ऑपरेशन सिंदूर : चलो चलें विदेश
जितनी चर्चा मोदी सरकार द्वारा विभिन्न देशों में भेजे गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों की..
जितनी चर्चा मोदी सरकार द्वारा विभिन्न देशों में भेजे गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों की नहीं हुई, उससे कहीं अधिक सुर्खियां कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने बटोरीं। अपेक्षानुसार, उनकी कांग्रेस पार्टी एक भिन्न स्वर में बोल रही है। जिस दिशा में वह विमर्श को मोड़ सकती थी, और शायद मोड़ना भी चाहिए था, उसकी बजाय कांग्रेस ने तुच्छ राजनीति का सहारा लिया। उसने बहुदलीय प्रतिनिधिमंडलों के उद्देश्य पर प्रश्न उठाने के बजाय केवल नामों को लेकर वाद-विवाद किया। इस महीने की शुरुआत में मोदी सरकार ने घोषणा की थी कि वह आतंकवाद के खिलाफ भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाने के लिए विभिन्न देशों में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजेंगे सरकार ने विभिन्न दलों के सांसदों को चुनकर उन्हें 33 देशों में वहां के सांसदों, मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों और थिंक टैंकों से मिलने के लिए भेजा। आलोचकों ने इस कदम की आलोचना करते हुए इसे “महज एक यात्रा और पर्यटन कार्यक्रम” करार दिया। इस पूरे प्रयास के दो पहलू हैं। एक, जो अधिक लोकप्रिय है, यह मानता है कि यह एक रक्षात्मक रवैया है जिसमें प्रतिनिधिमंडलों को विभिन्न महाद्वीपों में भेजना दरअसल पिछले महीने पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में भारत की कार्यवाहीको जायज़ ठहराने की कोशिश है, जहां 26 पर्यटकों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। दूसरी ओर, यह भी माना गया कि यह संपर्क अभियान आवश्यक, तात्कालिक और पूर्ववर्ती परंपराओं के अनुरूप है। यह तर्क भी दिया गया कि भारतीय मिशन पहले से ही सक्षम हैं और वही कार्य करना चाहिए जो अब सांसदों को सौंपा गया है। लेकिन इसके विपरीत यह भी तर्क है कि क्या राजनयिक वही कर सकते हैं जो एक सांसद कर सकते हैं? शायद नहीं। सांसद अधिक प्रभावशाली दूत होते हैं, वे राष्ट्रीय दृष्टिकोण को अधिक स्वतंत्रता और योग्यता के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं। इसके उलट, राजनयिकों को औपचारिक मर्यादाओं और सीमाओं में बंधकर काम करना होता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत ऐसा करने वाला पहला देश नहीं है। दुनिया भर में सरकारें संसद सदस्यों का उपयोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने और राष्ट्रीय हितों को उजागर करने के लिए करती रही हैं। इस दृष्टि से देखें तो इस पहल में कोई असंगतता नहीं मानी जा सकती।
भारत में भी ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब मोदी युग से पहले की सरकारों ने संसद सदस्यों को विदेश भेजकर उनके समकक्षों से संवाद स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। उदाहरण के लिए, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को परमाणु मुद्दों पर भारत का पक्ष रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में भेजा था। जहां तक प्रतिनिधिमंडलों की बात है, डॉ. मनमोहन सिंह ने भी 2008 के मुंबई आतंकी हमले के बाद एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को विदेश भेजा था। हालांकि, इस बात को लेकर संदेह बना हुआ है कि क्या यह प्रतिनिधिमंडल भेजने का उपयुक्त समय था। विपक्षी सांसदों को ही विदेश में भारत का पक्ष रखने की ज़िम्मेदारी सौंपकर मोदी सरकार ने एक तरह से एक तीर से दो निशाने साधे हैं-एक ओर यह एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक पहल रही, तो दूसरी ओर इससे विपक्ष की वह तीखी आलोचना भी दब गई, जो सरकार को भीतर से घेर सकती थी। चूंकि विभिन्न दलों के सांसदों ने विदेशों में जाकर “भारत का संदेश” प्रस्तुत किया, अब विपक्ष के लिए सरकार को उन्हीं मुद्दों पर घेरना कठिन हो गया है, जिन्हें उसके ही सांसदों ने विश्व मंच पर उठाया। लेकिन बात फिर लौटती है शशि थरूर पर- और कांग्रेस की उस असमर्थता पर कि वह अपने ही सांसद को केंद्र के निमंत्रण को स्वीकार करने से रोक नहीं सकी। अपनी पार्टी की आपत्तियों के बावजूद, थरूर ने सरकार का निमंत्रण स्वीकारने के फैसले पर अडिग रहते हुए कहा, “राष्ट्रसेवा हर नागरिक का कर्तव्य है।” कांग्रेस की नाराज़गी इस बात को लेकर है कि सांसदों को किसी आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने से पहले पार्टी की सहमति लेनी चाहिए थी, और यह भी कि सरकार ने उन चार सांसदों- आनंद शर्मा, गौरव गोगोई, सैयद नसीर हुसैन और राजा बरार को सूची में शामिल नहीं किया जिन्हें कांग्रेस ने नामित किया था।
तुलनात्मक रूप से देखें तो इन चारों को मिलाकर भी शशि थरूर के प्रभाव की बराबरी नहीं की जा सकती। थरूर राष्ट्र को पार्टी से ऊपर रखते हैं और देश की बात करते हैं, न कि केवल पार्टी लाइन पर चलते हैं। यह बात कांग्रेस के अन्य नामांकित नेताओं के बारे में नहीं कही जा सकती। साथ ही, थरूर कभी भी तुच्छ राजनीति का सहारा नहीं लेते जो इन चारों के बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। विडंबना यह है कि थरूर जहां एक स्वाभाविक और सर्वसम्मत चयन होने चाहिए थे, वहीं कांग्रेस की सूची में उनका नाम तक नहीं था। भले ही अनिच्छा से ही सही, भाजपा पर “राजनीति खेलने” का आरोप लगाया जा सकता है कि उसने थरूर को चुना। लेकिन क्या कांग्रेस इससे बरी हो सकती है? पार्टी ने थरूर को शर्मिंदा करने के लिए पर्याप्त प्रयास किए। पार्टी के महासचिव जयराम रमेश ने यहां तक कह दिया कि “कांग्रेस में होना” और “कांग्रेस का होना” दो अलग बातें हैं। संदेश स्पष्ट था: थरूर अब पार्टी के भीतर रहकर भी एक बाहरी व्यक्ति बन गए हैं।
इस पूरे टकराव में पराजित असल में कांग्रेस ही हुई है। यह सर्वविदित है कि थरूर ने कई मौकों पर नरेंद्र मोदी सरकार के रुख का समर्थन किया है, विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ हालिया तनाव के दौरान। उनके बयान अक्सर भाजपा की लाइन के करीब होते हैं, जो कांग्रेस को खटकते हैं। यही कारण था कि जब थरूर ने केरल में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी के साथ मंच साझा किया था, तब मोदी ने व्यंग्यपूर्वक कहा था कि इससे “कई लोगों की नींद उड़ जाएगी”—जिसका संकेत स्पष्ट रूप से कांग्रेस की ओर था।
स्पष्ट है कि हाल के वर्षों में थरूर और कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ी है। चौथी बार सांसद बने थरूर को पार्टी में “संभालना मुश्किल” माना जाता है। वे बेबाकी से बोलते हैं, भले ही वह पार्टी लाइन के खिलाफ हो। केरल कांग्रेस में अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश में लगे थरूर को पार्टी लगातार नज़रअंदाज़ करती रही है। ऐसे में यदि भाजपा उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश करे, तो ऐसा लगने लगा है कि यह वाक्पटु सांसद तैयार दिखते हैं।
कांग्रेस के विपरीत, तृणमूल कांग्रेस ने अपने सांसद यूसुफ पठान को प्रतिनिधिमंडल से हटवा लिया। तृणमूल का कहना था कि सरकार ने बिना पार्टी की अनुमति के उसके सांसद का चयन किया, जिससे वह नाराज़ थी। जहां मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात है, भाजपा ने एक अच्छा कदम यह उठाया कि उसने विदेश भेजे गए प्रतिनिधिमंडलों में मुस्लिम चेहरों को भी शामिल किया। इसे प्रतीकवाद कहें या रणनीति, लेकिन एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी ने संतुलन बैठाया।
पहलगाम हमले के बाद ओवैसी के भारत-समर्थक बयानों ने उनके कथित राष्ट्रविरोधी छवि को काफी हद तक कम किया। बहरीन यात्रा के दौरान पाकिस्तान को “विफल राष्ट्र” कहकर उन्होंने यह दोहराया कि राष्ट्रहित में वे भारत और भारतीयों के साथ खड़े हैं।
ओवैसी के अलावा कई अन्य मुस्लिम प्रतिनिधियों की भागीदारी को भाजपा सरकार की उस कोशिश के रूप में भी देखा जा रहा है, जिसके जरिए वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की छवि को सुधारना चाहती है। हालांकि, मोदी सरकार की इस अंतर्राष्ट्रीय पहल को लेकर कई सवाल अब भी बने हुए हैं- यह क्यों और कैसे हुआ? मगर सच्चाई यही है कि सरकारें, चाहे वह भाजपा की हों या किसी और की, अक्सर “करो तो दोष, न करो तो भी दोष” जैसी स्थिति में ही फंसी रहती हैं।