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विपक्षी एकता की ‘कुर्सी दौड़’

एक बार फिर देश में विपक्षी एकता की चहचहाट हो रही है और दक्षिण की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के नेता के. चन्द्रशेखर राव उत्तर के नीतीश कुमार के साथ बैठकें कर रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर एक मोर्चा बनाने का संकल्प दोहरा रहे हैं।

12:52 AM Sep 03, 2022 IST | Aditya Chopra

एक बार फिर देश में विपक्षी एकता की चहचहाट हो रही है और दक्षिण की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के नेता के. चन्द्रशेखर राव उत्तर के नीतीश कुमार के साथ बैठकें कर रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर एक मोर्चा बनाने का संकल्प दोहरा रहे हैं।

विपक्षी एकता की ‘कुर्सी दौड़’
एक बार फिर देश में विपक्षी एकता की चहचहाट हो रही है और दक्षिण की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के नेता के. चन्द्रशेखर राव उत्तर के नीतीश कुमार के साथ बैठकें कर रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर एक मोर्चा बनाने का संकल्प दोहरा रहे हैं मगर दूसरी तरफ केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के नेता श्री नरेन्द्र मोदी इसे भ्रष्टाचारियों को बचाने के प्रयास में शुरू किया गया राजनैतिक ध्रुवीकरण  बता रहे हैं। निश्चित रूप से तेलंगाना के मुख्यमन्त्री चन्द्रशेखर राव की बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार या उपमुख्यमन्त्री तेजस्वी यादव अथवा उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के संस्थापक लालू यादव के साथ की गई बैठकों का विपक्षी एकता के सन्दर्भ में कोई खास वजन नहीं है क्योंकि मूलतः ये बैठकें दो राजनैतिक परिवारों के बीच ही मानी जायेंगी। तेलंगाना में श्री चन्द्रशेखर राव के परिवार की ही पार्टी से लेकर सरकार पर सत्ता है और बिहार में बेशक मुख्यमन्त्री जनता दल (यू) के श्री नीतीश कुमार हैं मगर शासन की असली चाबी लालू जी के परिवार के हाथ में ही है।विपक्ष के नाम पर हमे पूरे भारत के विभिन्न राज्यों में राजनैतिक दलों के नाम पर पारिवारिक राजनैतिक पार्टियां ही नजर आती हैं । बेशक इनमें से कुछ की अपने-अपने  राज्यों में सरकारें भी हैं जैसे प. बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की, तेलंगाना में चन्द्रशेखर राव की तेलंगनाना राष्ट्रीय समिति की, बिहार में लालू जी के परिवार की व तमिलनाडु में स्व. करुणानिधि के परिवार की द्रमुक की। मगर मूल सवाल यह है कि उत्तर की समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी से लेकर पूर्व की तृणमूल कांग्रेस व दक्षिण की द्रमुक के बीच ऐसा कौन सा सैद्धान्तिक तार है जो इन्हें आपस में जोड़ता है?  गौर से देखें तो यह एकमात्र धागा सत्ता का है और मोदी विरोध है । हकीकत यह है कि भारत में अब ऐसा कोई प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दल नहीं बचा है जो कभी न कभी केन्द्र की सत्ता में शामिल न रहा हो या जिसके समर्थन से केन्द्र की सरकार न चली हो। 1998 से लेकर 2004 तक नई दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व में अटल बिहारी सरकार चली जिसमें 23 राजनैतिक दलों का सांझा मोर्चा जिसे एनडीए या राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चा कहा गया। इसके बाद 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 16 से अधिक क्षेत्रीय दलों की यू पी ए या प्रगतिशील मोर्चा सरकार चली। इनमें से बहुत से ऐसे दल भी थे जिन्होंने यूपीए व एनडीए दोनों की ही सरकार में सत्ता का आन्नद उठाया। अतः सवाल यह है कि क्षेत्रीय दलों के संयुक्त मोर्चे या एक मंच पर आने का प्रयास केवल अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई है क्योंकि इन सभी ने यह भलीभांति महसूस कर लिया है कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी का मुकाबला करने की उनकी क्षमता चुकती जा रही है और विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी उनमें से किसी एक को भी इस योग्य नहीं मानती है कि अखिल भारतीय स्तर पर उनमें से किसी एक का भी नेता भारतीय मतदाताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने की क्षमता रखता है। क्षेत्रीय दलों के लिए यह विकट स्थिति है क्योंकि नरेन्द्र मोदी लगातार पारिवारवादी राजनीति पर हमला कर रहे हैं और पारिवारिक सरकारों के भ्रष्टाचार को केन्द्र में ला रहे हैं। पूर्व में ये पार्टियां भाजपा अथवा कांग्रेस में से किसी एक के छाते के नीचे आकर अपनी सत्ता की प्यास बुझाती रही हैं मगर अब ये समझ रही हैं कि कांग्रेस पार्टी में वह दमखम नहीं रहा जो पहले था। यही वजह है कि हाल ही में भाजपा का साथ छोड़ कर लालू जी के परिवार के खेमे में पहुंचे नीतीश कुमार को कुछ क्षेत्रीय दल ‘बांस’ पर चढ़ाने की मुहिम में लगे हुए हैं। यह मुहिम भाजपा विरोध के नाम पर की जा रही है।
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भारत में भाजपा विरोध कोई नया नहीं है यह 1952 के प्रथम चुनावों से तब से ही जारी है जब से इसके संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जीवित थे और पहले ही लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी के दो अन्य सांसदों के साथ लोकसभा में पहुंचे थे। कुल तीन सांसदों में एक सांसद राजस्थान के भीलवाड़ा लोकसभा क्षेत्र से भी चुन कर आये थे। जाहिर है कि पहली लड़ाई में जनसंघ (भाजपा) ने सैद्धान्तिक आधार पर वैकल्पिक राजनैतिक विमर्श स्पष्ट रूप से रख दिया था जो पं. नेहरू की कांग्रेस के विमर्श के विरुद्ध था। तभी से कांग्रेस व भाजपा के बीच राजनैतिक युद्ध चल रहा है । इस दौरान सैद्धान्तिक व वैचारिक आधार पर कांग्रेस के नेताओं के बदलने व इसमें जारी टूट-फूट की वजह से बहुत संशोधन हुए मगर एकमात्र जनसंघ (भाजपा) ऐसी पार्टी रही जिसने 1951 में लिखे अपने प्रथम घोषणापत्र में कोई बदलाव नहीं किया। बल्कि वास्तव में उल्टा हुआ यह कि 1991 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने ही जनसंघ के घोषणापत्र में लिखी आर्थिक नीतियों को अपनाया और अर्थव्यवस्था को बाजार मूलक बनाने की तरफ कदम बढ़ाया। अतः मूल सवाल यह है कि श्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 के बाद से जो कुछ भी ख्याति या देश के विकास के प्रारूप के बारे में प्रतिष्ठा हासिल की वह जनसंघ के मूल सिद्धान्तों के तहत ही की।
 लोकतन्त्र में आर्थिक तन्त्र ही राजनैतिक तन्त्र को प्रभावित करता है अतः भाजपा विरोध का अर्थ सांकेतिक ही रह जाता है। यह बात अलग है कि सत्ता की ‘कुर्सी दौड़’ लोकतन्त्र में हमेशा जारी रहती है और इसमें बाजी वही जीतता है जिसकी आम जनता के बीच साख पुख्ता रहती है। भाजपा ने तो 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में ही अपने पत्ते साफ कर दिये थे। ये पत्ते प्रखर राष्ट्रवाद के भीतर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के थे। इस राष्ट्रवाद का अगर कोई जवाब है तो वह सामने आना चाहिए। भाजपा के ‘भारत के विचार’ को यदि जनता स्वीकृति दे रही है तो इसमें लोकतन्त्र की ही खूबसूरती छिपी हुई है। विपक्षी एकता तभी हो सकती है जब किसी वैकल्पिक विमर्श को देश की जनता स्वीकार करे इसके बिना यह मात्र कुर्सी दौड़ ही रहेगी।
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