जब से मेरी कलम का यह संघर्ष चल रहा था कि लिव-इन रिलेशनशिप अर्थात सहजीवन अर्थात बिना विवाह के विवाहित-अविवाहिता पुरुष-स्त्री किसी भी दूसरे पुरुष-स्त्री के साथ इकट्ठे रह सकते हैं। सीधा अभिप्राय यह कि पति-पत्नी की तरह रहेंगे इससे सामाजिक कद्रों कीमतों की कितनी हानि हुई कोई ध्यान देने को तैयार नहीं। न सरकार, न देश के न्यायविद्, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से सहजीवन को मान्यता भी मिल गई, इनके अधिकार भी तय किए गए और इन अवैध संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों को भी कानून की छतरी मिल गई। कितनी ऐसी युवतियां हैं पहले सहजीवन में रह लेती हैं उसके बाद पुरुष साथी पर बलात्कार का केस दर्ज करवा देती हैं।
कानून की कलम वाले भी यह नहीं सोचते कि ये संबंध सहमति से बनाए गए हैं, किसी ने अपहरण नहीं किया, कोई पिस्तौल के बल पर महिला को साथ नहीं ले गया फिर भी बलात्कार के केस दर्ज होते हैं। आत्महत्याएं भी इन्हीं संंबंधों के कारण बहुत अधिक हुईं, परिवार भी टूटे, पर अब नए सिरे से आशा की किरण छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एक निर्णय से देश, समाज को मिली है। उच्च न्यायालय ने यह घोषणा कर दी है कि लिव-इन रिलेशनशिप भारतीय संस्कृति के लिए कलंक है। यह शत-प्रतिशत सत्य है, पर न जाने इतनी देर क्यों कर दी। यह निर्णय वर्षों पहले क्यों नहीं देश के सर्वोच्च न्यायालय ने ले लिया।
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गौतम भादुड़ी और न्यायमूर्ति संजय एस. अग्रवाल की खंडपीठ ने पहले से विवाहित अब्दुल हमीद सिद्दीकी आयु 43 वर्ष और 36 वर्षीया एक हिंदू महिला के लिव- इन रिलेशनशिप से जन्मे एक बच्चे के संरक्षण का अधिकार देने के संंबंध में जो याचिका आई उसका निपटारा करते हुए यह निर्णय दिया। पहले से विवाहित पुरुष पार्टनर को बच्चा सौंपने से इंकार किया।
मुझे ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ न्यायालय ने देश को एक दिशा दी है और समाज को सहजीवन से दूर रहने का मार्ग भी दिखाया है, संदेश दिया है। आज की हालत तो यह हो गई कि सहजीवन में रहने वाले सरकारों से सुरक्षा मांगते हैं और अधिकतर उन्हें मिल भी जाती है। यह स्वस्थ समाज की संरचना में सबसे बड़ी बाधा बन गई थी।
इसी प्रकार अपने देश में ऐसे अनेक मामले हैं जहां झूठे केसों में फंसाकर वर्षों तक जेलों में नारकीय यातनाएं भोगने के लिए उन्हें भी विवश किया जाता है जिन्होंने कोई अपराध किया ही नहीं।
किसी मानव अधिकार आयोग ने इन बेचारों की हालत पर ध्यान नहीं दिया जो बिना अपराध जेलों में सड़ते हैं, जिनके परिवार उजड़ गए। बहुत पहले पढ़ा था वाराणसी के एक गांव में रानी नामक महिला ने भी कुछ ऐसा ही किया था। उसके पति पर हत्या का अपराध लगा। वह जेल गया। बाद में रानी सही सलामत मिल गई। एक नहीं अनेक करुण गाथाएं हैं, पर अब पुन: उत्तर प्रदेश की बरेली की अदालत ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। एक युवक अजय उर्फ राघव निर्दोष थे, पर दुष्कर्म के झूठे केस में उन्हें 1653 दिन जेल में रहना पड़ा। उसके पश्चात यह कह सकते हैं कि सत्य की जीत हुई। युवती का झूठ सामने आया। वह विरोधाभासी बयान देती रही जिससे सेशन कोर्ट को यह विश्वास हो गया कि राघव निर्दोष है और बिना कारण उसे जेल में सड़ना पड़ा लेकिन ऐसा निर्णय भारत के इतिहास में पहली बार आया कि अदालत ने झूठे आरोप लगाने वाली युवती जो पहले पीड़ित मानी जाती थी उसे उतने दिनों के लिए ही जेल में भेज दिया जितने दिन वह निर्दोष युवक मिथ्या आरोपों के कारण जेल में रहा था। इसके साथ ही पांच लाख 88 हजार रुपये जुर्माना भी उस महिला पर लगाया गया जो उसी युवक को मिलेगा।
वैसे देश में न्यायालयों को और विधि विशेषज्ञों को बहुत गंभीर चिंतन के बाद यह निर्णय ले लेना चाहिए कि जो किसी पर भी झूठे आरोप लगाकर उसे अपमानित करता है, जेल में भेजता है उस व्यक्ति को कठोर दंड दिया जाए। जो लोग इनके समर्थन में अदालतों में गवाह बनकर जाते हैं उन्हें भी ऐसा दंड दिया जाए कि वे भविष्य में कोई भी झूठी गवाही देने जाने से पहले सौ बार सोचें।
एक अन्य निर्णय में समाज को दिशा देने वाला फैसला पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में इसी सप्ताह दिया है। हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत तलाक के आदेश को चुनौती देने वाली पत्नी की याचिका को न्यायालय ने खारिज कर दिया। ये सभी निर्णय आज समाज को दिशा भी दिखाते हैं, सहजीवन को नकारते हैं और माननीय न्यायाधीशों के हृदय में जो मानवता की भावना है उसको भी प्रकट करते हैं। अपाहिज बहन और मां के लिए पुत्र, भाई का कर्त्तव्य है इसे मान्यता देकर माननीय न्यायाधीशों ने अत्यंत ही ऐतिहासिक निर्णय दिया। मेरा तो इतना निवेदन है समाज के नेताओं से, समाजसेवियों से कि वे दुखियों का सहारा बनें, बेसहारों को संरक्षण दें तो उन सबको न्याय मिले जो आर्थिक बोझ में दबे हैं और अदालतों की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते। निष्कर्ष यही कि अब आखिरी सहारा न्यायालय ही है। नेताओं से आशा व्यर्थ है।

- लक्ष्मीकांता चावला

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