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दल-बदल न करने की ‘शपथ’

भारत में सख्त दल-बदल कानून बन जाने के बावजूद जिस तरह गोवा जैसे छोटे से राज्य में कांग्रेस पार्टी चुनाव में खड़े अपने प्रत्याशियों से चुने जाने के बाद दल न बदलने के लिए शपथ उठवा रही है, उसकी असल वजह यह है कि सत्ता में लिप्त राजनीति के खिलाडि़यों ने दल-बदल कानून का भी तोड़ इजाद कर लिया है

01:20 AM Feb 08, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत में सख्त दल-बदल कानून बन जाने के बावजूद जिस तरह गोवा जैसे छोटे से राज्य में कांग्रेस पार्टी चुनाव में खड़े अपने प्रत्याशियों से चुने जाने के बाद दल न बदलने के लिए शपथ उठवा रही है, उसकी असल वजह यह है कि सत्ता में लिप्त राजनीति के खिलाडि़यों ने दल-बदल कानून का भी तोड़ इजाद कर लिया है

दल बदल न करने की ‘शपथ’
भारत में सख्त दल-बदल कानून बन जाने के बावजूद जिस तरह गोवा जैसे छोटे से राज्य में कांग्रेस पार्टी चुनाव में खड़े अपने प्रत्याशियों से चुने जाने के बाद दल न बदलने के लिए शपथ उठवा रही है, उसकी असल वजह यह है कि सत्ता में लिप्त राजनीति के खिलाडि़यों ने दल-बदल कानून का भी तोड़ इजाद कर लिया है जिसकी वजह से कई राज्यों में सत्ता परिवर्तन भी हमें देखने को मिला है। लोकतन्त्र में जब कोई प्रत्याशी किसी विशेष राजनैतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़ कर विजयी होता है तो लोगों को उससे अपेक्षा होती है कि वह अपने राजनैतिक धर्म का पालन करेगा और निजी लाभ के लिए दल-बदल नहीं करेगा परन्तु देखने में यह आ रहा है कि राजनैतिक दल किसी राज्य में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए ऐसे  जोड़-तोड़ का सहारा लेते हैं जिससे चुने हुए सदन में उन्हें बहुमत प्राप्त हो सके और इस क्रम में वे अपने विरोधी दलों के विधायकों के बीच तोड़फोड़ इस प्रकार करते हैं कि उन पर दल-बदल विरोधी कानून लागू न हो सके। चूंकि दल बदल विरोधी कानून के तहत किसी भी पार्टी का विभाजन तभी हो सकता है जब उसके दो तिहाई विधायक अपना अलग गुट या दल बनाने की घोषणा कर दें अतः इसके तोड़ में यह नुस्खा निकाला गया कि यदि सत्ता परिवर्तन के लिए कम विधायकों की जरूरत हो तो उनका सदन से ही इस्तीफा करा कर उसकी सदस्य शक्ति ही कम कर दी जाये जिससे सत्ता पलटने वाली या इसे कब्जाने वाली पार्टी का सदन में बहुमत साबित हो सके।
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दुर्भाग्य से इस नुस्खे की शुरूआत भी सबसे पहले 2001 के करीब गोवा से ही हुई थी। गोवा छोटा राज्य है और इसकी विधानसभा की सदस्य संख्या केवल 40 है अतः सदन में बहुत कम बहुमत की सरकार को गिराने के लिए यह नुस्खा बहुत कामयाब रहा और बाद में इसका अनुसरण देश के अन्य बड़े राज्यों जैसे कर्नाटक व मध्य प्रदेश में भी हुआ। इन राज्यों में थोक के भाव से सत्तारूढ़ दलों के विधायकों ने इस्तीफे दिये जिससे राज्य के लोगों द्वारा मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार व कर्नाटक की कुमार स्वामी सरकार धराशायी हो गई। संयोग से ये दोनों ही सरकारें कांग्रेस या उसके द्वारा समर्थित सरकारें थीं अतः इस पार्टी को गोवा के चुनावों में यह लगा कि मतदान से पूर्व प्रत्याशियों से दल बदल न करने का हलफ उठवाने से उहें चुनने वाली जनता का दबाव उन पर लगातार बना रहेगा।
दूसरा कारण यह भी है और वह ज्यादा मौजूं भी है क्योंकि पिछले चुनावों में गोवा में कांग्रेस पार्टी के सबसे ज्यादा 17 विधायक चुन कर आये थे मगर वे निजी स्वार्थों के चलते दल बदलते गये लेकिन कांग्रेस ने इस बुराई की तरफ से देखा क्योंकि भारत के आठ उत्तर-पूर्वी राज्यों में से कुछ ऐसे  छोटे राज्य भी हैं जहां स्वयं मतदाताओं के संगठन चुनाव में खड़े प्रत्याशियों से यह हलफनामा भरवाते हैं कि वे चुने जाने के बाद अपनी पार्टी नहीं बदलेंगे और यदि वे ऐसा  करते हैं तो सबसे पहले उन्हें इस्तीफा देकर नई पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ना होगा। यह जनता द्वारा शुरू की गई ही एक स्वस्थ परंपरा है जिससे लोकतन्त्र ‘कारोबार’ बनने से बचता है परन्तु भारतीय लोकतन्त्र में दल- बदल का इतिहास भी स्वतन्त्रता के बाद से काफी पुराना है जिसकी शुरूआत ओडिशा से हुई थी और 1956 में जब इस राज्य के मुख्यमन्त्री महान गांधीवादी नेता स्व. नब कृष्ण चौधरी थे तो रात-दिन के बीच होने वाले दल-बदल से इतने तंग हो गये थे कि वह मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा देकर मुख्यमन्त्री निवास से अपने सिर पर कुछ सामान की गठरी बांधे सपत्नीक कटक निकट के गांधी आश्रम में चले गये थे। तब प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने मुम्बई के राज्यपाल पद पर आसीन डा. हरेकृष्ण मेहताब को बुला कर उन्हें ओडिशा का मुख्यमन्त्री बनने की सलाह दी थी और डा. मेहताब ने तब दल-बदल की वजह से कांग्रेस सरकार पर बहुमत के खतरे को राज्य की गणतन्त्र परिषद पार्टी से सहयोग कर साझा सरकार बनाई थी। इस साझा सरकार का समर्थन उस समय स्वयं पं. नेहरू ने संसद में किया था।
उस समय भारत में यह पहली साझा सरकार बनी थी परन्तु इसके बाद 1967 में जब देश के नौ राज्यों में कांग्रेस पार्टी बहुमत के किनारे पर पहुंची तो इस पार्टी को ही अधिसंख्य विधायक छोड़ कर गये और उन्होंने विपक्षी दलों के साथ मिल कर संविद सरकारों का गठन किया मगर इन सरकारों पर भी विधायकों के दल-बदल के बादल लगातार मंडराते रहे और हरियाणा में बनी स्व. राव वीरेन्द्र सिंह की संविद सरकार में तो ‘आया राम-गया राम’ का मुहावरा इस तरह प्रचिलित हुआ कि राज्य सरकार किसी सरकारी ठेके में तब्दील होती सी दिखी।
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इसके बाद हरियाणा व सिक्किम राज्य में 70 के दशक में ऐसे  वाकये भी पेश आये जब केन्द्र में सत्ता बदल होने पर इन राज्यों की सरकार ने रातों-रात अपनी पूरी पार्टी ही बदल डाली। इसके काफी लम्बे अन्तराल के बाद केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार आने पर दल-बदल कानून आया और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान उसमें और सख्त संशोधन हुआ परन्तु वर्ष 2000 के बाद इस कानून की काट निकालने का फार्मूला ढूंढा गया। यह संयोग ही कहा जायेगा कि यह फार्मूला इजाद करने वाले भी कांग्रेस के बहुत कुशाग्र नेता माने जाने वाले स्व. प्रियरंजन दासमुंशी थे। 2001 में वह अखिल भारतीय कांग्रेस के गोवा प्रभारी थे। अतः गोवा के चुनावों से पूर्व ही कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों पर जनता का दबाव बनाने के लिए जो प्रक्रिया शुरू की है उसे जनसमर्थन मिल रहा है औऱ आम आदमी पार्टी ने भी इसी तर्ज पर अपने प्रत्याशियों को शपथ दिलाई है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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