तेल का खेल और अच्छी सेहत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मोटापे की समस्या और तेल की खपत को कम करने की…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मोटापे की समस्या और तेल की खपत को कम करने की आवश्यकता पर बात की, तो यह जनमानस से जुड़ने वाला संदेश बन गया। यह कोई एक बार कही गई बात नहीं थी, बल्कि प्रधानमंत्री ने विभिन्न मंचों से इस विषय पर ध्यान आकर्षित किया मुख्यतः राष्ट्रीय खेलों के उद्घाटन समारोह और लगभग दो महीने पहले अपने ‘मन की बात’ रेडियो कार्यक्रम में।
प्रधानमंत्री मोदी ने तब रसोई के तेल की अत्यधिक खपत को मोटापे में वृद्धि का प्रमुख कारण बताया और लोगों से आग्रह किया कि वे घरेलू स्तर पर तेल के उपयोग को घटाएं। उन्होंने कहा था, “हमारे घरों में महीने की शुरूआत में राशन आता है, अगर अब तक आप हर महीने दो लीटर तेल लाते थे, तो इसे कम से कम 10 प्रतिशत घटा दें। रोजमर्रा में उपयोग होने वाले तेल की मात्रा में 10 प्रतिशत की कमी लाएं।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि मोटापा, मधुमेह और हृदय रोगों के जोखिम को बढ़ाता है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने भी इस विषय पर चिंता जताते हुए यह सुझाव दिया है कि तेल का चयन भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने सरसों, मूंगफली, सूरजमुखी या राइस ब्रैन जैसे विभिन्न तेलों के संयोजन को सर्वोत्तम विकल्प बताया है। प्रचलित धारणा के विपरीत, बहुचर्चित ऑलिव ऑयल या एवोकाडो ऑयल के उपयोग को लेकर अधिक सुझाव नहीं हैं- ये मुख्यतः अभिजात वर्ग और सुविधा संपन्न लोगों की पसंद माने जाते हैं।
इस मिथक को तोड़ती हैं प्रसिद्ध पोषण विशेषज्ञ ऋजुता दिवेकर, जो देश की कई जानी-मानी हस्तियों की विश्वसनीय पोषण सलाहकार हैं। उनका कहना है, “हमेशा क्षेत्रीय तेलों का उपयोग करना सबसे अच्छा होता है। भारत की विविधता हर क्षेत्र के लिए अलग तेल उपलब्ध कराती है, और जहां आप हैं, वहां का स्थानीय तेल ही उपयोग में लाना चाहिए।”
इस संदर्भ में, दिवेकर तेल, फल और सब्ज़ियों के अंग्रेज़ी नामों को खारिज करते हुए कहती हैं, “हम मानते हैं कि जिन फलों या तेलों के नाम अंग्रेज़ी में होते हैं वही श्रेष्ठ हैं, जबकि हर देशज फल, तेल या सब्ज़ी में हमें कमी नज़र आती है, और हर आयातित फल समाधान लगता है। जब आप एवोकाडो, ऑलिव ऑयल या कीवी को सीताफल से तुलना करते हैं, तो ये विदेशी चीज़ें हमें ‘फैंसी’ लगती हैं, जबकि हमारी स्थानीय चीज़ें हर मायने में उनसे बेहतर हैं। इसी तरह, जो व्यक्ति दाल-चावल खाता है, अगर उसे क्विनोआ खिलाया जाए तो वह कभी वजन नहीं घटाएगा, बल्कि निराश हो जाएगा। हमारे स्वास्थ्य की संपूर्णता, हमारे थाली की संपूर्णता से ही आती है।” प्रधानमंत्री के तेल खपत में 10 प्रतिशत कटौती के सुझाव पर दिवेकर कहती हैं, “यह गणना करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, लेकिन पैकेट से खाने की आदत को कम करना एक अच्छा तरीका है। जितना पैकेट खुलेगा, उतना पेट फूलेगा। अगर आप पैकेट वालाखाना कम कर दें, तो तेल की खपत 10 प्रतिशत नहीं, उससे भी ज़्यादा घट सकती है। और खाना मंगाने वाले ऐप्स को हटाइए, घर का खाना ही सबसे अच्छा खाना है।”
करीना कपूर को चर्चित “साइज़ ज़ीरो” दिलाने वाली दिवेकर बताती हैं कि करीना ने यह फिटनेस आलू परांठा, दाल-चावल, केले और घर के खाने से हासिल की थी। “यही असली संदेश है आप जो कुछ खाएं, वह स्थानीय हो, मौसमी हो और पारंपरिक हो, तो आप बेहतरीन स्वास्थ्य में रहेंगे। इसे साइज़ ज़ीरो कहें, फिट कहें या कुछ और। हम दुबलेपन को स्वास्थ्य से जोड़ देते हैं, जबकि दुबला होना अच्छे स्वास्थ्य की गारंटी नहीं है।”
ऋजुता दिवेकर ने हाल ही में अपनी दसवीं पुस्तक ‘द कॉमनसेंस डाइट’ लॉन्च की है। उनके ग्राहकों में फिल्म सितारे जैसे आलिया भट्ट, सैफ अली खान और उद्योगपति अनिल अंबानी शामिल हैं।
जहां वह प्रधानमंत्री मोदी की इस बात से सहमत हैं कि अत्यधिक तेल से बीमारियां होती हैं, वहीं वह इस धारणा को खारिज करती हैं कि हर बीमारी के लिए अलग डाइट होती है। “बीमारी-विशेष डाइट जैसी कोई चीज़ नहीं होती- कि अगर कैंसर है तो यह खाओ, डायबिटीज़ है तो यह खाओ या कोलेस्ट्रॉल के लिए यह खाओ। आपको बस घर का बना संतुलित भोजन खाना चाहिए।”
दिवेकर ही अकेली नहीं हैं जो प्रधानमंत्री मोदी की बात से सहमत हैं। प्रधानमंत्री के बयान के तुरंत बाद, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने भी इसी भावना को दोहराते हुए सभी लोगों से अपील की कि वे तेल की खपत में 10 प्रतिशत की कटौती का संकल्प लें जिसे प्रधानमंत्री ने भी सराहा। इसके अलावा, प्रधानमंत्री की यह अपील डॉक्टरों, खिलाड़ियों और आम नागरिकों का भी समर्थन प्राप्त कर चुकी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र ने प्रधानमंत्री के संतुलित और पोषक आहार की अपील को रेखांकित किया, वहीं अभिनेता अक्षय कुमार ने भी ट्वीट कर लिखा: “कितनी सच्ची बात! मैं तो यह बरसों से कहता आ रहा हूं। बहुत अच्छा लगा कि प्रधानमंत्री ने इसे इतनी सटीकता से कहा। स्वास्थ्य है तो सब कुछ है प्रोसेस्ड फूड नहीं और कम तेल। भरोसा रखो पुराने देसी घी पर चलो, चलो, चलो।”
आम की बात करें तो, ऋजुता दिवेकर की राय भी कम विवादित नहीं रही। उन्होंने उस आम धारणा को नकारते हुए कहा कि मधुमेह से ग्रस्त लोगों को आम नहीं खाना चाहिए -यह मिथक गलत है। दिवेकर का कहना है कि न सिर्फ आम, बल्कि डायबिटिक लोगों को “सभी फल” खाने चाहिए। यह बात निश्चित ही डायबिटिक रोगियों के लिए राहतभरी है।
आम से आगे बढ़ते हुए, प्रधानमंत्री की यह बात देशवासियों के लिए एक चेतावनी के रूप में ली जानी चाहिए, जो मोटापे की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस) द्वारा की गई एक अध्ययन में स्कूल जाने वाले बच्चों में मोटापे को लेकर गंभीर चिंता जताई गई है। इस अध्ययन में सिर्फ वजन बढ़ना ही नहीं, बल्कि उच्च रक्त शर्करा, असामान्य कोलेस्ट्रॉल स्तर और हृदय रोगों के बढ़ते खतरे जैसे गंभीर पहलुओं को सामने लाया गया है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा समर्थित इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि यह समस्या मुख्य रूप से निजी स्कूलों में अधिक है, और विशेष रूप से लड़कों में। इससे भी चिंताजनक बात यह रही कि सरकारी स्कूलों में भी कम वजन वाले बच्चों में उच्च रक्तचाप और मेटाबॉलिक विकारों के शुरूआती लक्षण पाए गए, जो इस धारणा के विपरीत है कि जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां केवल मोटे बच्चों में ही होती हैं।
इस संदर्भ में, ऋजुता दिवेकर की रागी खीर पहल का उल्लेख करना ज़रूरी हो जाता है, जिसे कम से कम, सराहनीय कहा जा सकता है। दिवेकर के अनुसार, “स्वस्थ भोजन बच्चों का मूल अधिकार है। पोषण से भरपूर बच्चे ही गरीबी से बाहर निकलने का सबसे अच्छा अवसर प्राप्त कर सकते हैं।”
दिवेकर की यह परियोजना उनके पैतृक गांव सोनावे में चलाई जा रही है, जहां हर दिन 400 आदिवासी बच्चों को भोजन दिया जाता है। इसकी खास बात है नाश्ते में दी जाने वाली रागी खीर, जिसका उद्देश्य बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा, दोनों के स्तर को बेहतर बनाना है।
चाहे वह प्रधानमंत्री हों, फिल्मी हस्तियां हों या पोषण विशेषज्ञ, अब समय आ गया है कि हम सब इस स्थिति पर गंभीरता से ध्यान दें। हमें आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करनी होगी और देश की सेहत सिर्फ वयस्कों की नहीं, बल्कि बच्चों और कमजोर वर्गों की भी जिम्मेदारी लेनी होगी और जैसा कि दिवेकर कहती हैं, सरकारी स्तर पर नीतिगत हस्तक्षेप अत्यंत आवश्यक है और प्रधानमंत्री की अपील इसकी एक सकारात्मक शुरूआत है। क्या भारत सुन रहा है?