जिहादी मानसिकता का पहलगाम अध्याय !
हिंदुओं के खिलाफ मज़हबी आतंक का नया अध्याय…
जाति नहीं, मज़हब पूछ कर हत्याएं की गईं पहलगाम में -यह वाकई आज़ाद भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों पर लगा वह गहरा और क्रूर तमाचा है जिसे देखने और महसूस करने के लिए केवल आंखें नहीं, बल्कि संवेदनशील चेतना की भी आवश्यकता है। यह कोई साधारण हत्या नहीं थी, न ही यह किसी उन्मादी व्यक्ति की व्यक्तिगत हिंसा थी, यह सोची-समझी, संगठित और मज़हबी कट्टरता से पोषित वह जिहादी हिंसा थी जो वर्षों से भारत के कश्मीर में हिंदुओं के अस्तित्व पर हमला करती आई है। पहलगाम में मारे गए निर्दोषों का दोष केवल इतना था कि वे मुसलमान नहीं थे लेकिन इस घटना का परिप्रेक्ष्य केवल एक आतंकी हमले तक सीमित नहीं है। यह मुस्लिम वक्फ बोर्ड की हताशा, विपक्षी राजनीतिक दलों की कायर सहमति और इस्लामी आतंकी संगठनों की साझा रणनीति का जीवंत प्रमाण है।
केंद्र सरकार द्वारा वक्फ बोर्ड की जांच और इसके विशेषाधिकारों पर लगाम कसने के बाद यह साफ दिखने लगा है कि किस प्रकार भारत की धार्मिक ज़मीन को मज़हबी सम्पत्ति में बदलने वाले संस्थान अब हिल गए हैं। यही हताशा अब हिंसात्मक प्रतिक्रियाओं में बदल रही है। विपक्षी दल-विशेष रूप से कांग्रेस, टीएमसी और अन्य तथाकथित सेक्युलर शक्तियां इस मुद्दे पर न केवल मौन हैं, बल्कि पर्दे के पीछे इन जिहादी आकांक्षाओं के पोषण में भी शामिल दिखती हैं। इनका मौन समर्थन उस मानसिकता को बल देता है जो मानती है कि भारत में बहुसंख्यक समुदाय को खुलकर मारो और फिर भी मानवाधिकार की ढाल से खुद को बचा लो। पहलगाम का यह हमला एक प्रतीक है, भारत में मज़हबी आतंक, राजनीतिक अवसरवाद और वैचारिक देशद्रोह के गठजोड़ का प्रतीक।
जब एक जिहादी आतंकवादी मज़हब पूछकर गोलियां चलाता है तब यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा का उद्देश्य केवल भौतिक मृत्यु नहीं है, बल्कि भारत की बहुलतावादी आत्मा की हत्या है। यह उसी मानसिकता की उपज है जिसने 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों को ‘धर्म बदलो, मरो या भागो’ का विकल्प दिया था। जिहाद के इस विकृत रूप ने कभी इंसानियत की परिभाषा नहीं मानी उसके लिए काफिर की हत्या पुण्य है और ‘गैर’ का खून बहाना धार्मिक कर्त्तव्य। पहलगाम की घटना उसी कड़ी की नवीनतम कड़ी है जिसमें मज़हबी जुनून के आधार पर निर्दोष हिंदुओं को निशाना बनाया गया। प्रश्न यह है कि इस मानसिकता का मूल क्या है? इसका उत्तर हमें सिर्फ एके-47 या आईईडी में नहीं, बल्कि उन मदरसों, जामियाओं और मस्जिदों के भीतर मिलेगा जहां एक मज़हब को अंतिम सत्य मानने की शिक्षा दी जाती है और बाकियों को या तो ‘दावत’ से मुसलमान बनाने या ‘जिहाद’ से मिटाने का पाठ पढ़ाया जाता है।
इस्लामी जिहादी मानसिकता की बुनियाद एकाधिकारवादी विश्वास पर टिकी है। यह मान्यता कि ‘जो अल्लाह को नहीं मानता, वह जीने का हक़दार नहीं’ न केवल कट्टरता का प्रमाण है, बल्कि सभ्यता विरोधी विचारधारा है। छद्म धर्मनिरपेक्षता-भारतीय समाज का सबसे बड़ा धोखा कश्मीर में हिंदुओं के संहार पर चुप रहने वाली मीडिया, दिल्ली में कोई एक मुस्लिम हत्याकांड होने पर असहमति मार्च निकालती है। बुद्धिजीवी तब मौन हो जाते हैं जब पहलगाम में हिंदू यात्रियों की हत्या होती है। उन्हें ‘जिहाद’ शब्द से परहेज़ है लेकिन ‘हिन्दुत्व’ से डराने की आदत है। सुप्रीम कोर्ट ने 1984 के सिख विरोधी दंगों पर स्वतः संज्ञान लिया परंतु कश्मीरी पंडितों की व्यथा पर मौन साध लिया।
यह मौन केवल निष्क्रियता नहीं, बल्कि अन्याय का संरक्षक बन चुका है। मज़हबी संगठनों के अतिरिक्त एनजीओ फंडिंग एजेंसियां, सऊदी अरब और पाकिस्तान जैसे देश भी भारत में जिहादी प्रचार को फंड करते हैं। इनके एजेंट, कट्टरपंथी मौलवी और सोशल मीडिया पर सक्रिय इन्फ्लूएंस युवाओं को मजहबी घृणा से भरते हैं। जामिया और एएमयू जैसे संस्थानों में खुलेआम भारत विरोधी और जिहादी विचारधारा पनपती है। यह एक सुनियोजित साजिश है राष्ट्र को भीतर से खोखला करने की। केवल संवेदना नहीं, रणनीतिक प्रतिकार और आर्थिक व सामाजिक प्रतिशोध की आवश्यकता है। आज का भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक वैचारिक राष्ट्र, राज्य है, जिसकी आत्मा सनातन संस्कृति में रची-बसी है। जब उस आत्मा पर लगातार मज़हबी आतंक द्वारा प्रहार होता है तो केवल कड़ी निंदा या मोमबत्ती जलाना पर्याप्त नहीं होता। अब समय आ गया है कि राष्ट्र की नीति और समाज की चेतना दोनों उस स्तर पर उत्तर दें जो युद्ध स्तर पर सोचने की मांग करता है। पहला कदम होना चाहिए आर्थिक दंड और सामाजिक बहिष्कार।
जिन क्षेत्रों, संस्थानों और व्यापारिक तंत्रों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिहादी मानसिकता को समर्थन और फंडिंग मिलती है उन पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए यदि कोई एनजीओ या मुस्लिम एजुकेशनल संस्था खुलेआम ऐसे उपदेशकों और कट्टरपंथियों को मंच देती है तो उस संस्था की मान्यता, फंडिंग और टैक्स छूट तत्काल समाप्त होनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी फंडिंग और हवाला नेटवर्क की विस्तृत जांच अनिवार्य है जो भारत में मज़हबी कट्टरता को आर्थिक आधार प्रदान करते हैं। आज भी सऊदी अरब, तुर्की और कतर जैसे देशों से आने वाली ‘ज़कात’ और ‘वक्फ फंडिंग’ का बड़ा हिस्सा सीधे जिहादी एजेंडे को मजबूत करता है। क्या कारण है कि भारत की जांच एजेंसियां इस पर नाममात्र की कार्रवाई करती हैं? क्या यह भी छद्म धर्मनिरपेक्षता के भय का परिणाम नहीं परंतु केवल संस्थाओं पर नहीं, समाज में सक्रिय उन कथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों और नेताओं पर भी कठोर वैचारिक और सामाजिक प्रतिशोध ज़रूरी है, जिन्होंने जिहाद को ‘प्रतिक्रिया’ कहा और कट्टरता को ‘प्रतिरोध’ बताया।
यह नैतिक अधोगति अब राष्ट्र के लिए असहनीय होनी चाहिए। आख़िर एक राष्ट्र कब तक उन लोगों को सम्मान देता रहेगा जो अपने ही देश की बहुसंख्यक पीड़ित जनता के रक्त से सनी चुप्पी ओढ़े रहते हैं? क्या समय नहीं आ गया है कि इन छद्म धर्मनिरपेक्षों को प्रथम चेतावनी दी जाए -सार्वजनिक बहिष्कार, पद्म सम्मान वापसी, संस्थागत अनुदान की समाप्ति और इनके पक्ष में खड़े मीडिया घरानों का सामाजिक निषेध? अब सामाजिक एकता केवल भाईचारे की शर्त पर नहीं, न्याय की मांग पर आधारित होनी चाहिए। जब तक हम हिंदू मारे जाने पर ‘मौन’ रहने को गुनाह नहीं मानेंगे तब तक जिहादी मानसिकता को खुला मैदान मिलता रहेगा। इसीलिए समाधान का दूसरा बड़ा स्तंभ होना चाहिए विचारधारा, स्तरीय युद्ध। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में ‘धर्मनिरपेक्षता’ की पुनर्परिभाषा होनी चाहिए।
जो संविधान समानता की बात करता है वह केवल अल्पसंख्यकों के लिए नहीं, बल्कि बहुसंख्यकों के मौलिक अधिकारों की भी गारंटी है। और यदि वह गारंटी बार-बार टूटी जा रही है तो उसका स्पष्ट विरोध होना चाहिए न्यायिक, वैधानिक और सामाजिक तीनों स्तरों पर। समाधान दोहरे स्तर पर होना चाहिए प्रतिबंध और प्रतिशोध दोनों साथ चलें। याद रखिए पहलगाम के शहीदों का बदला केवल शब्दों से नहीं, ठोस और दीर्घकालीन कार्रवाई से लिया जाएगा और यह कार्रवाई तब तक अधूरी है जब तक जिहादी मानसिकता को पालने वाले सेक्युलर शेरों को भी समाज आईना न दिखाए। कश्मीर भारत का मुकुट है और हिंदू रक्त से सींचा गया यह भू-भाग किसी जिहादी मज़हब की बपौती नहीं हो सकती। हमें स्मरण रखना होगा कि आतंकवादी केवल बंदूक नहीं चलाता, वह विचारधारा का वाहक होता है और जब तक उस विचारधारा को कुचल कर समाप्त नहीं किया जाएगा तब तक पहलगाम दोहराया जाएगा, कभी कहीं और।
इस लेख के माध्यम से मैं स्पष्ट रूप से कहता हूं -जिहादी मज़हब की मानसिकता ही कश्मीर के नरसंहारों की जड़ है और इस मानसिकता को कांग्रेस ने वोट बैंक के लिए और वामपंथियों ने बौद्धिक आतंकवाद के लिए प्रश्रय दिया है। अब समय आ गया है कि भारत इस षड्यंत्र को उजागर करे, नाम लेकर इसका प्रतिकार करे और अपने सनातन धर्म, अपने नागरिकों और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए संगठित हों। पहलगाम की शहीद आत्माएं हमें पुकार रही हैं-क्या हम अभी भी मौन रहेंगे?