एक देश -एक चुनाव
भारत में ‘एक देश-एक चुनाव’ मुद्दे पर बहस…
भारत में ‘एक देश-एक चुनाव’ मुद्दे पर बहस नई नहीं है। इस बहस के कई पहलू भी रहे हैं। पूर्व में भाजपा नेता व भूतपूर्व उप प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री श्री लाल कृष्ण अडवानी यह मांग उठाते रहे हैं कि देश में विधानसभाओं से लेकर लोकसभा का कार्यकाल निश्चित होना चाहिए अर्थात पांच साल से पहले कोई भी चुना हुआ सदन भंग नहीं होना चाहिए। उन्होंने ही सबसे पहले यह सुझाव दिया था कि यदि पांच साल के दौरान किसी सदन में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा जाता है तो उसकी एवज में सदन के भीतर नई सरकार के गठन के लिए विरोधी पक्ष के पास आवश्यक बहुमत भी होना चाहिए जिससे सत्ता पर काबिज सरकार के स्थान पर नई सरकार सदन की शेष अवधि के लिए सत्ता पुख्ता तौर पर संभाल सके।
ऐसी व्यवस्था जर्मनी जैसे लोकतान्त्रिक देश में है। श्री अडवानी के कहने का मतलब यही था कि जब लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल पांच साल सुनिश्चित रहेगा तो अविश्वास प्रस्ताव वैकल्पिक सरकार के गठन की शर्त के बाद ही आयेगा और बार-बार होने वाले मध्यावधि चुनावों को टाला जा सकेगा। अतः अविश्वास प्रस्ताव उसी सूरत में लाया जाना चाहिए जब वैकल्पिक सरकार के गठन की पक्की व्यवस्था हो जाए, क्योंकि सदन के कार्यकाल की अवधि निश्चित है। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी एक देश-एक चुनाव के बहुत बड़े समर्थक माने जाते हैं और इसके लिए उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की थी।
श्री कोविन्द ने पिछले साल ही अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी थी और पूरे देश में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने की संस्तुति की थी। इस रिपोर्ट के आधार पर पिछले साल दिसम्बर महीने में सरकार इस बाबत एक विधेयक लोकसभा में लाई औऱ सदन ने यह विधेयक संसद की संयुक्त समिति की जांच के लिए भेज दिया। यह संयुक्त समिति भाजपा के लोकसभा सदस्य श्री पी.पी. चौधरी की अध्यक्षता में लोकसभा व राज्यसभा के सांसदों को लेकर गठित की गई जिसमें उन समेत 41 सदस्य हैं। इस समिति को विधेयक पर विचार करने के लिए संसद के आगामी वर्ष कालीन सत्र तक का समय दिया गया।
श्री चौधरी ने हाल ही में अपनी समिति के कार्यों के बारे में एक अंग्रेजी अखबार से कहा कि यदि मौजूदा विधेयक संसद में पारित हो जाता है तो 2034 तक ही लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो पायेंगे, मगर समिति अपनी तरफ से भी विधेयक के अलावा कुछ औऱ सुझाव दे सकती है जिन्हें मानना या न मानना संसद के अधिकार क्षेत्र में है। वैसे गौर से देखा जाये तो सैद्धान्तिक रूप से एक देश-एक चुनाव का विचार गलत नहीं है और इससे भारत के संघीय ढांचे पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता है। बस इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है। समिति जिस विधेयक पर विचार कर रही है वह संविधान संशोधन का विधेयक ही है। व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं लगता है, क्योंकि हर राज्य के चुनाव अलग-अलग तिथियों पर तभी होते हैं जब इन राज्यों के सदन का पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होता है।
लोकसभा चुनावों के साथ राज्यों के चुनाव कराने के लिए सभी राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकालों को लोकसभा के चुनावों की तिथियों से जोड़ना होगा। यह कार्य केवल संविधान में संशोधन करके राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना जारी करा कर ही किया जा सकता है। इसके लिए विधानसभाओं के भी कार्यकाल निश्चित किये जाने हेतु जरूरी संविधान संशोधन करना पड़ेगा। अतः केन्द्र सरकार इस बाबत भी संविधान संशोधन विधेयक लाई है। सबसे बड़ा सवाल विपक्ष द्वारा यह उठाया जाता रहा है कि एक साथ चुनाव कराये जाने का असर भारत के संघीय ढांचे के साथ छेड़छाड़ करना होगा। मगर 1967 तक देश में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे हैं और लोगों ने एक साथ ही मतदान किया है परन्तु इन चुनावों में नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ था।
इस तथ्य को हम कैसे भुला देते हैं। अतः विपक्ष का यह सवाल खड़ा करना कि एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय दल कमजोर हो जायेंगे, पूरी तरह आधारहीन है। वर्तमान समय में भी आन्ध्र प्रदेश व ओडिशा में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ होते आ रहे हैं और इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें ही पिछले कई चुनावों से सत्ता पर आसीन होती आ रही हैं। अतः भारत के मतदाता को जो लोग मूर्ख समझ कर कहते हैं कि एक साथ चुनाव होने से लोगों पर लोकसभा चुनावों के मुद्दे ही प्रभावी रहेंगे, वे तार्किक बात नहीं करते। ओडिशा में तो 20 साल बाद ही भाजपा सरकार आई है, जबकि एक साथ चुनाव हो रहे थे। भारत के मतदाता केन्द्र व राज्यों के मुद्दों को ध्यान में रखकर ही अपने मत का उपयोग करने में सक्षम हैं।
एक साथ चुनाव कराने को लेकर सबसे बड़ी बाधा यह है कि यदि चुनाव होने पर त्रिशंकु विधानसभा या लोकसभा के पक्ष में जनादेश आता है तो ऐसी हालत में क्या किया जाये? इस बारे में श्री चौधरी का कहना है कि हमारे संविधान में अविश्वास या विश्वास प्रस्ताव का भी कोई जिक्र नहीं है। इसका निर्णय लोकसभा की नियमावली के आधार पर ही किया जाता है। अतः समिति इस बाबत कुछ नई कानूनी धाराएं भी ला सकती है। चुने हुए सदनों का समय पक्का करने के साथ ही इस बारे में यदि संविधान संशोधन किया जाता है तो उसमें हर्ज ही क्या है? मोटे तौर पर निष्कर्ष यही निकलता है कि एक साथ चुनाव कराने से धन व समय दोनों की बचत ही होगी और लोकतन्त्र के आधारभूत ढांचे पर भी कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा।