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लोकपाल और नेक-नीयत

जब केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और पाकिस्तान के मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में लगातार नोकझोंक होती रहती थी, क्योंकि एक तरफ आतंकवाद

10:44 PM Jul 03, 2018 IST | Desk Team

जब केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और पाकिस्तान के मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में लगातार नोकझोंक होती रहती थी, क्योंकि एक तरफ आतंकवाद

जब केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और पाकिस्तान के मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में लगातार नोकझोंक होती रहती थी, क्योंकि एक तरफ आतंकवाद की घटनाओं में कोई कमी नहीं हो रही थी और दूसरी तरफ सीमा पर पाकिस्तान गोलाबारी करने से बाज नहीं आ रहा था तो लोकसभा में श्री वाजपेयी ने कहा था कि हमारा पड़ौसी उन अंतर्राष्ट्रीय सन्धियों का खुलेआम उल्लंघन करने से बाज नहीं आ रहा है जिनके प्रति उसने समर्पण की कसम खाई हुई है। इस सन्दर्भ में श्री वाजपेयी ने शिमला समझौते का नाम लिया तो इसी सदन में विपक्षी पार्टी कांग्रेस के मुख्य सचेतक स्व. प्रियरंजन दास मुंशी ने चुटकी लेते हुए कहा कि आपने तो उस समय इस समझौते का कड़ा विरोध किया था? इस पर श्री वाजपेयी ने बिना रक्षात्मक हुए जो जवाब दिया था उसे सुनिये “श्री वाजपेयी ने कहा कि विपक्ष में रहते हुए बहुत कुछ बोलना पड़ता है। कुछ एेसी बातें भी कहनी पड़ती हैं जो पूरी तरह सटीक नहीं होतीं मगर जब सत्ता आती है तो सही मूल्यांकन करना पड़ता है। विपक्ष मंे रहकर भी हमें राजनीति तो करनी होती है।

अतः विपक्ष मंे रहने के तकाजे को पूरा करना पड़ता है।” सभी जानते हैं कि 1972 में स्व. इंिदरा गांधी ने बंगलादेश युद्ध के बाद पाकिस्तान के साथ जो शिमला समझौता किया था उसमें दोनों देशों के सभी प्रकार के मसलों को केवल शान्ति वार्ता के रास्ते से सुलझाने का वादा लिया गया था मगर उस समय दिल्ली के रामलीला मैदान में ही जनसंघ (अब भाजपा) ने एक महती जनसभा करके शिमला समझौते की प्रतियां श्री वाजपेयी के नेतृत्व में ही जलाई थीं। उस समय श्री वाजपेयी ने कहा था कि ‘इंदिरा जी ने समझौता करके पाकिस्तान के साथ रियायत बरतने का काम किया’ मगर सत्ता में आने पर श्री वाजपेयी का इसी शिमला समझौते ने बचाव किया और उन्होंने जनवरी 2004 में लाहौर की यात्रा करके इसी करार की तर्ज पर लाहौर घोषणापत्र पर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ से हलफ लिया। ठीक एेसा ही मामला भारत-रूस रक्षा सन्धि पर भी हुआ था मगर सत्ता मंे आने पर बतौर प्रधानमन्त्री श्री वाजपेयी ने इस सन्धि के भारत के राष्ट्रीय हित में होने का एेलान किया था।

दरअसल हमें यह समझना होता है कि विपक्ष और सत्ता में पाला बदलते ही किसी भी राजनैतिक दल पर जो जिम्मेदारियां बढ़ती हैं वे राजनीति से ऊपर होती हैं और उनमें दलगत नजरिये का कोई दखल नहीं होता। ठीक यही मसला आज लोकपाल संस्था के गठन को लेकर पैदा हो रहा है जिसकी तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया है। पूरा भारत जानता है कि लोकपाल के मुद्दे पर 2012 से ही भाजपा समेत विभिन्न विपक्षी दलों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव तो भ्रष्टाचार को केन्द्र में रखकर ही हुए थे। तत्कालीन मनमोहन सरकार को भाजपा नेताओं ने भ्रष्टतम सरकार कहने तक से गुरेज नहीं किया था।

संसद में यह नारा खूब गूंजा कि ‘अब तो यह स्पष्ट है –मनमोहन सरकार भ्रष्ट है।’ इसके साथ ही आजकल दिल्ली के सूरमा बने घूम रहे आम आदमी पार्टी के नवोदित नेताओं ने श्री अन्ना हजारे के नेतृत्व में एेसा कोहराम मचाया कि लोकपाल की नियुक्ति होते ही पूरे देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा। पाठकों को याद होगा कि उस समय भी मैं लगातार यह लिख कर चेताता रहता था कि लोकपाल और भ्रष्टाचार का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार रोकने के लिए हम दरोगा के ऊपर पुलिस कप्तान और उसके ऊपर वरिष्ठ कप्तान व महानिरीक्षक और महानिदेशक नियुक्त करते चले जायें मगर जमीनी स्थिति की तरफ ध्यान दें। लोकपाल नियुक्ति के मुद्दे पर भाजपा स्वयं ही फंसी है क्योंकि विपक्ष में रहते हुए उसने एेसा माहौल बनाया कि मानों मनमोहन सरकार सिवाय भ्रष्टाचार करने के कोई दूसरा काम ही नहीं कर रही है जबकि हमारे सामने कथित 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले का जो सच सामने आया उसने मनमोहन सरकार के निन्दकों के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसका डाली। उस समय जोर-शोर से भाजपा कह रही थी कि प्रधानमन्त्री को भी लोकपाल के दायरे में डाला जाना चाहिए।

यह काम भी इस पार्टी ने बिना भविष्य की स्थिति के बारे में विचारे ही विपक्ष की रड़क में किया। लोकपाल के दायरे में प्रधानमन्त्री को लाने का परोक्ष अर्थ होता है पूरी संसद को एेसे संस्थान के समक्ष जवाबदेह बना देना जिसका चयन इस देश के सवा सौ करोड़ लोग अपने एक वोट के पवित्र अधिकार से करते हैं और हमारा संविधान इसी संसद के अधिकारों की महीन व्याख्या करता है। प्रधानमन्त्री संसद के प्रति जवाबदेह होता है और इसमें बैठे प्रत्येक सांसद को यह अधिकार होता है कि वह प्रधानमन्त्री से बिना खौफ जवाबदेही मांग सके। इसके साथ ही प्रधानमन्त्री पर भी वही भ्रष्टाचार निरोधक कानून लागू होता है जो किसी सरकारी चपरासी पर होता है लेकिन यह सवाल पूरे देश की प्रतिष्ठा और गरिमा से भी जुड़ा हुआ है। यदि किसी प्रधानमन्त्री पर लोकपाल जांच का कम शुरू कर देता है तो उसकी छवि अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते समय एेसे नेता की हो जायेगी जिसकी विश्वसनीयता अपने ही देश में सन्देह के घेरे में है।

अतः यह बेवजह नहीं था कि स्व. जयललिता ने लोकपाल विधेयक के इस प्रावधान का पुरजोर विरोध किया था और यह विरोध भाजपा को किसी प्रकार की रियायत देने की गरज से नहीं किया गया था बल्कि भविष्य को देखते हुए किया गया था। बिना शक यह आश्चर्य का विषय है कि अभी तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं की गई है। यदि संसद के दोनों सदन इस लोकपाल विधेयक को पारित कर चुके हैं तो फिर कठिनाई कहां है? जाहिर है कि कठिनाई हमारी उस राजनीति में है जो सत्ता मंे आने के लिए हर प्रकार के झूठ-सच का सहारा लेती है मगर जब विपक्ष को सत्ता आम जनता यह सोच कर सौंप देती है कि वह शासन का मिजाज बदलेगा तो उसके हाथ-पांव फूलने लगते हैं मगर किसी भी तौर पर कोई भी सत्ता मंे बैठा दल विपक्षी दलों पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि वह पिछले शासन के कारनामों की वजह से हालात नहीं बदल पा रहा है। अपनी विफलता का ठीकरा जब विपक्ष के सिर पर रखकर फोड़ने की कोशिश की जाती है तो यह सत्ता में रहने के नाकाबिल होने की सनद ही होती है। श्री वाजपेयी का उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि सत्ताधीशों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और सच्चे दिल से हकीकत को स्वीकार करना चाहिए, वैसे हमारे संविधान में राष्ट्रपति ही ‘राष्ट्रपाल’ होते हैं मगर सत्ता बदले साढे़ चार साल पूरे होने के बावजूद लोकपाल का नियुक्त न होना इस बात का सबूत है कि सरकार संवैधानिक व व्यावहारिक कठिनाइयों को समझने की कसरत मंे ‘प्राणायाम पर प्राणायाम’ कर रही है।

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